कभी एक ब्रैंड था अब ब्रैंड ही बैंड हैं. कभी मेट्रो में भी मॉल नहीं थे, अब हर चौराहे- हर नुक्कड पर मॉल दिख रहे हैं. इसका नशा इस कदर सिर चढ़कर बोला कि लोग साम्यवादी व्यवस्था को मुंह चिढ़ाने लगे. कॉर्पोरेट कल्चर और मैंनेजर संस्कृति ने पूरे बाजार या यू कहें पूरी व्यवस्था को अपनी चपेट में ले लिया. लोगों को इस व्यवस्था में मजा आने लगा. कॉर्पोरेट घरानों को हस्तक्षेप से मुक्त करने के लिए सरकार पर मध्यवर्ग का दबाव बढ़ने लगा. सरकारों ने कॉर्पोरट घरानों को हस्तक्षेप से मुक्त कर दिया.
भौतिकवादी जीवन दर्शन भारतीय संस्कृति के लिए कोई अनोखा विषय नहीं रहा है.. लेकिन भूमंडलीकरण के बाद ही यह आमलोगों की जिंदगी का हिस्सा बन सका है. मगर, अतिशय लालचवादी सोच ने शुरुआत में इसका गला घोंट दिया.
सदियों पहले की बात है. भारत में चार्वाक नाम के ऋषि पैदा हुए थे. वे जाते-जाते कह गए, जब तक जीओ, सुख से जीओ, कर्जा लेकर, घी पीओ. सदियों तक भारत की बहुसंख्यक जनता ने इसपर ध्यान ही नहीं दिया. और जिन्होंने ध्यान भी दिया, उन्हें यह चार्वाकी दर्शन हजम ही नहीं हुआ. नतीजा हुआ, वो गरीबी और बेचारगी में जीते रहे. सात समुंदर पार वालों ने शायद ये बात सुनी भी नहीं होगी, मगर वे इसका मतलब समझ गए. तभी तो कर्जा लेकर, घी ही नहीं, शराब-सिगरेट और न जाने क्या क्या पी गए.
खुली बात, खुले दिमाग की तर्ज पर, मुक्त पूंजी, मुक्त श्रम और मुक्त बाजार व्यवस्था का जन्म हुआ. मुक्ति के इस रोग ने धीरे-धीरे पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया. कभी एक ब्रैंड था अब ब्रैंड ही बैंड हैं. कभी मेट्रो में भी मॉल नहीं थे, अब हर चौराहे- हर नुक्कड पर मॉल दिख रहे हैं. इसका नशा इस कदर सिर चढ़कर बोला कि लोग साम्यवादी व्यवस्था को मुंह चिढ़ाने लगे. कॉर्पोरेट कल्चर और मैंनेजर संस्कृति ने पूरे बाजार या यू कहें पूरी व्यवस्था को अपनी चपेट में ले लिया. लोगों को इस व्यवस्था में मजा आने लगा. कॉर्पोरेट घरानों को हस्तक्षेप से मुक्त करने के लिए सरकार पर मध्यवर्ग का दबाव बढ़ने लगा. सरकारों ने कॉर्पोरट घरानों को हस्तक्षेप से मुक्त कर दिया. इसके बाद कॉर्पोरट घरानों को भी लगा कि उन्हें कही से किसी तरह की कोई जिम्मेदारी नहीं है. ज्यादा से ज्यादा संसाधन को अपने हिस्से में कर लेने की होड़-सी मच गई. जिसे एक प्यारा सा नाम दिया गया- प्रतिस्पर्धा. मध्यवर्ग हर स्थिति में सुख भोगने की लालसा में फंसता गया. कर्ज लेकर घी पीने का फलसफा साकार होता दिखा. प्लास्टिक कार्ड पर उधार की जिंदगी किस्तों में चलने लगी. उधार का टीवी, उधार की कार, उधार का घर, उधार का प्यार. बाजार में रौनक, रियल स्टेट में बूम. हर तरफ विकास के नारे गए जाने लगे. कही शाइनिंग इंडिया, तो कहीं भारत उदय. कहीं भारत निर्माण तो कही और कुछ. मतलब आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपया. मगर, बालू की भीत ज्यादा देर तक नहीं टिकती
मशहूर निवेशक वारेन बफेट ने ठीक ही कहा कि समुंदर में जबतक ज्वार रहता है, तक तक पता ही नहीं चलता कि उसमें कौन-कौन नंगे हैं. ज्वार की भी अपनी आयु होती है. उसके जाते ही, हमाम में सब नंगे नजर आने लगे. एक के बाद एक बैंक और वित्तीय संस्थाएं दिवालिया होने लगी. अर्थव्यवस्था गंभीर संकट में फंसती गयी. सरकारी व्यवस्था को मुंह चिढ़ाने वाली बड़ी-बड़ी कंपनियां अपने उद्धार के लिए सरकार का मुंह ताकने लगीं. एक के बाद एक भारी भरकम आर्थिक पैकेज के बावजूद अर्थव्यवस्था अपनी रीढ़ पर खड़ा होने का साहस नहीं कर पा रही है.
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