देश के लिए कलंक बन चुके तथाकथित बुद्धिजीवियों और सेल्युलरों का एक और क्रूर चेहरा सामने आया है. इन लोगों ने केंद्र सरकार की उस योजना के खिलाफ तर्राष्ट्रीय अभियान शुरू किया है, जिसके तहत केंद्र सरकार नवंबर के पहले सप्ताह से नक्सल प्रभावित राज्यों महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल में माओवादियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करने जा रही है. इन लोगों ने प्रधानमंत्री के नाम एक खुले पत्र पर हस्ताक्षर अभियान शुरू किया है. पत्र में लिखा गया गया है कि
सरकार महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, झारखंड में नक्सलियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की योजना को तत्काल वापस ले. क्योंकि इस कार्रवाई से जंगल में रह रहे लाखों गरीब और आदिवासी बेघर होंगे, उनके सामने पुनर्वास की समस्या आ खड़ी होगी. इससे गरीब लोगों की पहले से खराब हालत और खराब हो जाएगी. और इससे जबरदस्त मानवीय त्रासदी पैदा होगी. इस अभियान से आदिवासियों का अपमान होगा और मानवाधिकार का व्यापक उल्लंघन होगा. आगे पत्र में कहा गया है कि पहले ही विभिन्न सरकारी अभियानों से छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल में हजारों लोग बेघर हो चुके हैं और सैंकड़ों की संख्या में लोग मारे जा चुके हैं. नई योजना से देश में गृहयुद्ध की स्थिति पैदा हो जाएगी. इसलिए सरकार को ये योजना तत्काल वापस ले लेना चाहिए.
इतना ही नहीं, पत्र में सीधे सीधे माओवादी नक्सलियों का समर्थन भी किया गया है.
माओवादी नक्सली बहुराष्ट्रीय कंपनियों और सेज के खिलाफ आदिवासियों की लड़ाई में मदद कर रहे हैं और ऐसे में नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई करने से देश में भयानक गृहयुद्ध फैल जाएगी और इससे जबरदस्त मानवीय त्रासदी पैदा होगी. जिससे निपटना सरकार के लिए मुश्किल हो जाएगा.
प्रधानमंत्री के नाम लिखे इस खुले पत्र में हस्तक्षर करने वालों में अरुंधती राय, दीपांकर भट्टाचार्य, सुप्रीमकोर्ट के कई वकील, दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया के कई शिक्षक और छात्रों के अलावा विदेशों के भी कई लोग शामिल हैं.
इन तथाकथित क्रूर बुद्धिजीवियों के बारे में लिखना उचित नहीं था, लेकिन इनका कलंकित चेहरा बार-बार सामने लाना जरूरी हो जाता है. आखिर ये लोग चाहते क्या हैं. इन्होंने नेपाल में राजशाही के खिला फ माओवादियों का समर्थन किया था. उस समय सीताराम येचुरी जैसे लोग भी माओवादियों का बचाव करते थे, लेकिन पश्चिम बंगाल में उनकी ही सरकार के खिलाफ जब वामपंथियों का आतंक शुरू हो गया तो सीताराम येचुरी और बुद्धदेव भट्टाचार्य चिल्लाने लगे कि नक्सलियों के पास कोई विचारधारा नहीं है और इसका सफाया जरूरी है. सीताराम येचुरी ने तो यहां तक कहा है कि जितने लोग का कत्ल तालिबान ने नहीं किया होगा उससे ज्यादा लोग गढ़चिरौली में नक्सलियों की हिंसा में मारे गए. उनका कहना ये भी है कि जो लोग संवाद की भाषा नहीं, हिंसा की भाषा समझते हैं उन्हें हिंसा का जवाब हिंसा से दिया जाना चाहिए. जबकि सीपीएम महासचिव प्रकाश करात अभी भी नक्सल समस्या का राजनीतिक समाधान चाहते हैं न कि प्रतिहिंसा.
सीपीएम के अंदर ही विचारधारा का द्वंद्व है. दरअसल ये द्वंद्व सत्ता और विचारधारा के बीच है. विचारधारा कहती है कि नक्सलियों को पालो जबकि सत्ता कहती है कि ये नक्सली तुम्हारे हाथ से हमें छीन लेंगे. पश्चिम बंगाल सरकार सत्ता गंवाने के ख्याल से डरकर नक्सलियों के खिलाफ केंद्र की योजना का समर्थन कर रहे हैं.
मगर, उनलोगों का क्या जो अकेले पश्चिम बंगाल से खुश नहीं हैं, वो भी उस स्थिति में जब तृणमूल का राहु उससे दिनों-दिन ग्रसता जा रहा है. ये लोग पूरे देश में नक्सलियों का शासन चाहते हैं, इन लोगों का सपना चीन की तरह भारत में भी कम्युनिष्ट शासन स्थापित करना है.
विदेशी चंदे पर पलने वाले ये नक्सलियों के लग्गू-भग्गू ही हैं. इन्हें बुद्धजीवी कहना गलत है दरअसल ये क्षुद्रजीवी हैं. सरकार को ये अभियान अवश्य चलाना चाहिए क्योंकि इस कोढ़ को समाप्त करना अब जरूरी हो गया है.
जवाब देंहटाएं