अपने इकतीस साल के जीवन में, जाने-अनजाने मैं असंख्य लोगों, प्राणियों, जड़-चेतनों का कर्जदार रहा. मैं इन सबका आभारी भी हूं. मैं चाहकर भी, या यूं कहें कि अपने जीवन का शेष हिस्सा होम करके भी इनके कर्ज से मुक्त नहीं हो पाऊंगा. मैं ही क्या, इस धरती के कमोबेश सभी इंसानों की यही स्थिति है कि वह चाहकर भी कर्ज से मुक्त नहीं हो सकता है. दरअसल, मानवमात्र का जीवन अनेक तरह के कर्जों से उपकृत हुआ करता है. प्राचीन ग्रंथों में मातृ-ऋण, पितृ-ऋण, गुरूऋण आदि कई ऋणों की चर्चा की गई है और इन कर्जों को चुकाना हर मानव का कर्तव्य बताया गया है.
इसका मतलब कदापि ये नहीं समझा जाना चाहिए कि मैं कर्जखौक हूं. मैं हमेशा कर्ज लेने और उपकृत होने से बचने का प्रयास करता रहा हूं. फिर भी प्रकृति और प्रवृति के वशीभूत होकर मैं बच नहीं पाया.
युग क्रेडिटकार्ड का है यानी उधार लेकर खाने का. चार्वाकी दर्शन यानी यावत जीवेत, सुखम जीवेत, ऋणम कृत्वा, घृतम पीबेत को अपनाने का. दूसरे के पैसे पर ऐश करने का. मामू के धन से फूफा का श्राद्ध करने का. लोक-दर्शन, लगा दो आग पानी में, जवानी उसे कहते हैं. लूटा दो बाप का दौलत, जवानी उसे कहते हैं, के प्रति पूर्ण समर्पण दिखाने का. संतोषम परमं सुखम का नहीं, बल्कि दाउ आर्ट नॉट डेस्टाइन्ड टू डस्ट के कलयुगी अर्थ समझने का.
साफ है. यह समय, गदहे को बाप कहकर काम बनाने का है. जो इसका कला में जितना निपुण है, वो उतना ही सफल है. धरम की धूरी से चिपके रहने वालों की खैर नहीं. आज के युग में गांधी बनोगे तो उस खास जगह पर गुंह भी नहीं बचेगा.
मतलब, समय बदलाव है. जो आंधी का रुख देखकर ऊंट की तरह करवट नहीं बदलता है, जिसके जिस्म पर वक्त की आंधी लाखों मन तलछट जमा कर देती है, फिर वह चाहकर भी खड़ा नहीं हो सकता. यही सब सोचकर मुझे भी थोड़ा बदलतना पड़ा. भले ही, इस कर्जखोरी ने लोगों को सड़क पर ला खड़ा कर दिया है. अमेरिका में अकेले जनवरी महीने में करीब छह लाख रोज अपना रोजगार खो चुके हैं. पिछले एक साल में करीब इसकतीस लाख लोग बेरोजगार हो गए हैं. इस वक्त अमेरिका में कुल मिलाकर एक करोड़ सोलह लाख लोग बेरोजगार है. यहां भारत की बात करना भी अनुचित है, क्योंकि भारत में इस बात पर कभी जो दी हीं नहीं जाती है. अपने हठ और अभिमान में फूली भारत सरकार बड़े गर्व से कहती रही है कि वैश्विक आर्थिक संकट का असर उस पर नहीं पड़ेगा और उसका उसका आर्थिक विकास पहले की तरह बना रहेगा. लेकिन, सरकार के इस दावे में कोई दम नहीं था. आंकड़े महंगाई कम होने की बात कही गई, लेकिन महंगाई, अब भी आम लोगों को अपना ग्रास बना रही है. आखिरकार, रिजर्व बैंक को यह घोषणा करना ही पड़ा कि देश गंभीर आर्थिक संकट की दौर से गुजर रहा है.
गंभीर आर्थिक संकट के बावजूद, बुश प्रशासन झुकने के लिए तैयार नहीं था. उसका कहना था कि खुली पूंजी, खुले बाजार और खुले श्रम के विकल्प पर विचार करना अभी जल्दबाजी होगी. वर्तमान राष्ट्रपति ओबामा भले ही अर्थव्यवस्था को आर्थिक संकट के दलदल से निकालने के लिए भले ही छटपटा रहे हो. भले ही सिनेट पर उनकी त्यौरियां चढ़ी हों, भले ही वह नौ सौ बिलियन डॉलर के पैकेज को मंजूरी देने में हो रही देरी को वे सिनेट का अनुचित और गैर-जिम्मेदाराना कदम मान रहे हो.
