नरेंद्र कोहली आधुनिक हिंदी साहित्य के बहुचर्चित लेखकों में से एक हैं. कोहली आधुनिक हिंदी साहित्य में सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अगुवा के रूप में पहचाने जाते हैं. उन्हें आधुनिक हिंदी गद्य साहित्य में प्राचीन महाकाव्य की पुनर्खोज का श्रेय दिया जाता है. हिंदी साहित्य में उनके योगदान की तुलना उपन्यास सम्राट प्रेमचंद से की जाती है, हालांकि उनके आलोचकों का दावा है कि नरेंद्र कोहली का साहित्य प्रेमचंद से भी ज्यादा प्रभावोत्पादक और दीर्घ-प्रभावी है. वहीं प्रकाशकों का मानना है कि उच्चस्तरीय हिंदी साहित्य में कोहली, प्रेमचंद की ही तरह, सबसे ज्यादा बिकने वाले लेखक हैं.
आधुनिक हिंदी साहित्य में नरेंद्र कोहली के लेखन से ही सांस्कृति पुनर्जागरण की शुरुआत होती है. अपने महाकाव्य लेखन में भारतीय संस्कृति और दर्शन के मूलभूत तत्वों के समग्र संश्लेषण का श्रेय नरेंद्र कोहली को दिया जाता है. नरेंद्र कोहली के सर्वश्रेष्ठ और कालजयी रचनाओं में महासमर शामिल है. उनकी रचनाओं में पाठक अनायास ही तल्लीन हो जाता है. जैसा कि धर्मवीर भारती ने कहा, “यूं ही कुतूहलवश 'दीक्षा' के कुछ पन्ने पलटे और फिर उस पुस्तक ने ऐसा जादू डाला कि दोनों दिन पूरी शाम उसे पढ़कर ही खत्म किया. चार खंडों में पूरी रामकथा एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है. यदि आप आदि से अंत तक यह लय रख ले गए, तो वह बहुत बड़ा काम होगा.” आश्चर्य नहीं, कि नरेंद्र कोहली ने अभ्युदय, महासमर सहित अन्य कालजयी रचनाओं में धर्मभारती के कथनानुसार, उस लय को बरकरार रखा. कोहली जी की कलात्मक प्रस्तुति, कथा कहने की उनकी अद्भुत कला के कारण पाठक कर्मयोग जैसे भारतीय दर्शन के जटिल संकल्पनाओं को पौराणिक आख्यानों और उदाहरणों के माध्यम से, बिना तारतम्य खोये समझ जाता है. उसे ये भी नहीं लगता है कि उसे कोई शिक्षा या उपदेश दे रहा है.
उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में उनकी कालजयी रचना, अभ्युदय, महासमर, तोड़ो कारा तोड़ो(महाकाव्य), वसुदेव, अभिज्ञान, आत्मदान(उपन्यास), पांच अबसर्ड उपन्यास, आश्रितों का विरोध(व्यंग्य), जहां है धर्म, वहीं है जय: महाभारत की अर्थप्रकृति, हिंदी उपन्यास:सृजन एवं सिद्धांत(साहित्यिक आलोचना), स्मरामि(लेख और संस्मरण), साथ सहा गया दुख, प्रीति कथा(आत्मकथापरक उपन्यास)
नरेंद्र कोहली मानवीय रिश्तों के अन्वेषण के अद्वितीय और सिद्धहस्त लेखक हैं. जटिल चरित्रों के वर्णन में- एक आम आदमी(साथ सहा गया दुख) से विध्वंसकारी( जैसे- महासमर में दुर्योधन) से मानवीय विकास के शिखर पुरूष(जैसे- राम, कृष्ण, रामकृष्ण परमहंस एवं विवेकानंद). उनके हास्य लोगों को गुदगुदाते हैं और भावनात्मक रचनाएं(साथ सहा गया दुख) पाठकों को रुलाती हैं, जबकि महाकाव्यात्मक रचनाएं पाठकों को विस्मयाभिभूत और आश्चर्यचकित करती हैं. उनकी रचनाओं ने वर्तमान जीवन का यथार्थ और अतीत का आदर्श एक साथ चलता है, जो उन्हें प्रासंगिक और पठनीय बनाती हैं.
उनकी रचनाएं देश और काल सीमाओं से परे मानवीय मस्तिष्क और व्यवहार और प्रकृति की सार्वभौमिक थाती हैं. विश्व साहित्य में नरेंद्र कोहली को रूसी साहित्यकार लियो तोल्स्टॉय के समकक्ष माना जाता है. अगर उनकी रचनाओं को विश्व की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कराया जाता है तो भारत का शाश्वत और सार्वभौमिक संदेश पूरे विश्व में फैलेगा.
