*डॉ
देवकुमार पुखराज*
डीएमके
प्रमुख एम.
करुणानिधि
ने एक बार फिर से पुराना राग
अलापा है। वे श्रीलंकाई तमिलों
के लिए होमलैंड बनाने की तरफदारी
में नये सिरे से कूद पड़े हैं,
जिसे तमिल
ईलम की संज्ञा दी जाती है।
तमिल ईलम को अपने जीवन का लक्ष्य
बता रहे करुणानिधि ने मृतप्राय
हो चुकी तीन दशक पुरानी तमिल
ईलम सपोर्टर्स ऑर्गेनाइजेशन
यानि टेसो को फिर से खड़ा और
सक्रिय किया है। अगस्त महीने
की 12 तारीख
को चेन्नई वाईएमसीए ग्राउंड
में टेसो का सम्मेलन बुलाया
है। सम्मेलन में भाग लेने के
लिए कांग्रेस,
भाजपा,
जदयू,
टीएमसी
और वामदलों के साथ ही श्रीलंकाई
तमिल सांसदों को भी आमंत्रित
किया जा रहा है। ये वही टेसो
है जिसने कभी चेन्नई में शरण
लिये लिट्टे नेताओं को वापस
लौटाने संबंधी राजीव गांधी
सरकार के फैसले को रद्द करवाने
पर मजबूर कर दिया था। अब उसी
टेसो को सक्रिय कर करुणानिधि
अपनी राजनीतिक दुकान चमकाने
चले हैं। लेकिन डीएमके प्रमुख
के इस फैसले से केन्द्र की
यूपीए सरकार परेशानी में फंसती
दिख रही है। गृहमंत्री पी.
चिदम्बरम्
ने साफ कर दिया है कि भारत सरकार
तमिल ईलम के पक्ष में नहीं है।
कहते हैं कि दिल्ली में पिछले
दिनों मिलने आए डीएमके सुप्रीमों
को पी.चिदम्बरम्
ने दो टूक समझा दिया कि सम्मेलन
में ऐसा कुछ नहीं हो जिससे
मित्रदेश (श्रीलंका
) के
साथ के संबंधों पर असर पड़े।
जानकारों का कहना है कि गृहमंत्री
के कहने पर करुणानिधि ने
श्रीलंका के तमिल बहुल इलाके
को पृथक तमिल ईलम बनाने संबंधी
प्रस्ताव सम्मेलन में पास
कराने का विचार छोड़ दिया।
लेकिन वहां जनमत संग्रह कराने
के लिए अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी
पर दबाव बनाने और श्रीलंका
पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने
जैसे सवालों पर अब भी वे कायम
हैं। वे कुसोवो,
दक्षिणी
सुडान, पूर्वी
तिमोर, मोंटेनिग्रो
जैसे देशों का उदहारण देते
हैं जो यूनाइटेड नेशंस के
हस्तक्षेप पर हुए जनमत संग्रह
के बाद अस्तित्व में आए।
करुणानिधि अपने को तमिल बिरादरी
का चैम्पियन साबित करने के
लिए डीएमके के एक तीन दशक पुराने
प्रस्ताव की चर्चा करते हैं।
उनका कहना है कि 1983
में डीएमके
की जनरल काउंसिल ने बैठक के
दौरान प्रस्ताव पास कर कहा
था श्रीलंका में तमिल समस्या
का एकमात्र हल अलग तमिल ईलम
(तमिल
प्रदेश) ही
है। पिछले दिनों एक इंटरव्यू
में करुणानिधि ने कहा था कि
दुनिया भर में फैले तमिलों
के कानों में आजादी का गीत
बजते रहता है। श्रीलंकाई
तमिलों के बहे आंसू और खून
बेकार नहीं जाएंगे। आज नहीं
तो कल तमिल ईलम बनकर रहेगा।उनका
भी अंतिम सपना यही है। वैसे
द्रविड राजनीति के इस माहिर
खिलाड़ी की नई कवायद को लोग
हल्के में नहीं ले रहे हैं।
राजनीतिक प्रेक्षक कहते हैं
कि विधानसभा चुनावों में मात
खाने और सत्ता से बेदखल होने
के बाद करुणानिधि अब तमिल
भावना के जरिये 2014
में होने
वाले लोकसभा चुनाव में करिश्मा
की उम्मीद पाले हुए हैं। लेकिन
पीएमके के संस्थापक एस.
