ना हीं रामनाथ गोयंका जी और ना ही नानाजी जानते थे कि डर किस चिड़िया का नाम है. इन दोनों महापुरुषों ने अनायास ही हजारों लोगों, पत्रकारों के दिलों में सच कहने और लिखने का साहस भर दिया.
वो रामनाथ जी और नानाजी ही थे, जिन्होंने लोकनायक जयप्रकाश नारायण को 1974 में बिहार के छात्र आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए राजी किया, इसने देश के राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया. बिहार का छात्र आंदोलन स्वतंत्र भारत के सबसे बड़े आंदोलनों में से था.
एक अविश्वनीय घटना जिसने गोयंकाजी और नानाजी की अपील पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की निरंकुश सत्ता के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व करने के लिए जयप्रकाश नारायण को राजी कर लिया. इस घटना के बारे में मुझे जानकारी, 1980 के अंत में मिली, जब मैंने मुंबई के इंडियन एक्सप्रेस टावर में नानाजी और रामनाथजी से पूछा कि उन्होंने जयप्रकाश नारायण को आंदोलन के लिए कैसे राजी किया. तब नानाजी वो रोमांचकारी और अविश्वनीय घटना कह सुनाई.
बात, 1973 की है. स्थान था बैंगलोर स्थित इंडियन एक्सप्रेस का गेस्ट हाउस(अतिथि गृह). इस ऐतिहासिक बैठक में रामनाथ गोयंका, नानाजी देशमुख, 1942 के भूमिगत आंदोलन के नायक अच्युत पट्टवर्द्धन और राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर शामिल थे. चारों इस बात बात पर जोर दे रहे थे कि इंदिरा गांधी की निरंकुश सत्ता के खिलाफ विद्रोह की अगुवाई जयप्रकाश को करनी चाहिए, क्योंकि इंदिरा गांधी बहुत ही निरंकुश हो चुकी थी, उन्होंने न्यायपालिका और नौकरशाही सहित लोकतंत्र के संस्थागत ढांचे को ध्वस्त करना शुरू कर दिया था. यहां एक बात ये भी सच थी कि राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जवाहरलाल नेहरू को सबसे प्रिय दोस्तों में से एक थे और साखकर इंदिरा गांधी से उनके बहुत अच्छे संबंध थे. मगर ये दोस्ती राष्ट्र के प्रति कर्तव्यों के निर्वहन की राह में दिनकर जी के लिए कभी रोड़ा नहीं बनी. जयप्रकाश नारायण मुख्य रूप से अपने खराब स्वास्थ्य के चलते विद्रोह का नेतृत्व करने में हिचकते थे. वो मधुमेह के रोगी थे और साथ ही उन्हें पौरूषग्रंथि संबंधी जटिलताएं भी थी. जयप्रकाश नारायण ने कहा कि वे लंबे समय तक जीवित नहीं रहेंगे और उनका स्वास्थ्य इस महान कार्य को अपने हाथ में लेने की अनुमति नहीं दे रहा है. रामनाथ जी ने उन्हें भरोसा दिलाया कि वे उनके पौरूषग्रंथि का भेल्लोर में ऑपरेशन कराकर समस्या को दूर करा देंगें और बाद में उन्होंने ऐसा किया भी. लेकिन जयप्रकाश नारायण तब भी तैयार नहीं हुए.
इस स्थिति में, रामनाथ गोयंका जी, एक महान आस्थावादी होने के कारण, सभी लोगों को तिरूपति चलने की सलाह दी. गोयंका ने कहा कि वे इसके बाद मद्रास चलेंगे जहां आगे विचार विमर्श होगा. सभी तिरूपति की ओर रवाना हो गए.
आगे पढ़ेंगे, जेपी आंदोलन के लिए राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ने कैसे बलिदान दिया-
सोमवार, 8 मार्च 2010
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