नरेंद्र कोहली का जन्म अविभाजित भारत के पंजाब प्रांत में हुआ. 1947 में भारत विभाजन के बाद वे बिहार के जमशेदपुर में आ बसे. यहीं उनकी प्रारंभिक शिक्षा उर्दू माध्यम से हुई. उन्होंने जमशेदपुर को-ऑपरेटिव कॉलेज में हिंदी माध्यम से पढ़ाई की. 1963 में दिल्ली से रामजस कॉलेज से एमए की डिग्री ली. 1970 में दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी की. 1963 से 1965 तक दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया और वहीं से 1995 में स्वैच्छिक अवकाश ग्रहण किया.
हिंदी साहित्य में नरेंद्र कोहली युग प्रवर्तक माने जाते हैं. पिछले करीब पांच दशकों से हिंदी साहित्य पर कोहली जी प्रभाव है. वे अपनी प्रतिभा से हिंदी साहित्य को नई गति और दिशा प्रदान कर रहे हैं. हिंदी साहित्य में नूतन आयाम जोड़ने का श्रेय कोहली जी को जाता है. भारतेंदु हरिश्चंद्र, जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद की तरह ही नरेंद्र कोहली हिंदी साहित्य में पुनर्जागरण युग या कोहली युग के प्रवर्तक हैं. डॉ विजय स्नातक के अनुसार,
"डा नरेन्द्र कोहली का हिन्दी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान है। विगत तीस-पैंतीस वर्षों में उन्होंने जो लिखा है वह नया होने के साथ-साथ मिथकीय दृष्टि से एक नई जमीन तोड़ने जैसा है।...कोहली ने व्यंग, नाटक, समीक्षा और कहानी के क्षेत्र में भी अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है। मानवीय संवेदना का पारखी नरेन्द्र कोहली वर्तमान युग का प्रतिभाशाली वरिष्ठ साहित्यकार है।"
सामयिक पृष्ठभूमि- कोई भी साहित्यकार शून्य में साहित्य का सृजन नहीं कर सकता है. वह अपने युग की प्रकृति और प्रवृति से प्रभावित होता है. हिंदी साहित्य में नरेंद्र कोहली का पर्दापण उस समय हुआ जब देश का विशाल मध्यमवर्ग स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देखे गए सपनों के टूटने की निराशा, गरीबी और बेकारी के दौर से गुज़र रहा था. स्वतंत्रता संग्राम का आदर्शवाद एवं उत्साह अब पिछले युग की कहानी बन गए थे. भय, भूख और भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ रहा था. एक अंग्रेज से स्वतंत्र हुए तो दूसरा अंग्रेज हमपर शासन करने लगा. कथित रूप से अर्जित स्वतंत्रता में न तो हमारा अपना शासन था और न अपना कानून. स्वतंत्र भारत के कर्णाधारों के पास न तो कोई भी दूरगामी सोच वाली स्वतंत्र एवं भारतीय शिक्षा प्रणाली थी, और न ही जनसामान्य के पास ऐसी स्थिति से निबटने के लिए पर्याप्त नैतिक आधार था. जो कुछ जातीय अनुभव का बल था उसे सांप्रदायिक कहकर नकार दिया दिया. हम आयातित विचारधारा और आयातित बुद्धि के गुलाम बनते चले गए. छठे दशक के अंतिम दौर में जहां नवनिर्माण की धारा क्षीणतर होती जा रही थी, वहीं राजनेताओं एवं सरकारी कर्मचारियों का भ्रष्टाचार एवं नैतिक पतन निर्लज्ज रूप से सार्वजनिक होता जा रहा था. त्रस्त जनता के आक्रोश की अभिव्यक्ति उसकी अपनी कायरता एवं दायित्व बोध के अभाव के कारण किसी ठोस सामाजिक क्रांति में परिवर्तित नहीं हो सकी. इसके विपरीत विशाल बेरोजगार युवा वर्ग में कुंठाएं और हीन भावनाएं घर कर गईं. न्हीं विकृतियों से तत्कालीन साहित्यकार एवं आलोचक भी ग्रस्त रहे, जिन्हें तत्कालीन कृतियों में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. इस युग में कविता और गद्य दोनों ही क्षेत्रों में प्रयोग एवं यथार्थ के नाम पर दुर्बल चरित्रों का चित्रण, उनकी ग्रंथियों एवं विकृतियों के नग्न चित्रण की परम्परा चल पड़ी.
