यह
लेख सुप्रीमकोर्ट के पूर्व
न्यायमूर्ति और भारतीय प्रेस
परिषद के अध्यक्ष जस्टिस
मार्कंडेय काट्जू के उस अभिभाषण
का अनुवाद है,
जो
उन्होंने 27
नवंबर
2011को
काशी हिंदी विश्वविद्यालय,
वाराणसी
में दिया था।
दोस्तों,
जिस
विश्वविद्याल ने ऐसे ऐसे
विद्वानों को पैदा किया है,
जिनकी
ख्याति दुनियाभर में रही है,
उस
विश्वविद्यालय में अभिभाषण
देने के लिए बुलाया जाना मेरे
लिए सम्मान की बात है। वाराणसी,
जो
हजारों सालों से भारतीय संस्कृति
की महान भूमि रही है,
उस
शहर में बुलाया जाना भी मेरे
लिए सम्मान की बात है।
आज
मैंने जिस विषय को चुना है वो
है-
“संस्कृत
भाषा और भारत में वैज्ञानिक
विकास।”
मैंने
ये विषय इसलिए चुना है कि ये
विज्ञान का युग है और इसमें
विकास करने के लिए हमारी जनता
में वैज्ञानिक सोच जागृत करना
आवश्यक है।
आज,
भारत
बड़ी-बडी
सामाजिक,
आर्थिक
और सांस्कृति समस्याओं का
सामना कर रहा है। मेरे विचार
में इन समस्या का समाधान सिर्फ
विज्ञान के जरिए ही किया जा
सकता है। हमें देश के हर भाग
में वैज्ञानिक सोच जागृत करना
होगा। विज्ञान से मेरा मतलब,
सिर्फ
भौतिकी,
रसायन
और जीवविज्ञान नहीं है,
बल्कि
इसका मतलब संपूर्ण वैज्ञानिक
चिंतन धारा से है। हमें अपने
लोगों को बदलना होगा और उन्हें
अत्याधुनिक सोच वाला बनाना
होगा। आधुनिकता से मेरा मतलब
अच्छे सूट या टाई या खूबसूरत
स्कर्ट या जीन्स पहनने से नहीं
है। ऐसे कपड़े पहनने वाले
व्यक्ति भी पुरातनपंथी हो
सकते हैं। आधुनिकता से मेरा
मतलब,
आधुनिक
चिंतनधारा या सोच से है..
इसका
मतलब तार्कित मस्तिष्क से
है..
एक
जिज्ञासु और वैज्ञानिक मस्तिष्क
से है।
भारतीय
संस्कृति का मूलाधार संस्कृत
भाषा पर आधारित है। संस्कृति
भाषा के बारे में एक गलतफहमी
है कि ये भाषा सिर्फ मंदिरों
और धार्मिक समारोहों में
मंत्रोच्चार के लिए है। हालांकि
संस्कृत भाषा का मात्र पांच
फीसदी हिस्सा मंत्र है। जबकि
नब्बे फीसदी से ज्यादा हिस्से
का मंत्र से कोई लेना देना
नहीं है,
इसके
बदले इसमें दर्शन,
विधि,
विज्ञान,
साहित्य,
व्याकरण,
ध्वनिशास्त्र,
व्याख्या
और विश्लेषण है। वास्तव में
संस्कृत स्वतंत्र विचारकों
की भाषा रही है,
जिन्होंने
हर चीज पर सवाल किया और विभिन्न
विषयों पर विस्तृत और बहु-आयामी
विचार रखे। वास्तव में संस्कृत
प्राचीन भारत में हमारे
वैज्ञानिकों की भाषा रही है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि
आज हम विज्ञान की क्षेत्र में
पश्चिमी देशों से पीछे हैं,
लेकिन
एक वक्त था,
जब
भारत विज्ञान के क्षेत्र में
पूरे विश्व का नेतृत्व कर रहा
था। हमारे पूर्वजों की महान
वैज्ञानिक उपलब्धियों का
ज्ञान और हमारे वैज्ञानिक
धरोहर हमें आधुनिक युग में
विज्ञान के क्षेत्र में एकबार
फिर से अग्रिम पंक्ति हासिल
करने के लिए प्रोत्साहन और
नैतिक मनोबल दे सकते हैं।
संस्कृत
शब्द का अर्थ "तत्पर”,
“शुद्ध”,
“सभ्य”
