हिंदी शोध संसार

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

नेहरू की ही सवा-शताब्दी क्यों?

शंकर शरण 
IV/ 44, एन.सी..आर.टी. आवास, श्री अरविंद मार्ग, नई दिल्ली 110 016


जवाहरलाल नेहरू की सवा-शताब्दी मनाने हेतु बनी उच्च-स्तरीय समिति का पुनर्गठन एक अधूरा कदम है। उस के पहले देश को यह बताया जाना चाहिए कि किस आधार पर नेहरू की शताब्दी और सवा-शताब्दी मनाने के लिए मँहगा सरकारी उपक्रम हुआ, जबकि डॉ. राजेंद्र प्रसाद के लिए नहीं?
यदि नेहरू प्रथम प्रधान मंत्री थे, तो प्रसाद भी प्रथम राष्ट्रपति थे। उसी तरह, क्यों गाँधी-जयंती स्थाई अवकाश घोषित हो गया, जबकि ‘राष्ट्र-पितामह’ स्वामी दयानन्द सरस्वती को वह मान नहीं मिला? फिर, किस कारण सरदार वल्लभभाई पटेल को स्वतंत्र भारत के चौवालीस वर्षों तक देश के औपचारिक सर्वोच्च सम्मान के योग्य नहीं समझा गया? उन से पहले इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी ही नहीं, कई क्षेत्रीय नेताओं तक को भारत-रत्न बनाया जा चुका था! अतः अनेक सवाल एवं तथ्य नेहरू और उनके वंश की महानता भारतीय मानस पर जबरन थोपने का संकेत करते हैं।
हरेक देश में किसी दिवंगत की जयंती मनाने या न मनाने के कारण मूलतः समान होते हैं। जिसने देश और समाज की सच्ची सेवा की, उसे याद करते हैं। जिसने ऐसा कुछ विशेष न किया अथवा हानि पहुँचाई, उसे भूल जाया जाता है। अतः तुलनात्मक सवाल यह भी है कि आज रूस में लेनिन और चीन में माओ को किन कारणों से विस्मृत किया जा चुका है?
लेनिन से नेहरू की तुलना भारत में पहले भी होती रही है। तीस-चालीस साल पहले कांग्रेसी नेता और मार्क्सवादी प्रोफेसर इस पर लेख व पुस्तकें प्रकाशित किया करते थे, और सरकार से ईनाम पाते थे। तब रूस में लेनिन और यहाँ नेहरू की अतुलनीय महानता एक स्वयंसिद्धि होती थी। तदनुरूप दोनों को अपने-अपने देश का मुक्ति-योद्धा, प्रथम शासक, मार्गदर्शक, विचारक, नीति-निर्माता, इस प्रकार महामानव, आदि बताने का चलन था।
फिर समय आया कि रूसियों ने वह लेनिन-पूजा बंद कर दी। वही स्थिति चीन में माओ की हुई। इस तरह, आज उन देशों में अपने-अपने उन कथित मार्गदर्शक, महान विचारक लेनिन, माओ की जयंती मनना तक पूरी तरह बंद हो चुका है। रूस और चीन में इस व्यक्ति-पूजा पटाक्षेप के पीछे कोई जोर-जबर्दस्ती नहीं हुई। रूस चीन की जनता ने सर्वसम्मति से उस कथित महानता का अध्याय बंद किया। कारण यह भी था कि वह पूजा उन पर दशकों तक जबरन थोपी हुई थी। क्या नेहरू की स्थिति भिन्न है?
