तुलसीदासजी के रामचरित मानस में रामसेतु निर्माण से पूर्व का प्रसंग है. भगवान राम विभीषण से पूछते हैं कि नाना प्रकार के जीव-जंतुओं से भरे इस विशाल सागर को कैसे पर किया जाए. विभीषण सलाह देते हैं कि सागर(सगर) आपके पूर्व थे, आप उनसे प्रार्थना करें, वे आप पर कृपा रास्ता बतला देंगे. राम सागर की प्रार्थना के लिए तैयार हो गए, लेकिन लक्ष्मण को विभीषण की सलाह अच्छी नहीं लगी. उन्होंने कहा कि कायर ही भगवान-भगवान चिल्लाते है. भगवान राम ने लक्ष्मण को यह कहकर शांत किया कि उचित समय पर ही बल प्रयोग करेंगे और उन्होंने ऐसा ही किया. गोस्वामी तुलसी दास जी ने इस प्रसंग को बहुत ही सुंदर तरीके से रचा. इसके साथ ही, दिनकर जी की रचना का भी उल्लेख करूंगा, जिसमें उन्होंने मानव मात्र को शक्तिसंपन्न होने की बात रही. अंत में यह कहने के लालच से नहीं बच पा रहा हूं कि बचपन ही में मैंने सुंदरकांड सहित अनेकों कविताओं और संस्कृत के दर्जनों श्लोकों को कंठस्थ कर लिया था जो आज भी मुझे ललित और प्रेरक लगते हैं. हालांकि बाद में इनसे नाता टूट गया, फिर भी प्रथम प्रेरणा जीवन को प्रेरित करती रही हैं. सुन कपीस लंकापति वीरा। केहि विधि तरिए जलधि गंभीर।। संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भांति।। कह लंकेश सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तब सायक।। जद्यपि तद्यपि नीति अस गाई। विनय करिए सागर संग जाई।। प्रभु तुम्हार कुल गुरू जलधि, कहिहि उपाय विचारि। बिनु प्रयास सागर तरहिं सकल भालु कपि धारि।। सखा कही तुम नीकि उपाई। करिए देव जो होहिं सहाई।। मंत्र न यह लक्ष्मण मन भावा। राम वचन सुनि अति दुख पावा।। नाथ दैव कर कवन भरोसा सोखिए सिंधु करिए मन रोसा।। कादर मन कहुं एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा।। सुनत बिहस बोले रघुवीरा। ऐसेहिं करब धरहुं मन धीरा।। अस कहिं प्रभु अनुजहिं समुझाई।। सिंधु समीप गए रघुराई। प्रथम प्रणाम किंह सिरूनाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई।। विनय मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीत। बोले राम सकोप तब भय बिन होहि न प्रीत।। लक्ष्मन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु।। सठ सन विनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपण सन सुंदर नीति।। क्रोधहि सम कामहिं हरि कथा।। ऊसर बीज बए फल जथा। अस कहि रघुपति चाप चढावा। यह मत लक्ष्मण कर मन भावा भगवान ने महासागर के किनारे कुश की चटाई लगाकर तीन दिनों तक प्रार्थना की, मगर सिंधु ने कोई जवाब दिया. राम क्रोधित हो उठे. बोले, लक्ष्मण धनुष बाण लाओ. मुर्खों के साथ विनय करना, कुटिल के साथ प्रीति करना, कंजूसों को नीति की बात कहना, क्रोधी से समता की बात करना और कामी स्त्री-पुरूषों के समक्ष हरिकथा कहना उतना ही बेकार है, जितना ऊसर जमीन में बीज बोना. अब राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की शक्ति और क्षमा- क्षमा दया तप त्याग मनोबल सबका लिया सहारा। पर नरव्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो कहां कब हारा। क्षमाशील हो रिपु समक्ष तुम विनीत हुए जितना ही। दुष्ट कौरव ने तुमको कायर समझा उतना ही। क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो। उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो। तीन दिवस तक पंथ मांगते रघुपति रहे सिंधु किनारे। बैठे बैठे छंद को पढ़ते अनुनय के प्यारे प्यारे। उत्तर से जब एक नाद भी उठा नहीं सागर से। उठी अधीर धधक पौरूष की आग राम से शर से। सिंधु देह धर त्राहि-त्राहि करता आ गिरा शरण में। चरण पूजि दासता ग्रहण की बंधा मूढ बंधन में। सच पूछो तो शर में ही बसती दीप्ति विनय की । संधि वचन संपूज्य उसी का जिसमें शक्ति विजय की। सहनशीलता क्षमा दया को तभी पूजता जग है। बल के दर्प चमकता जिसके पीछे जब जगमग है।।
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bahut sahi kaha hai aap ne !
जवाब देंहटाएंulatvasi ka vichar khta hai..
kshma ke peeche drp hai aur drp me kshma yani dono ek duje ke poorak!
shee kaha hai aapne !
जवाब देंहटाएंulatvasi ka vichaar ...
darp se kshma upje aur kshmit agyani
me darp.
shakti ko kshma hi bhooshit karti hai
बहुत बहुत आभार आपका,प्रसंग पढ़ने के लिए.बहुत सुंदर प्रस्तुति है.
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