रामादौस
कहते हैं- "डीएमके
प्रमुख अलग राज्य की बात कहकर
श्रीलंकाई तमिलों का और नुकसान
करने वाले हैं। इससे उनका भला
होने वाला नहीं है। वैसे भी
इनकी बांतों को कोई गंभीरता
से नहीं लेता।''
तमिलनाडु
की सियासत में तमिल ईलम की
मांग करने वाले करुणानिधि
अकेले नेता नहीं हैं। अन्ना
द्रमुक की नेता और मुख्यमंत्री
जयललिता भी कहती रही हैं कि
तमिलों का भविष्य पृथक तमिल
ईलम में ही सुरक्षित है। चुनावी
घोषणा पत्र में भी एआईएडीएमके
ने नये राज्य की बात कही थी।
एमडीएमके महासचिव वाइको प्रखर
रुप से इस मांग को उठाते रहे
हैं। अप्रैल महीने में वाइको
की एक रैली में हिस्सा लेने
गये लोजपा नेता रामविलास
पासवान ने भी तमिल ईलम की मांग
का पुरजोर समर्थन किया था।
वैसे
टेसो सम्मेलन में तमिल ईलम
के प्रस्ताव से मुकरने संबंधी
करुणानिधि के ताजा बयान को
राजनीतिक हलके में अलग नजरिये
से देखा जा रहा है। कहा जा रहा
है कि यूपीए सरकार के दबाव में
आकर करुणानिधि ने प्रस्ताव
लाने पर अपना निर्णय बदला।
दूसरी बात कही जा रही है कि
तमिलनाड़ु सरकार के दबाव में
आकर चेन्नई में प्रशिक्षण ले
रहे श्रीलंकाई वायुसेना
कर्मियों को वहां से हटाने
के फैसले से केन्द्र को भारी
किरकिरी हुई।अब केन्द्र सरकार
और फजीहत झेलने को तैयार नहीं
है। दरअसल जुलाई के पहले सप्ताह
में ये खबर आई थी कि श्रीलंकाई
वायुसेना के 9
पायलटों
का एक दल चेन्नई के समीप तांबरम्
में प्रशिक्षण ले रहा है। इसके
साथ ही तमिलनाडु की राजनीति
में मानो भूचाल आ गया। विपक्षी
डीएमके और सत्ताधारी एआईएडीएमके
के साथ ही एमडीएमके ने तत्काल
वायु सैनिकों को वापस भेजने
की मांग उठा दी। वाइको ने एक
कदम आगे बढ़कर कहा कि यदि पायलट
वापस नहीं भेजे गये तो एमडीएमके
तांबरम् हवाई अड्डे के बाहर
प्रदर्शन करेगा। मुख्यमंत्री
जयललिता तो इस कदर नाराज हुई
कि उन्होंने केन्द्र सरकार
को चिट्ठी लिख कर अपना विरोध
जताया। जयललिता ने श्रीलंका
में अल्पसंख्यक तमिलों को
बराबरी का दर्जा देने तक
श्रीलंका पर आर्थिक प्रतिबंध
लगाये जाने की मांग उठाई और
विधान सभा में इस आशय के पारित
प्रस्ताव पर कार्रवाई नहीं
करने के लिए यूपीए सरकार की
आलोचना भी की। बताते हैं कि
चौतरफा दबाव में आई केन्द्र
सरकार ने सभी को तांबरम्
वायुसेना से हटाकर बैंगलोर
के यलहंका वायुस्टेशन भेज
दिया। चेन्नई में इस आशय का
बयान भी जारी कर दिया गया।
सियासी विवाद के बाद एक मित्र
देश के प्रशिक्षुओं के स्थानांतरण
और उसकी आधिकारिक घोषणा ने
यूपीए सरकार की भारी फजीहत
करायी। इससे पहले संयुक्त
राष्ट्र मानवाधिकार परिषद
में तमिलों के मानवाधिकार
हनन संबंधी प्रस्ताव पर श्रीलंका
के खिलाफ भारत के मतदान ने भी
नई दिल्ली और कोलंबो के रिश्तों
में तल्खी बढ़ाई थी। दरअसल
लिट्टे के खिलाफ युद्ध के
दौरान श्रीलंकाई सेना द्वारा
तमिलों पर किये गये अमानवीय
अत्याचार के विरोध में पश्चिमी
देशों ने संयुक्त राष्ट्र
मानवाधिकार परिषद में प्रस्ताव
लाया था। डीएमके,
अन्ना
द्रमुक और वामदल के नेताओं
के संसद में हंगामे के बाद
सरकार ने प्रस्ताव के पक्ष
में मतदान कर दिया। उस प्रस्ताव
के समर्थन में भारत
सहित 24
देशों
ने मतदान किया था जबकि भारत
के पड़ोसी देशों-
चीन,
पाकिस्तान,
सऊदी
अरब,
