हिंदी शोध संसार

बुधवार, 30 मई 2012

आखिर क्या है अल्पसंख्यक आरक्षण


  लेखक- वेद प्रताप वैदिक

आंध्र के उच्च न्यायालय ने कमाल कर दिया। जाति के आधार पर दिए जा रहे आरक्षण से देश पहले ही बिखर रहा है, अब मजहब के आधार पर भी आरक्षण दिया जाने लगा था। इसी साल पांच राज्यों में चुनाव जीतने की बड़ी चुनौती कांग्रेस के सामने थी। उसने सोचा यदि उसे मुसलमानों के थोकबंद वोट हथियाने हैं तो वह उनके सामने आरक्षण की गाजर लटका दे।


उत्तरप्रदेश में इस हथकंडे के सफल होने की आशा सबसे ज्यादा थी। दिसंबर 2011 में केंद्र सरकार ने घोषणा कर दी कि शिक्षा और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों को भी 4.5 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। लेकिन मुसलमान जरा भी नहीं फिसले। उन्होंने चुनावों में कांग्रेस को सबक सिखा दिया। अब आंध्र के उच्च न्यायालय ने दोहरी मार लगा दी। सांप्रदायिक आरक्षण को राजनीति और कानून दोनों ने रद्द कर दिया।


अदालत ने सरकार के इस आदेश को चलताऊ बताया है। उसका कहना है कि सरकारी वकील यह नहीं बता सके कि ‘अल्पसंख्यक’ का अर्थ क्या है? क्या ईसाई, बौद्ध, सिख, जैन, यहूदी और पारसी भी अल्पसंख्यक नहीं हैं? यदि अल्पसंख्या का आधार धर्म या मजहब ही है तो मुसलमानों के मुकाबले ये अन्य धर्मावलंबी तो कहीं ज्यादा बड़े अल्पसंख्यक हैं, क्योंकि इनकी संख्या तो बहुत कम है।


हालांकि अदालत ने यह तर्क नहीं दिया है, लेकिन तर्क तो यह भी बनता है कि यदि आरक्षण का आधार अल्पसंख्या है तो जो अत्यल्पसंख्यक हैं, उन्हें भी आरक्षण मिलना चाहिए और ज्यादा मिलना चाहिए। पहले मिलना चाहिए।


सरकारी आदेश में इसके बारे में कोई संकेत नहीं है यानी अदालत की नजर में यह आदेश जारी करते समय सरकार ने लापरवाही बरती है। अदालत की यह आलोचना जरा नरम है। उसे कहना चाहिए था कि सरकार ने लापरवाही नहीं बरती, बल्कि बड़ी चतुराई से थोकबंद वोट खींचने की साजिश की थी।


वास्तव में हमारी अदालतों को चाहिए कि वे ‘अल्पसंख्यक’ शब्द पर ही गंभीर बहस चलाएं। राजनीति में ‘अल्पसंख्यक’ कौन है? वही है, जो खुद हार जाए या जिसका उम्मीदवार हार जाए। हर चुनाव में मतदाताओं का एक हिस्सा बहुसंख्यक सिद्ध होता है और दूसरा अल्पसंख्यक! बहुसंख्या और अल्पसंख्या बदलती रहती है।


लोकतंत्र में कोई भी स्थायी रूप से अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक नहीं हो सकता। भाषा, धर्म, जाति, रंग-रूप में जरूर स्थायी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक हो सकते हैं, लेकिन उनके नाम पर चलने वाली राजनीति क्या शुद्ध राजनीति होती है? वह भ्रष्ट राजनीति होती है। मुसलमानों के लिए 4.5 प्रतिशत आरक्षण का मकसद भला क्या था? यदि सरकार का तर्क यह है कि उसने मुसलमानों को नहीं, बल्कि मुसलमानों में जो पिछड़े हैं, सिर्फ उन्हें आरक्षण दिया है तो यह तर्क भी बड़ा लचर है। इसके विरुद्ध कई तर्क खड़े हो जाते हैं।