अब यह निर्विवाद है कि लेनिन, माओ की महानता की गाथाएं उनके देशों में राज्यसत्ता की ताकत के बल पर गढ़ी और प्रचारित की जाती रहीं। उन के जीवन के हर काले अध्याय और कदमों पर भारी पर्दा डाल कर रूसी-चीनी जनगण के जीवन के हर पहलू को लेनिन-माओमय बना डाला गया था। इसीलिए, जैसे ही वह जबरन सत्ता दबाव हटा, लोगों ने स्वयं वह लज्जास्पद पूजा बंद कर दी। इस पर सर्वसहमति इतनी स्पष्ट थी कि उनके देशों में कोई मामूली विवाद तक न हुआ। आज रूस और चीन में टॉल्सटॉय और कन्फ्यूशियस ही सर्वोच्च चिंतक माने जाते हैं, लेनिन और माओ तो बिलकुल नहीं।
सच पूछें तो इस प्रसंग में भी नेहरू को लेनिन से तुलनीय बनाने का समय आ गया है। जिस तरह, कम्युनिस्ट राज ने रूस पर लेनिन-पूजा थोपी थी, उसी तरह नेहरूवंश के राज ने भारत में नेहरू-गाँधी पूजा थोपी। दूसरी ओर, नेहरू का राजनीतिक, वैचारिक रिकॉर्ड भी लेनिन से तुलनीय है। अर्थ-नीति, विदेश-नीति, गृह-नीति, शैक्षिक-नीति, दार्शनिक रुख आदि किसी भी बुनियादी बिन्दु पर नेहरू की विरासत गौरवपूर्ण नहीं है।
उलटे, राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश-नीति में नेहरू के निर्णयों, कार्यों, विचारों में एक से एक लज्जास्पद अध्याय हैं। तिब्बत पर स्थापित भारतीय कूटनीतिक संरक्षण अधिकार को स्वतः छोड़कर उस महत्पूर्ण पड़ोसी देश को अपने ‘मित्र’ कम्युनिस्ट चीन के हवाले कर नेहरू ने स्वयं भारत को अरक्षित कर डाला, जबकि सरदार पटेल ने इसके विरुद्ध चेतावनी दी थी। आज अरुणाचल प्रदेश पर चीन का दावा तिब्बत के माध्यम से है, और किसी तरह नहीं। फिर, प्रधान मंत्री रूप में अपनी प्रथम अमेरिका यात्रा में नेहरू ने अमेरिकियों को कम्युनिस्टों वाला साम्राज्यवाद-विरोध का लेक्चर पिलाकर स्तब्ध, क्षुब्ध कर दिया। इस प्रकार, दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण देश से संबंध बिगाड़ने की शुरुआत की। कम्युनिस्ट चीन से दोस्ती निभाने की खातिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत को प्रस्तावित स्थाई सीट ठुकराया। यहाँ तक कि जब उसी दोस्त ने चुपके से घुस-पैठ कर कश्मीर के पूर्वी हिस्से का एक भाग दखल कर लिया, तो नेहरू ने संसद में प्रधानमंत्री पद से बयान दिया कि ‘उस हिस्से में तो घास भी नहीं उगती’!
ऐसी बचकानी समझ और लज्जास्पद योग्यता वाले व्यक्ति को प्रथम प्रधान मंत्री बनाने का अपराध मोहनदास गाँधी ने किया था। पर विगत छः दशकों के झूठे, सरकारी प्रचार के कारण आज देश के लोग जानते भी नहीं कि स्वतंत्रता मिलने के समय कांग्रेस में प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू पहली तो क्या, दूसरी पसंद भी नहीं थे! सब से ऊपर सरदार पटेल, फिर जे. बी. कृपलानी को कांग्रेसियों ने अपनी पसंद बताया था। उन्हें अमान्य कर गाँधीजी ने नेहरू को थोपा, जिन्होंने स्वतंत्र भारत के नवनिर्माण और नीति-निर्धारण की पूरी मिट्टी पलीद कर दी।
यहाँ तक कि नेहरू का व्यक्तिगत जीवन भी अनुकरणीय नहीं था। स्वयं नेहरू के वरिष्ठतम सहयोगियों समेत अनगिनत समकालीनों ने यह लिखा है। लेडी माउंटबेटन के अंतरंग प्रभाव में नेहरू ने देश का विभाजन, कश्मीर की ऐसी-तैसी तथा कम्युनिस्ट षडयंत्रकारियों की मदद की। कश्मीर को विवादित और पाकिस्तान को सदा के लिए लोलुप बनाने में नेहरू का सबसे बड़ा दोष है। और यह उन्होंने अपने गृहमंत्री सरदार पटेल को अँधेरे में रख कर किया था! यह सब कोई आरोप नहीं, जगजाहिर तथ्य हैं जिनके प्रमाण उतने ही सर्वसुलभ हैं।
तब ऐसे ‘प्रथम’ मार्गदर्शक की सवा-शताब्दी जयंती में हम क्या मनाएं? किस बात की चर्चा करें? क्या वही झूठ और अतिरंजनाएं दुहराएं, जो नेहरूवंशी सत्ता ने जोर-जबरदस्ती और छल-प्रपंच से स्थापित कर दी हैं? क्या समकालीन रूसी और चीनी जनता से इस मामले में कोई तुलनात्मक लाभ न उठाएं?
