यह
लेख सुप्रीमकोर्ट के पूर्व
न्यायमूर्ति और भारतीय प्रेस
परिषद के अध्यक्ष जस्टिस
मार्कंडेय काट्जू के उस अभिभाषण
का अनुवाद है,
जो
उन्होंने 27
नवंबर
2011को
काशी हिंदी विश्वविद्यालय,
वाराणसी
में दिया था।
प्राचीन
भारत में विज्ञान के विकास
में पाणिनी के बाद अगर किसी
का सबसे ज्यादा योगदान है तो
वो है वैज्ञानिक दर्शन का।
यहां मैं आपको भारतीय दर्शन
के बारे में कुछ बताना चाहूंगा,
इसलिए
मैं यहां थोड़ा और विषयांतर
होना चाहूंगा।
यह सर्वमान्य विचार है कि शास्त्रीय भारतीय दर्शन (शत दर्शन) के छह अंग है और अशास्त्रीय भारतीय दर्शन के तीन अंग हैं। शास्त्रीय भारतीय दर्शन के छह अंगों के नाम न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा (यानी वेदांत) हैं जबकि अशास्त्रीय भारतीय दर्शन के नाम बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन और चार्वाक दर्शन हैं।
यहां शतदर्शन यानी शास्त्रीय भारतीय दर्शन का उल्लेख संक्षेप में किया जा रहा है।
- न्याय-
यह
वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत
करता है। यह इस बात पर जोर देता
है कि ऐसा कुछ भी मान्य नहीं
होना चाहिए जो तर्क और अनुभव
से परे हो।
- वैशेषिक-
यह
परमाणु सिद्धांत प्रस्तुत
करता है।
- सांख्य-
यह
संभवत:
न्याय
वैशेषिक सिद्धांत की तत्व
मीमांसा करता है। हालांकि
मूल सांख्य दर्शन का बहुत कम
हिस्सा ही इस समय उपलब्ध है।
इसके मूल सिद्धांत पर भी विवाद
है। कुछ लोग इसे द्वैत मानते
हैं जबकि कुछ अद्वैत क्योंकि
इसके दो तत्व हैं-पुरूष
और प्रकृति।
- योग-
यह
शारीरिक और मानसिक अनुशासन
को प्रस्तुत करता है।
- पूर्व
मीमांसा या संक्षिप्त मीमांसा-
यह
आध्यात्मिक और सांसारिक
लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु
यज्ञ की महत्ता पर जोर देता
है। इसलिए वेद के ब्राह्मण
भाग पर निर्भर है।
- उत्तर
मीमांसा(वेदांत)-यह
ब्रह्मयान पर जोर देता और वेद
के उपनिषद हिस्से पर आधारित
है।
यहां न्याय और वैशेषिक अंगों को छोड़कर बाकी का उल्लेख जरूरी नहीं हैं, क्योंकि यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं। न्याय दर्शन के मुताबिक, ऐसा कुछ भी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए जो तर्क और अनुभवजन्य नहीं हो और ये बात वैज्ञानिक सत्य है। (इस संबंध में डीपी चटोपाध्याय की कृति भारतीय दर्शन में क्या जीवित और क्या मृत ”ह्वाट इज लीविंग एंड ह्वाट इज डेड इन इडियन फिलोसॉफी”) का अध्ययन उचित होगा। वैशेषिक परमाणु सिद्धांत प्रस्तुत करता है, जो प्राचीन भारत का भौतिकी विज्ञान है। मूल रूप से न्याय और वैशेषिक एक ही दर्शन माने जाते हैं। चूकि भौतिकी को सभी विज्ञानों में सबसे ज्यादा मौलिक माना जाता है इसलिए वैशेषिक दर्शन को न्याय से अलग कर दिया गया है और इसे एक अलग दर्शन के रूप में प्रस्तु किया गया है।
यहां यह उल्लेखनीय है कि सांख्य दर्शन न्यायिक दर्शन से भी पुराना है लेकिन इसपर पर बहुत ही कम मौलिक साहित्य उपलब्ध है।(सांख्य करिका और सांख्य सूत्र और इस पर कुछ व्याख्याओं को छोड़कर)। हालांकि हम मानते हैं कि सांख्य दर्शन ने ही भौतिक दर्शन को एक आधार प्रदान किया है जिस पर न्याय और वैशेषिक दर्शन का वैज्ञानिक आधार निर्मित हुआ है। इसलिए समग्र रूप से हम इसे सांख्य-न्याय और वैशेषिक दर्शन कह सकते हैं। चूकि हम न्याय और वैशेषिक के बारे में बहुत कुछ जानते हैं इसलिए सांख्य को जानने के बारे में भी दावा कर सकते हैं।
न्याय-वैशेषिक दर्शन यथार्थवादी और बहुवादी है। यह शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत के विपरीत है जो संसार को माया मानता है वहीं वहुवाद अद्वैत के विपरीत है। अद्वैत का अर्थ, संसार में सिर्फ और सिर्फ बह्म ही सत्य है बाकी सब मिथ्या यानी माया है। वहीं, न्या-वैशेषिक दर्शन के कहना है कि दुनिया में कई चीजें जो वास्तविक हैं और ये दुनिया सिर्फ एक चीज से नहीं बनी है बल्कि यहां बहुत सी चीजें हैं। इसलिए न्याय दर्शन बहुवादी और द्वैत है।
यहां थोड़ा और विषयांतर होकर दर्शन के बारे में बताना चाहूंगा।
दर्शन की दो प्रमुख शाखाएं हैं- तत्व मीमांसा और दूसरा ज्ञान मीमांसा। तत्व मीमांसा अस्तित्व की चर्चा करता है। तत्व मीमांसा के अंतर्गत सवाल उठते हैं कि किसका अस्तित्व है। क्या ईश्वर का अस्तित्व है। क्या इस संसार का अस्तित्व है या संसार माया है। यह वास्तव में है और क्या नहीं आदि-आदि।
ज्ञानमीमांसा वास्तविक ज्ञान की चर्चा करता है। उदारहण के लिए, हम किस तरह से जानते हैं कि जो चीज हमारे सामने हैं वौ वास्तविक है। इसका उत्तर है कि ये वस्तु प्रत्यक्ष है। मैं इसे अपनी आंखों से देख सकता हूं। प्रत्यक्ष वो ज्ञान है जो पांच ज्ञान इंद्रियों द्वारा ग्रहित की जाती हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण को प्रधान प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जाता है। यह सभी वैध ज्ञान का सबसे मौलिक तत्व है।
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