सबसे पहला तर्क तो यह है कि आप कैसे तय करेंगे कि मुसलमानों में पिछड़ा कौन है? यह सिर्फ जातियों के आधार पर ही तय करेंगे यानी आप कानूनी तौर पर यह मानेंगे कि इस्लाम में जातियां होती हैं। यह इस्लाम के सिद्धांतों के विरुद्ध होगा, क्योंकि इस्लाम तो इंसानी बराबरी का धर्म है। इस्लाम पर जातिवाद क्यों थोपा जा रहा है? दूसरा, मुसलमानों में जिन जातियों को आप पिछड़ा मान लेंगे, वे फायदे में रहेंगी और जिन्हें पिछड़ा नहीं मानेंगे, वे नुकसान में रहेंगी। आप धार्मिक आरक्षण के नाम पर अपना उल्लू तो सीधा कर लेंगे, लेकिन मुसलमानों को आपस में लड़वा देंगे।



तीसरा, यदि आप गरीबी के आधार पर पिछड़ापन तय करते हैं तो फिर गरीबों में भी फर्क क्यों डालते हैं? एक गरीब और दूसरे गरीब में फर्क क्या है? क्या गरीब लोग सिर्फ हिंदुओं और मुसलमानों में ही हैं, दूसरे मजहबों में नहीं हैं? सिर्फ मजहबों की ही बात नहीं है। यह बात जाति पर भी लागू होती है। कोई किसी भी जाति का हो, यदि वह गरीब है तो उसे आरक्षण क्यों नहीं मिलना चाहिए? किसी भी जाति या मजहब के अमीर व शक्तिशाली व्यक्ति को आरक्षण देना सामाजिक न्याय नहीं, सामाजिक अन्याय है।


चौथा, अनेक मुस्लिम संगठनों ने मांग की थी कि आरक्षण देना है तो सभी मुसलमानों को दें ताकि आरक्षित पदों को भरने वाले उपयुक्त लोग तो मिल सकें, क्योंकि आरक्षितों में उन पदों पर पहुंचने की इच्छा, जरूरत और न्यूनतम योग्यता भी तो होनी चाहिए। पांचवां, यह आरक्षण मुसलमानों को स्वतंत्र रूप से नहीं दिया गया था।


यह पिछड़ों के 27 प्रतिशत के कोटे में से काटकर दिया गया था। यानी गांव-गांव में रहने वाले हिंदू पिछड़ों और मुस्लिम पिछड़ों में तलवारें खिंचतीं, उनमें वैमनस्य फैलता। इसका एक नतीजा यह भी हुआ कि कांग्रेस ने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के वोट खोए। आंध्र की अदालत ने दो-टूक फैसला देकर भारत के सांप्रदायिक सद्भाव को सबल बनाया है। छठा, अदालत ने इस सरकारी आदेश को असंवैधानिक करार दिया है, क्योंकि इसका आधार मजहब था। यह कानूनी दृष्टि है, लेकिन राजनीतिक दृष्टि से देखें तो मजहबी आरक्षण आगे जाकर पता नहीं कितने और कैसे-कैसे ‘नए पाकिस्तानों’ को खड़ा कर देगा, क्योंकि हमारे यहां तो संप्रदायों के अंदर भी अनेक उप-संप्रदाय होते हैं।


इस फैसले के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील करने के बजाय भारत सरकार को चाहिए कि वह मजहब के अलावा जाति के आधार पर दिए जाने वाले आरक्षण पर भी पुनर्विचार करे और यह भी सोचे कि आरक्षण सिर्फ शिक्षा में दिया जाए और नौकरी में बिल्कुल भी नहीं। यदि आरक्षण सिर्फ शिक्षा में दिया जाए तो देश के 80 करोड़ गरीबों की जिंदगी में नया उजाला पैदा हो जाएगा।




वे जो भी पद पाएंगे, वह किसी की कृपा से नहीं, बल्कि अपनी योग्यता से पाएंगे। उनके आरक्षण का आधार उनकी जरूरत होगी, उनकी जाति नहीं। वे लोग अपने पद पर पहुंचकर सिर्फ अपनी जाति नहीं, पूरे देश की सेवा करेंगे। भारत सबल बनेगा।

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