"यह दुर्बल व्यक्तियों की दुर्बल कहानियां हैं जो समाज में अस्वस्थता, दुर्बलता एवं रुग्णता का वातावरण उत्पन्न करने में पर्याप्त सहायक सिद्ध हो सकती हैं. नए लेखकों में जो अनाचार, पीडा एवं कुंठाओं की जो प्रबलता दृष्टिगोचर होती है वह बहुत कुछ इस वर्ग के साहित्य से प्रभावित है."जैनेन्द्र कुमार अपने अस्वभाविक चरित्रों की अस्वस्थ मनोवृत्तियों एवं कुंठाओं के खुले चित्रण के कारण प्रेमचंद के बाद सबसे चर्चित रचनाकारों में से एक रहे. इसी परम्परा में अज्ञेय, धर्मवीर भारती इत्यादि भी आते हैं, जिनके साहित्य के बारे में प्रख्यात आलोचक एवं इतिहासकार गणपतिचन्द्र गुप्त का कथन है
चूंकि यह समस्याएं आज भी वर्तमान हैं, इसलिए आश्चर्य नहीं की यह उच्छृंखलतावाद, भोगवाद, निराशावाद एवं अन्य पतानोन्मुखी वृत्तियाँ आज भी हिन्दी साहित्य के कई रचनाकारों एवं आलोचकों में पर्याप्त प्रबल हैं. आश्चर्य नहीं कि नरेन्द्र कोहली का निर्माणोन्मुखी एवं आदर्शवादी साहित्य उनके लिए विस्मय, उपेक्षा एवं भय का विषय है।
प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया आवश्यम्भावी है. साहित्यिक आत्मा के अभाव के कारण आत्म-कृतघ्नात्मक पतानोन्मुखी साहित्य से पाठक दूर होते चले गए. उसके फलस्वरूप साहित्यकारों की एक ऐसी पीढ़ी का उदय हुआ जो मानव-विकास के मूल तत्वों को रेखांकित कर विकासोन्मेषी साहित्य में विश्वास रखती थी. आर्ष साहित्यिक मनीषा का परिचय, आद्य भारतीय संस्कृति के शाश्वत तत्वों की पहचान एवं आध्यात्म-रूपी भारतीय आत्मा की खोज जिस साहित्य का लक्ष्य रही, वही इन साहित्यकारों में प्रधान रहा. उन्मुक्तता एवं बंधनहीनता के नाम पर अपनी संस्कृति एवं आदर्शों के लांछित करने की जो प्रवृत्ति साहित्य में प्रवेश कर चुकी थी, उसको दरकिनार करते हुए; स्वविवेक से श्रेय को स्वीकार कर एवं हेय का परित्याग कर जिन साहित्यकारों ने आस्था के मूल स्वरों को सपने के साहित्य की शक्ति बनाया, उन्हें 'सांस्कृतिक पुनरुत्थान के युग' का हिस्सा माना जा सकता है.ऐसा नहीं है कि आस्थावादी स्वर कभी साहित्य में थे ही नहीं. पर १९४० के आस-पास छायावादी युग के अवसान के साथ यह स्वर फीके पड़ते गए. यह दिलचस्प है कि सभी युग-प्रवर्तक साहित्यकारों में आस्थावादी सांस्कृतिक विचारधारा की प्रधानता रही है. गोस्वामी तुलसीदास से लेकर भारतेंदु से 'प्रसाद', महादेवी, 'निराला' एवं पन्त, सभी भारतीय संस्कृति के विशारद थे. सभी प्रखर सांस्कृतिक दृष्टि से संपन्न थे एवं सभी ने आस्थावादी अवं आदर्शवादी मूल्यों को बल दिया है. अंध-रूढ़ियाँ तोड़ी हैं, पर निर्माण का स्वर कभी फीका नहीं पड़ने दिया.
नरेन्द्र कोहली ने साहित्य में आस्थावादी मूल्यों को स्वर दिया. सन् १९७५ में उनके रामकथा पर आधारित उपन्यास 'दीक्षा' के प्रकाशन से हिंदी साहित्य में 'सांस्कृतिक पुनरुत्थान का युग' प्रारंभ हुआ जिसे हिन्दी साहित्य में 'नरेन्द्र कोहली युग' का नाम देने का प्रस्ताव भी जोर पकड़ता जा रहा है. तात्कालिक अन्धकार, निराशा, भ्रष्टाचार एवं मूल्यहीनता के युग में नरेन्द्र कोहली ने ऐसा कालजयी पात्र चुना जो भारतीय मनीषा के रोम-रोम में स्पंदित था. युगों युगों के अन्धकार को चीरकर उन्होंने भगवान् राम को भक्तिकाल की भावुकता से निकाल कर आधुनिक यथार्थ की जमीन पर खड़ा कर दिया.