किसी भ्रम में न रहें। नेहरू के पक्ष में, उनकी विरुदावली और ‘योगदान’ के जितने भी किस्से व तर्क दिए जाते रहे हैं, वे ठीक वैसे ही हैं जैसे सोवियत सत्ता के दिनों में लेनिन के पक्ष में मिलते थे। अतः बिना उन गंभीर दोषों के, जो नेहरू में थे, बावजूद हमारी सरकार ने यदि प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद की कोई शताब्दी या सवा-शताब्दी नहीं मनाई – तो कोई कारण नहीं कि अनगिनत लज्जास्पद कार्यों के बावजूद हम नेहरू पर देश का पैसा और समय बर्बाद करते रहें। यह पहले ही बहुत अधिक हो चुका है, कम से कम इस का ध्यान भी रखें।
केंद्रीय कैबिनेट ने सही निर्णय लिया है कि ल्युटन की दिल्ली में मृत नेताओं को आवंटित बंगलों को ‘स्मारक’ यानी उनके वंशजों द्वारा कब्जाने की प्रक्रिया बंद की जाएगी। किन्तु, तब अब तक किए गए कब्जों को बनाए रखने की क्या तुक है? इसकी शुरुआत तो नेहरू से ही हुई थी। तीनमूर्ति भवन प्रधान मंत्री निवास था। उसे नेहरू की मृत्यु के बाद उनका स्मारक बना दिया गया। उस तर्क से राष्ट्रपति भवन को राजेंद्र प्रसाद का स्माकर बना देना चाहिए था!
अतः जयंती, स्मारक, संस्थाओं, योजनाओं के नामकरण, आदि प्रक्रियाओं में यह विचित्र भेद-भाव – आगे ही नहीं, पीछे का भी – सदा के लिए खत्म होना चाहिए। पतंजलि, पाणिनि, चाणक्य, कालिदास, तुलसीदास, जैसे शाश्वत मूल्य के अनगिन मणि-मानिकों ही नहीं; स्वामी विवेकानंद, श्रीअरविन्द, जगदीशचंद्र बोस, जदुनाथ सरकार, ध्यानचंद, आदि भारत के कई समकालीन सच्चे महापुरुषों को स्वतंत्र भारत में हमने कितना सरकारी-राष्ट्रीय आदर दिया है? हमारे देश में एक लगभग अशिक्षित नेता के नाम पर बीसियों विश्वविद्यालय खोले गए हैं, और महान इतिहासकार जदुनाथ सरकार, महान कवि निराला या अज्ञेय के नाम पर एक भी नहीं! इस का तर्क उस सोवियत व्यवस्था से तनिक भी भिन्न नहीं, जिसमें पूरी शिक्षा को लेनिन-स्तालिनमय कर दिया गया था, जबकि दॉस्ताएवस्की, सोल्झेनित्सिन जैसे मनीषी पुस्तकालयों से भी बहिष्कृत थे।
ध्यान रहे, आधे-अधूरे सुधार किसी काम के नहीं होते। हमारे नए शासकों को साहस दिखाना चाहिए कि देश का स्वाभिमान हमारा आदर्श हो। चाटुकारिता, भेद-भाव और छिछोरापन इस स्वाभिमान को लज्जित करते हैं। नेहरू की सवा-शताब्दी शाही रूप से मनाई जाएगी, पिछली सरकार का यह निर्णय देश का गौरव बढ़ाने वाला नहीं, बल्कि क्षुद्र कारणों से था।
नई सरकार को इस बिंदु पर सांगोपांग और खुला विचार करना चाहिए। देश के महापुरुषों, मनीषियों की पहचान, सम्मान और उनसे सीखने का स्पष्ट और बुद्धिमत्तापूर्ण मानदंड बनाना ही स्वागत योग्य होगा। तब तक सरकार द्वारा स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री की सवा-शताब्दी ठीक वैसी ही मननी चाहिए, जैसी प्रथम राष्ट्रपति की मनी। न कम, न ज्यादा।
हालाँकि, यदि हम गाँधी-नेहरू को वही स्थान दे सकें, जो रूसी जनता ने लेनिन-स्तालिन को दे दिया है तो सब से अच्छा हो। वैसे भी, समय के साथ होगा वही। सत्ता-प्रायोजित महानता को लोग सदा माथे पर उठाए नहीं रहेंगे। चाहें तो तीन-मूर्ति भवन को सभी दिवंगत नेताओं को श्रद्धांजलि-स्मारक में बदल दें। उन्हें, उनके गुणों का स्मरण करना तो ठीक है। किन्तु उस से पहले हमें यह भी स्मरण करना चाहिए कि भारतवर्ष में अनादिकाल से मरणशील मनुष्यों, चाहे वे कितने ही महान रहे हों, का कोई स्मारक, समारोह, जयंती मनाने की परंपरा नहीं रही है। जहाँ से हमने यह परंपरा नकल कर ली है, वहाँ भी इस की एक लाज रहती है। कम से कम हम इस का भी ख्याल रखें।
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