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सोमवार, 19 सितंबर 2011

जनलोकपाल ही क्यों, सरकारी लोकपाल का बहिष्कार क्यों

टीम अन्ना ने सरकारी लोकपाल को "जोकपाल" करार दिया। अगर ध्यान से देंखे तो इसमें भ्रष्ट मंत्रियों, अधिकारियों और शक्तिशाली लोगों को बचाने की पूरी व्यवस्था की गई है। ऐसा करने के लिए कानूनी प्रावधानों की धज्जियां उड़ाई गई है। सरकारी लोकपाल विधेयक का प्रावधान तैयार करते वक्त संयुक्त राष्ट्र के साथ भ्रष्टाचार विरोधी संधि की भी पूरी तरह अनदेखी की गई। पांच मंत्रियों की सरकारी समिति ने जो ड्राफ्ट तैयार किया और दावा किया कि उन्होंने नागरिक समाज के छत्तीस में से बीस बिंदुओं को ज्यों का त्यों लोकपाल ड्राफ्ट में शामिल किया और बाकी दस बिंदुओं को संशोधन के साथ शामिल किया गया, ये दावा सरासर झूठ के अलावा कुछ नहीं है। इनके दावों की पड़ताल से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अगर संशोधन के बावजूद सरकारी लोकपाल एक जोकपाल ही है तो पता नहीं पहले यह बिल कैसा होगा। सरकारी लोकपाल की अहम खामियां-


प्राथमिकी से पहले सुनवाई-

नागरिक समाज ने मांग की थी कि किसी भी लोकसेवक या नौकरशाह के खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच शुरू करने और आरोपपत्र दायर करने के लिए किसी से मंजूरी लेने की जरूरत नहीं हो। सरकारी लोकपाल में इस बात को मान लिया गया लेकिन भ्रष्ट अधिकारियों को बचाने के लिए पूरी व्यवस्था की गई है और ऐसा करने के लिए कानूनी प्रक्रियाओं की धज्जियां उड़ाई गई है।

सरकारी लोकपाल आरोपी को सुनवाई का मौका दिए बगैर प्राथमिकी दर्ज करने से रोकता है। यानी आरोपी को पहले सुनवाई को मौका दो फिर उनके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज करो। यह सामान्य आपराधिक कानून के खिलाफ है। सामान्य आपराधिक कानून के तहत पुलिस संज्ञेय अपराध के मामले में सिर्फ साधारण सूचना के आधार पर प्राथमिकी दर्ज करने के लिए प्रतिबद्ध है।


लोकपाल विधेयक ना सिर्फ प्राथमिकी से पहले बल्कि आरोप पत्र से पहले भी भ्रष्ट अधिकारी को सुनवाई का मौका देने की भी सिफारिश करता है, जो अकारण ही भ्रष्टाचार को संरक्षण देने वाला है।

भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं

को बचाने के

लिए तो इस विधेयक में बहुत कुछ हैं लेकिन व्हिसिलब्लोअर यानी सचेतकों की सुरक्षा के लिए इसमें कुछ भी नहीं है। हद तो तब हो गई, जब इस विधेयक में सचेतकों पर मुकदमा चलाने वाले प्रावधान जोड़े गए। यानी बिल के मुताबिक, उल्टे शिकायर्ताओं के खिलाफ मामला दर्ज किया जा सकेगा और अगर आरोप गलत पाया जाता है तो शि

कायत कर्ता को कड़ी से कड़ी सजा मिलेगी। हास्यास्पद तो ये है कि आरोपी पर अगर आरोप साबित हो जाता है तो उसे मात्र छह माह की सजा मिलेगी, मगर शिकायतकर्ता अगर लगत पाया जाता है तो उसे कम से कम दो साल की सजा मिलेगी।

संयुक्त राष्ट्र भ्रष्टाचार-विरोधी संधि का उल्लंघन

विधेयक की प्रस्तावना में संयुक्त राष्ट्र भ्रष्टाचार विरोधी संधि का कोई उल्लेख नहीं है। इस संधि की पूरी तरह अनदेखी कर दी गई। संधि में भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए मंत्रियों, नौकरशाहों, जजों, विधायकों और सांसदों के लिए एक समान व्यवस्था की बात कही गई है। मगर, सरकारी विधेयक में संसद के अंदर सांसदों के आचरण को लोकपाल के दायरे से बाहर रखा गया है। साथ ही, इनमें जजों को शामिल नहीं किया गया है। इतना ही नहीं, करीब सवा करोड़ सरकारी कर्मचारियों में से महज 65000 हजार सरकारी कर्मचारियों यानी (0.5 प्रतिशत) को ही लोकपाल के दायरे में लाया जा रहा है वो सिर्फ केंद्र सरकार के ग्रेड-ए के कर्मचारियों को।

लोकपाल के अध्यक्ष को सदस्यों को हटाना।

सरकारी विधेयक के मुताबिक, लोकपाल के अध्यक्ष या किसी भी सदस्य के खिलाफ राष्ट्रपति के निर्देश पर सुप्रीमकोर्ट द्वारा जांच शुरू होने के बाद उन्हें लोकपाल के पद से हटाया जा सकता है। बाद में विधेयक में संशोधन कर यह प्रावधान किया गया कि राष्ट्रपति न सिर्फ सरकार की सिफारिश बल्कि कम से कम 100 सांसदों द्वारा हस्ताक्षरित याचिका या किसी नागरिक द्वारा दायर याचिका से मामला बनने पर लोकपाल के सदस्य या अध्यक्ष को हटाया जा सकेगा। साफ है कि अगर सरकार नहीं चाहती हो तो कोई भी लोकपाल जवाबदेह नहीं हो सकता है। यह लोकपाल नामक स्वायत्त संस्था के निर्माण के बिल्कुल खिलाफ है।

नागरिक समाज पर चोट--

सरकारी लोकपाल के पहले ड्राफ्ट में लोकपाल के दायरे में सभी गैर-सरकारी संस्थाओं(एनजीओ), सोसायटी और न्यासों यानी ट्रस्टों को लाने की सिफारिश की गई है।


जारी है...

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