साहित्यिक एवम पाठक वर्ग चमत्कृत ही नहीं, अभिभूत हो गया। किस प्रकार एक उपेक्षित और निर्वासित राजकुमार अपने आत्मबल से शोषित, पीड़ित एवं त्रस्त जनता में नए प्राण फूँक देता है, 'अभ्युदय' में यह देखना किसी चमत्कार से कम नहीं था. युग-युगांतर से रूढ़ हो चुकी रामकथा जब आधुनिक पाठक के रुचि-संस्कार के अनुसार बिलकुल नए कलेवर में ढलकर जब सामने आयी, तो यह देखकर मन रीझे बिना नहीं रहता कि उसमें रामकथा की गरिमा एवं रामायण के जीवन-मूल्यों का लेखक ने सम्यक् निर्वाह किया है. हिंदी साहित्य का मूर्धन्य कवि शिवमंगल सिंह 'सुमन' ने कहा,
"रामकथा की ऐसी युगानुरूप व्याख्या पहले कभी नहीं पढ़ी थी. इससे राम को मानवीय धरातल पर समझने की बड़ी स्वस्थ दृष्टि मिलती है और कोरी भावुकता के स्थान पर संघर्ष की यथार्थता उभर कर सामने आती है. आपकी व्याख्या में बड़ी ताजगी है. तारीफ़ तो यह है कि आपने रामकथा की पारम्परिक गरिमा को कहीं विकृत नहीं होने दिया है. मैं तो चाहूंगा कि आप रामायण और महाभारत के अन्य पौराणिक प्रसंगों एवं पात्रों का भी उद्घाटन करें. है तो जोखिम का काम पर यदि सध गया तो आप हिन्दी कथा साहित्य में सर्वथा नयी विधा के प्रणेता होंगे."
कोहली की प्रशंसा
हिंदी साहित्य के मूर्धन्य साहित्यकारों और दिग्गजों ने नरेंद्र कोहली की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है. कथाकार जैनेंद्र कुमार ने कहा,मैं नहीं जानता कि उपन्यास से क्या अपेक्षा होती है और उसका शिल्प क्या होता है. प्रतीत होता है कि आपकी रचना उपन्यास के धर्म से ऊंचे उठकर कुछ शास्त्र की कक्षा तक बढ़ जाती है. मैं इसके लिए आपका कृतज्ञ होता हूँ और आपको हार्दिक बधाई देता हूँ.
भगवतीचरण वर्मा ने कहा,
मैंने आपमें वह प्रतिभा देखी है जो आपको हिन्दी के अग्रणी साहित्यकारों में ला देती है. राम कथा के आदि वाले अंश का कुछ भाग आपने ('दीक्षा' में) बड़ी कुशलता के साथ प्रस्तुत किया है. उसमें औपन्यासिकता है, कहानी की पकड़ है.
यशपाल जैसे मार्क्सवादी चिन्तक भी नरेन्द्र-कोहली की प्रतिभा के कायल हुए बिना न रहे."आपने राम कथा, जिसे अनेक इतिहासकार मात्र पौराणिक आख्यान या मिथ ही मानते हैं, को यथाशक्ति यथार्थवादी तर्कसंगत व्याख्या देने का प्रयत्न किया है. अहल्या की मिथ को भी कल्पना से यथार्थ का आभास देने का अच्छा प्रयास.
भारतीय संस्कृति के सजग प्रहरी हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे मूर्धन्य आलोचक तथा इतिहासकार ने कहा,"रामकथा को आपने एकदम नयी दृष्टि से देखा है. 'अवसर' में राम के चरित्र को आपने नयी मानवीय दृष्टि से चित्रित किया है. इसमें सीता का जो चरित्र आपने चित्रित किया है, वह बहुत ही आकर्षक है. सीता को कभी ऐसे तेजोदृप्त रूप में चित्रित नहीं किया गया था. साथ ही सुमित्रा का चरित्र आपने बहुत तेजस्वी नारी के रूप में उकेरा है. मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि यथा-संभव रामायण कथा की मूल घटनाओं को परिवर्तित किये बिना आपने उसकी एक मनोग्राही व्याख्या की है. ...पुस्तक आपके अध्ययन, मनन और चिंतन को उजागर करती है.