अमेरिकी मंदी सिखाती है कि कर्जखौक बनना ठीक नहीं है. शुरुआती दिनों के अनुभव ने कुछ ऐसी सीख दी कि कर्ज मेरे लिए कभी शान नहीं बना. कभी खुद को साबित करने के लिए या शेखी बघारने के लिए कर्ज नहीं ली.
अर्थात, मैं कर्ज लेने के सख्त खिलाफ हूं, मगर ये भी समझता हूं कि वक्त की आंधी के प्रतिकूल जाकर कोई कितनी खड़ा रह सकता है. यही वजह है कि कभी कभार मैं भी कर्ज लेता हूं. वैसे कर्ज लेना कई लोगों की शान में शुमार है. वो बलपूर्वक कर्ज लेते हैं, दूसरों को दिलाते हैं या फिर लेने के लिए मजबूर करते हैं. इस कटेगरी में तथाकथित सेक्लूयर बुद्धिजीवी शामिल हैं, जिन्हें अपने देश, अपनी भाषा, अपनी विचारधारा और अपनी संस्कृति पर शर्म महसूस होती है. ये स्वयं को सेक्यूलर साबित करन के लिए कर्ज लेते हैं. कई लोगों को समाजवादी बनने का ढ़ोग रचने के लिए कर्ज लेना पड़ता है.
लेकिन मेरे लिए कर्ज लेना कभी शान नहीं रहा, कभी खुद को साबित मैंने कर्ज नहीं ली, लेकिन समय ने कई बार मुझे ऐसा करने के लिए मजबूर किया.
वैसे तो कर्जदार अक्सर बदतमीज होते हैं, लेकिन एक कर्जदार, बड़ा ही बदतमीज निकला. वक्त-बे-वक्त अपना रौब दिखाता है. सरे आम कीचड़ उछालने से नहीं हिचकता है. पता नहीं, जलील करता है या ज़लील.
ऐसा नहीं कि मैंने पहलीबार कर्ज ली हो. बचपन से ही जाने-अनजाने ही कर्ज लेता रहा. उस समय न किसी ने रोका, न टोका. उस समय किसी ने मुझे जलील नहीं किया. कभी किसी ने नहीं कहा कि मौका क्यों लिखते हो. किसी ने नहीं बताया कि हज़ार होता है, हजार नहीं. कभी किसी टेक्स्ट बुक में मौका की जगह मौक़ा लिखा नहीं देखा. कभी किसी ने ज़्यादा लिखने के लिए आग्रह नहीं किया.
लेकिन ये नुक्ते का अफसाना/अफ़साना अब मेरी तरक्की की राह में एक बड़ा रोड़ा बनकर आ खड़ा हुआ है. भाषा के शुद्धतावादी सर्थमकों ने साफ कह दिया था कि तुम एंकर नहीं बन सकते.
आखिर मेरी गलती/ग़लती कहां है. क्या जमीन बोलने वाले हमारे पूज्य गुरूजी गलत थे या मैं. कौन दोषी है. आखिर/आख़िर मेरे गुरूजी ने खुदा को ख़ुदा क्यों नहीं पढ़ाया. जब उस समय यह आग्रह नहीं था तो आज क्यों. क्यों अखबार वाले, मौका को मौक़ा नहीं लिखते. क्यों इज्जत को इज्ज़त नहीं लिखा जाता. जब अंग्रेज ने मेरी भाषा से शब्द लिया तो इस शर्त पर कि तुम जैसा बोलते हो वैसा ही मैं भी बोलूंगा. क्या मैंने अपनी भाषा में अंग्रेजी शब्द शामिल किया तो क्या इसी शर्त पर कि उस शब्द का उच्चारण जैसा अंग्रेज करते हैं, वैसा मैं भी करुं.
ये बदतमीज जब बदतमीज़ बनकर मेरे सामने आता है तो जी करता है कि इसका सिर फोड़ दूं. आखिर ये एहसान फ़रामोश कब तक यूं मेरे सपनों का गला घोंटता रहेगा. आखिर ये कब तक मुझे चिढ़ाता करेगा
भारत सरकार ठीक कह रही है जी. इस मन्दी का असर हम सचमुच नहीं पडेगा. पडे तो उन पर जो कभी तेज़ी में रहे हैं. जब हम हमेशा मन्दी में ही रहे हैं तो ये मन्दी हमारा क्या बिगाड लेगी?
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लेख
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