या “संपूर्ण” होता है। संस्कृत
ऐसे ही नहीं "देववाणी"(देवताओं
की भाषा)
कही
जाती थी। हमारी संस्कृति में
इसका अनुपम स्थान रहा है और
पूरे विश्व में इसकी पहचान
एक दुर्लभ उत्तम भाषा की रही
है। संस्कृत हमारे दार्शनिकों,
हमारे
वैज्ञानिकों,
हमारे
गणितज्ञों,
हमारे
कवियों,
हमारे
नाटककारों,
हमारे
व्याकरणाचार्यों,
हमारे
विधिवेत्ताओं की भाषा रही
है। व्याकरण में पाणिनी और
पतंजलि (अष्टाध्यायी
और महाभाष्य के लेखकों)
की
पूरे विश्व में कोई बराबरी
नहीं है। खगोलशास्त्र और गणित
के क्षेत्र में आर्यभट्ट,
बराहमिहिर
और भास्कराचार्य ने मानवता
के लिए ज्ञान के नए क्षेत्र
खोले। ऐसा ही कार्य चिकित्सा
के क्षेत्र में चरक और सुश्रुत
ने किया। दर्शन में गौतम(न्याय
विधि के संस्थापक),
अश्वघोष(बुद्धचरित
के लेखक),
कपिल(सांख्य
विधि के संस्थापक),
शंकराचार्य
और वृहस्पति ने दुनिया को सबसे
विस्तृत दर्शन तंत्र प्रस्तुत
किया,
इससे
पहले कोई और ऐसा नहीं कर सका।
ये दर्शन गहन धार्मिकता से
प्रबल आस्तिकतावादी हैं।
जैमिनी के मीमांसा सूत्र ने
पुस्तकों के तार्किक विश्लेषण
के एक संपूर्ण तंत्र की आधारशिला
रखी,
जिसका
उपयोग ना सिर्फ धर्म के क्षेत्र
में बल्कि विधि,
दर्शन
और व्याकरण के क्षेत्र में
भी होता था। साहित्य के क्षेत्र
में संस्कृत का स्थान सबसे
ऊपर है। कालिदास(अभिज्ञान
शाकुंतलम,
मेघदूत,
मालविकाअग्निमित्रम,
रघुवंश
आदि),
भवभूति(मालती
माधव,
उत्तर
रामायण आदि),
वाल्मिकी
और व्यास के महाकाव्य पूरे
विश्व में प्रसिद्ध हैं। ये
और ऐसे ऐसे अनगिनत संस्कृत
रचनाओं ने हमारे देश में
आधुनिककाल तक पठन-पाठन
की लौ को प्रज्ज्वलित रखा।
इस
अभिभाषण में मैं संस्कृत
साहित्य के उन्हीं भागों की
चर्चा करूंगा जो विज्ञान से
जुड़े हैं।
जैसा
कि मैं पहले ही कह चुका हूं कि
संस्कृति के बारे में ये महान
भ्रांतियां हैं कि यह धार्मिक
समारोहों और मंदिरों में
उच्चारण होने वाले मंत्रों
की भाषा है। हालांकि यह पूरे
संस्कृत वांग्मय का महज पांच
फीसदी हिस्सा है,
शेष
नब्बे फीसदी का धर्म से कोई
लेना देना नहीं है। वास्तव
में संस्कृत हमारे उन तमाम
महान वैज्ञानिकों की भाषा
है,
जिन्होंने
इस भाषा में अपने महान ग्रंथों
की रचना की।
आगे
बढ़ने से पहले मैं थोड़ा विषय
बदलना चाहूंगा। वास्तव में
चर्चा के दौरान में बार-बार
विषयांतर होऊंगा। शुरू-शुरू
में आपको लगेगा कि इस विषयांतर
का चर्चा के मूल विषय यानी
विज्ञान की भाषा के रूप में
संस्कत,
से
कुछ लेना-देना
नहीं है,
लेकिन
चर्चा के अंत में आप पाएंगे
कि इस विषयांतर भी चर्चा के
मुख्य विषय से जुड़ा हुआ है।
पहला
विषयांतर कि भारत क्या है।
हालांकि हम सभी भारतीय हैं,
लेकिन
हममें से कई लोग ऐसे हैं जो
अपने देश के बारे में नहीं
जानते हैं और इसलिए मैं इसकी
व्याख्या करूंगा।
आगे भी जारी रहेगा..
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