डा. नगेन्द्र जैसे आलोचक का कहना है कि-दीक्षा में प्रौढ़ चिंतन के आधार पर रामकथा को आधुनिक सन्दर्भ प्रदान करने का साहसिक प्रयत्न किया गया है. बालकाण्ड की प्रमुख घटनाओं तथा राम और विश्वामित्र के चरित्रों का विवेक सम्मत पुनराख्यान, राम के युगपुरुष/युगावतार रूप की तर्कपुष्ट व्याख्या उपन्यास की विशेष उपलब्धियाँ हैं.
वहीं धर्मवीर भारती का ने कहा-"यूं ही कुतूहलवश 'दीक्षा' के कुछ पन्ने पलटे और फिर उस पुस्तक ने ऐसा intrigue किया कि दोनों दिन पूरी शाम उसे पढ़कर ही ख़त्म किया. बधाई. चार खंडों में पूरी रामकथा एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है. यदि आप आदि से अंत तक यह 'tempo' रख ले गए, तो वह बहुत बड़ा काम होगा. इसमें सीता और अहल्या की छवियों की पार्श्व-कथाएँ बहुत सशक्त बन पड़ी हैं.
प्रसिद्ध ललित निबंधकार रामनारायण उपाध्याय तो उनपर ऐसे न्यौछावर हुए कि उनकी आलोचना 'भक्ति' की सीमा को छूने लगी :"मैनें डा. शान्तिकुमार नानुराम का वाल्मीकि रामायण पर शोध-प्रबंध पढ़ा है. रमेश कुंतल मेघ एवं आठवलेकर के राम को भी पढ़ा है; लेकिन (दीक्षा में) जितना सूक्ष्म, गहन, चिंतनपूर्ण विराट चित्रण आपने किया वैसा मुझे समूचे हिन्दी साहित्य में आज तक कहीं देखने को नहीं मिला. अगर मैं राजा या साधन-सम्पन्न मंत्री होता तो रामायण की जगह इसी पुस्तक को खरीदकर घर-घर बंटवाता".
पर सहज आनंद और गौरव का अनुभव किया महान उपन्यासकार अमृतलाल नागर ने, जिन्होंने न सिर्फ पीठ ठोंकी, वरन पहले उपन्यास की कमियाँ भी बताईं और खुले दिल से आगे बढ़ने का आर्शीवाद भी दिया :"आप अपने नायक के चित्रण में सश्रद्ध भी हैं और सचेत भी. ...प्रवाह अच्छा है. कई बिम्ब अच्छे उभरे, साथ साथ निबल भी हैं, पर होता यह चलता है कि एक अच्छी झांकी झलक जाती है और उपन्यास फिर से जोर पकड़ जाता है. इस तरह रवानी आद्यांत ही मानी जायगी. इस सफलता के लिए बधाई. ... सुबह के परिश्रम से चूर तन किन्तु संतोष से भरे-पूरे मन के साथ तुम्हें बहुत काम करने और अक्षय यश सिद्ध करने का आर्शीवाद देता हूँ.
कोहली जी ने गद्य की सभी विधाओं पर इतना लिखा जितना आज तक किसी भी शीर्षस्थ रचनाकार ने नहीं लिखा था. और प्रेमचंद की ही भांति हिन्दी को वह लेखक फिर मिला जो स्पर्श मात्र से किसी भी विषय को जीवंत कर दे. कहीं भी बिखराव नहीं, कहीं भी अस्पष्टता नहीं; न जटिलता, न ठहराव. नरेन्द्र कोहली आज उस सोपान पर हैं जहां प्रेमचंद तब होते यदि उन्होंने लम्बी आयु पाई होती और अपने कृतित्व का और विकास किया होता. यदि उन्होंने अपनी प्रतिबद्धताओं को तर्कसंगत व्यापकता प्रदान की होती.
प्रसिद्ध कवि बाबा नागार्जुन लिखते हैं," प्रथम श्रेणी के कतिपय उपन्यासकारों में अब एक नाम और जुड़ गया-दृढ़तापूर्वक मैं अपना यह अभिमत आपतक पहुंचाना चाहता हूँ. ...रामकथा से सम्बन्धित सारे ही पात्र नए-नए रूपों में सामने आये हैं, उनकी जनाभिमुख भूमिका एक-एक पाठक-पाठिका के अन्दर (न्याय के) पक्षधरत्व को अंकुरित करेगी यह मेरा भविष्य-कथन है.
शेष अगले भागों में--
nice
जवाब देंहटाएंनिबंध पढ़कर अच्छा लगा. मेरी सामग्री के प्रयोग के लिए धन्यवाद. विकिपीडिया के लेख 'नरेन्द्र कोहली' का भी सन्दर्भ दें तो अच्छा लगेगा.
जवाब देंहटाएं