हिंदी शोध संसार

सोमवार, 21 जुलाई 2008

करार-कितनी हक़ीक़त-कितना फ़साना

अमेरिकी कवि मार्क ट्वैन ने कहा था कि जब तक सच जूता पहन रहा होता है तब तक झूठ पूरी दुनिया का आधा चक्कर लगा चुका होता है.
भारत-अमेरिका परमाणु करार के बारे में ऐसा ही कुछ कहा जा सकता है. परमाणु करार को लेकर जितनी सच्चाई है उससे कई गुना ज्यादा है इससे जुड़ी मनगढंत कहानियां. ये कहानियां परमाणु करार के समर्थकों और विरोधियों ने गढ़ रखे हैं.
परमाणु करार के समर्थकों का यहां तक कहना है कि एकबार करार हो जाए देश की सारी समस्याएं यूं ही खत्म हो जाएंगी.
हमारे माननीय रेलमंत्री लालू यादव तो बड़े ही नुक्कड़ी अंदाज में कहते हैं कि करार के बाद इतना भाप बनेगा कि घर घर में बिजली ही बिजली होगी.
रिपोर्टों की माने तो, करार हो जाने के बाद 2020 तक देश की कुल बिजली जरूरतों का मात्र छह प्रतिशत परमाणु बिजलीघरों से पैदा किया जा सकेगा. इस समय हम परमाणु बिजलीघरों से तीन प्रतिशत बिजली पैदा करते हैं यानी करार से परमाणु बिजली में महज तीन प्रतिशत का ईजाफा हो सकेगा. बाकी 94 प्रतिशत बिजली के लिए हमें अपने परंपरागत व गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों पर निर्भर रहना होगा. साथ इस करार पर हम जितना खर्च कर रहे हैं वह मिलने वाली ऊर्जा से काफी ज्यादा है.
अब बात सामरिक जरूरतों की.
करार में साफ-साफ कहा गया है कि अगर हम परमाणु परीक्षण जैसी कोई भी चीज करते हैं तो अमेरिकी परमाणु ईंधन और तकनीक की आपूर्ति पर तत्काल रोक लगा देगा.
यूपीए सरकार की दलील है कि 1998 के परमाणु परीक्षण के बाद भाजपा सरकार ने घोषणा कर दी थी कि अब उसे आगे परमाणु परीक्षण करने की जरूरत नहीं है.
लेकिन देश के सामरिक विशेषज्ञों का कहना है कि 1998 में भारत हाईड्रोजन बम का परीक्षण नहीं कर पाया था, इसलिए निकट भविष्य में उसका परीक्षण करना अनिवार्य होगा और अगर हम परीक्षण करेंगे तो करार रद्द हो जाएगा.
करार के मुताबिक, परमाणु प्रसार को रोकने के लिए हमें अमेरिकी नीतियों का समर्थन करना होगा. साफ है कि अगर अमेरिका ईरान पर हमला करता है तो हमें किसी न किसी रूप में उसकी मदद करनी होगी.
आइये अब बात करते हैं तकनीक की.
सोचिए अमेरिका क्यों भारत को तकनीकी रूप से सशक्त राष्ट्र बनाना चाहेगा. यह वही देश है तो भारत में भारत की तरह और पाकिस्तान में पाकिस्तान की तरह गप करता है. वह नहीं चाहेगा कि भारत सशक्त बने. जानकारों का मानना है कि अमेरिका को अपने कुछ पुराने रिएक्टर बचने हैं इसलिए वह इस करार में इतनी दिलचस्पी ले रहा है. लेकिन भारत करार करने के लिए इतना बेताव क्यों है.
भारत सरकार के पास इतना पैसा नहीं है कि शोध संस्थान छोड़ रहे वैज्ञानिकों को उचित सुविधाएं देकर उन्हें पलायन से रोके.
साल दर साल स्कूलों में विज्ञान पढ़ने वाले छात्रों की संख्या घट रही है. कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में विज्ञान की पढ़ाई तो होती है प्रयोगशाला गायब हैं, कहीं प्रयोगशाला हैं तो शिक्षक गायब हैं. विश्वविद्यालयों में विज्ञानपरक शोधों का अकाल पड़ता जा रहा है. शोधार्थी ऊंची तनख्वाह की चाहत में निजी क्षेत्र की ओर पलायन कर रहे हैं.
हमारी सरकार को अमेरिका से किया हुआ वादा तो याद है लेकिन देश से किया हुआ वादा नहीं.
डॉ कलाम पहले ही कह चुके हैं कि देशी रिएक्टरों में ईंधन आपूर्ति के लिए थोरियम का संवर्द्धन किया जाना चाहिए. भारत के पास दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा थोरियम भंडार है.
भारत को ऊर्जा की जरूरत है लेकिन इस करार से क्या मिल रहा है. रिपोर्टों के अनुसार, करार से संबंधित तकनीक खरीदने के लिए हमें करीब पांच लाख करोड़ रूपये खर्च करने होंगे.
सरकार जो पूरे देश के किसानों के लिए महज साठ-सत्तर हजार करोड़ रुपये खर्च करती है तो पूरी दुनिया ढिढोरा पिटती फिरती है, आखिर इस समय वह देश को सही स्थिति क्यों नहीं बताती.
सरकार जो आईएईए से परमाणु निगरानी समझौते को गोपनीय बताती है वही दस्तावेज दूसरे दिन इंटरनेट पर क्यों आ जाता है.

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