मालदीव,
बांग्लादेश
और इंडोनेशिया जैसे 15
देशों
ने प्रस्ताव के खिलाफ वोट डाला
था। जाहिर है कोलंबो को ये
नागवार गुजरा था। भारत के
सुरक्षा विशेषज्ञ कहते हैं
कि प्रभावशाली पश्चिमी देशों
के बुने जाल में फंसकर भारत
ने अपने पड़ोसी मित्र देश के
साथ संबंधों में कडुवाहट घोल
ली। पश्चिमी देश नहीं चाहते
कि भारत का पड़ोसी देशों के
साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रहे।
इसी कड़ी में श्रीलंका के
खिलाफ मानवाधिकार हनन का
प्रस्ताव लाया गया जबकि दुनिया
के कई देशों में अमेरिकी और
नाटो सैनिको की ज्यादतियों
पर पर्दा डाला जाता रहा है।
वैसे
हाल में लिट्टे के खिलाफ
प्रतिबंध की अवधि को बढ़ाकर
भारत ने श्रीलंकाई जख्मों पर
मरहम लगाने की कोशिश की। सरकार
की ओर से आधिकारिक बयान में
कहा गया कि श्रीलंका में
मटियामेट होने के बावजूद बाकी
बचे लिट्टे कार्यकर्ता तमिलनाडु
में तमिल ईलम के अपने अलगाववादी
एजेंडे पर कार्यरत हैं और
राज्य में आधारभूत ढांचा खड़ा
करने की कोशिश में गंभीरता
से लगे हैं। अधिसूचना में कहा
गया है कि लिट्टे समर्थक इंटरनेट
और सोशल मीडिया के दूसरे तरीके
का इस्तेमाल कर भारत के खिलाफ
जहर उगल रहे हैं। ये लोग श्रीलंकाई
सेना के हाथों लिट्टे के सफाए
के लिए शीर्ष भारतीय नेतृत्व
को जिम्मेदार ठहराते हुए आम
तमिल मानस को गुमराह करने की
कोशिश कर रहे हैं। सरकार का
मानना है कि इससे भारत की एकता
और अखंडता पर खतरा पैदा हो
सकता है। लिट्टे पर ही भारत
के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव
गांधी की हत्या करवाने का आरोप
है।
तमिल
ईलम को लेकर भारत सरकार और
प्रमुख राजनीतिक दलों का रवैया
भले ही करुणानिधि से मेल नहीं
खाता हो लेकिन श्रीलंका में
तमिल शरणार्थी कैम्पों में
रह रहे हजारो लोगों की स्थिति
को लेकर भारत भी अपनी चिंता
प्रकट करते रहा है। डीएमके
से जुड़े नेता संसद में अक्सर
सवाल उठाते रहते हैं कि श्रीलंका
में तमिलों पर अत्याचार लगातार
जारी है। वहां हजारो लोगों
को कांटेदार बाड़ लगाकर रखा
गया है। भारत द्वारा विस्थापित
तमिलों के लिए बनाये गये आवासों
पर सिंहलियों ने कब्जा जमा
लिया है। सिंहलियों को तमिल
बहुल इलाके में साजिश के तहत
बसाया जा रहा है। तमिलों के
पूजा स्थलों पर सैन्य बलों
ने कब्जा जमा रखा है।
लिट्टे
के सफाये के बाद विपक्ष की
नेता सुषमा स्वराज के नेतृत्व
में श्रीलंका की स्थिति जानने
गये दूसरे संसदीय दल ने भी
पाया था कि गृहयुद्ध के बाद
भी आम तमिल नागरिक चैन से नहीं
रह पा रहे हैं। श्रीलंकाई
राष्ट्रपति महिन्द्रा राजपक्षे
के सामने भारत के संसदीय
प्रतिनिधिमंडल ने विधवाओं
की कारुणिक स्थिति को उठाया
था। सांसदों ने एक स्वर में
कहा कि 45
हजार
से ज्यादा तमिल विधवाएं हैं।
अकेले वर्किक्लोवा में 23
000 विधवा
महिलाएं हैं जिनमें 13
हजार
ऐसी हैं जिनकी उम्र 23
साल
से कम है। इस दौरान युद्ध पीडि़त
महिलाओं के पुनर्वास के लिए
भारत-श्रीलंका
के बीच हुए समझौता पत्र को अमल
में लाने पर भी चर्चा हुई। याद
रहे कि सुषमा स्वराज के नेतृत्व
में श्रीलंका गये संसदीय दल
का डीएमके औऱ अन्ना द्रमुक
ने बहिष्कार किया था।
साभार-
प्रथम
प्रवक्ता
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