हिंदी शोध संसार

सोमवार, 26 मई 2008

कर्नाटक में कमल

भाजपा की जीत के बहाने

यह ठीक है किसी राज्य विधानसभा का चुनाव केंद्र सरकार के लिए जनमत संग्रह नहीं होता है, लेकिन यह कहना कितना उचित है कि राज्य विधानसभा चुनाव के परिणामों का असर देश के आम चुनाव पर नहीं होगा.

कर्नाटक में भाजपा की जीत के कई मायने हैं. किसी दक्षिण भारतीय राज्य में अपने बलबूते पर सरकार बनाने का भाजपा का सपना पूरा हो रहा है. भाजपा राज्य विधानसभा के चुनावों में लगातार जीत रही है. देश के सात

राज्यों में भाजपा की सरकार है. पांच राज्यों में वह गठबंधन सरकार में शामिल है. इस समय वह देश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है. जाहिर है कि इस समय देश में उसका जनाधार भी सबसे बड़ा है.

आखिर एक पार्टी जिसे देश की राजनीतिक पार्टियों का सबसे बड़ा समूह सांप्रदायिक मानता है, जिसके दामन पर गुजरात दंगे का कलंक है, आखिर उस राजनीतिक पार्टी पर देश की जनता को भरोसा क्यों है. राजनीतिक पार्टियों खासकर कांग्रेस और वामदलों को सोचना चाहिए.

भाजपा एक सांप्रदायिक पार्टी है. कहना आसान है. वह सांप्रदायिक इसलिए है कि वह देश में समान नागरिक संहिता की मांग करती है. सांप्रदायिक इसलिए है कि वह जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाने की मांग करती है. सांप्रदायिक इसलिए है कि वह अयोध्या में राममंदिर बनवाना चाहती है. सांप्रदायिक इसलिए है कि वह आदम ब्रिज को रामसेतु कहती है. सांप्रदायिक इसलिए है कि वह संसद भवन पर हमले के दोषी अफजल गुरू को फांसी देने की मांग करती है. सांप्रदायिक इसलिए है कि वह आतंकवाद के खिलाफ पोटा जैसे कड़े कानून चाहती है. सांप्रदायिक इसलिए है कि वह मुसलमानों के लिए सच्चर समिति के गठन और उसकी सिफारिशों का विरोध करती है. सांप्रदायिक इसलिए है कि...

देश में समान नागरिकता कानून और जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हटाने का विरोध किया जाना चाहिए. अगर समान नागरिकता कानून बन गया तो सच्चर समिति का गठन कैसे होगा, मुस्लिम बहुल इलाकों के विकास के लिए प्रधानमंत्र, विशेष पैकेज की घोषणा कैसे कर सकेंगे. जम्मू-कश्मीर से धारा-370 हट गई तो अल्पसंख्यक के नाम पर राजनीति कैसे होगी. देश का बहुसंख्यक अल्पसंख्यक राज्य पर कब्जा तो नहीं कर लेगा. आखिर इसकी चिंता धर्म-निरपेक्ष पार्टियां नहीं करेंगी तो क्या सांप्रदायिक पार्टी करेगी.

देश को पोटा और टाडा जैसे कानून नहीं चाहिए, क्योंकि इनका दुरूपयोग होता. दुरूपयोग तो संसद का भी होता है, दुरूपयोग तो अदालतों का भी होता है, फिर इन संस्थाओं को समाप्त क्यों नहीं कर दिया जाना चाहिए.

अफजल गुरू को सुप्रीमकोर्ट ने फांसी की सजा दी, उसकी पुनर्विचार याचिका बड़ी अदालत ने खारिज कर दी फिर भी उसे फांसी नहीं दी जा रही है. वह संसद भवन पर हमले का दोषी है फिर भी सरकार उसे बचा रही है. यदि किसी को समझ में नहीं आ रहा है तो कोई क्या करे, इससे बड़ी धर्म-निरपेक्षता क्या होगी. यदि कोई उसे फांसी देने की मांग करता है तो वह सांप्रदायिक नहीं तो और क्या होगा.

गुजरात में सांप्रदायिक दंगे हुए और कथित सांप्रदायिक पार्टी ने राजकीय संरक्षण में इसे अंजाम दिया. गुजरात अकेला राज्य नहीं जहां सांप्रदायिक दंगे हुए. 1984 में सिक्ख विरोध दंगे हुए जिनमें दो हजार से ज्यादा सिख मारे गए. इस दंगे में कई कांग्रेसी नेताओं के शामिल होने का आरोप है. तात्कालिक प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा, जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है. नंदीग्राम में महीनों जनसंहार चला, पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कहा, हमारे लोगों ने तृणमूल कांग्रेस के लोगों को ईंट का जवाब पत्थर से दिया. कोई ये तो बताए कौन दूध का धुला. सभी के पंजे इंसानी खून से रंगे है. ये बानगी है इस देश में दर्जनों दंगे हो चुके हैं, जिनमें हजारों लोगमारे गए. उस समय भाजपा कहीं नहीं थी, कौन जवाब देगा कि ये दंगे किसने कराए, जिनके शासनकाल में ये दंगे हुए क्यों उन्हें दोषी नहीं माना जाय.

कांग्रेस पार्टी ने देश के स्वतंत्रता सेनानियों को आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए एक बड़ा प्लेटफॉर्म दिया था. पार्टी को इसका गर्व होना भी चाहिए. लेकिन इसी कांग्रेस पार्टी ने परिवारवाद, तुष्टिकरण को बढ़ावा दिया. इसी की तुष्टिकरण की नीति के चलते देश में हिंदुवादी कट्टरपंथियों को बढ़ावा मिल रहा है.

आज देश आंतकवाद की आग में जल रहा है तो कांग्रेस कहती है कि दोषारोपण के पहले भाजपा को अपने गिरबान में झांकना चाहिए. वह यह भी कहती है कि उसके शासनकाल में संसद, अक्षरधाम सहित कई जगहों पर हमले हुए. ठीक है कि हमले हुए, लेकिन इन सभी जगहों पर आतंकवादी मार गिराए. लेकिन यूपीए के शासनकाल में आतंकवादियों को मारना तो दूर, सरकार किसी पर मुकदमा तक नहीं चला सकी.

गृहमंत्रालय की ओर हास्यापद बयान आता है कि कोई स्पेशिफिक जानकारी नहीं थी, लेकिन हमने कहा था कि इस देश में कहीं भी किसी भी वक्त हमला हो सकता है. हमारे गृहमंत्री सिर्फ ये बयान देने के लिए हैं.

देश की बागडोर तीन अर्थशास्त्रियों के हाथ में है फिर भी महंगाई सूरसा की तरह मुंह फैलाये जा रही है. आम आदमी हाथ सहित इस सूरसा के मुंह में समा रहा है.

कांग्रेस कम से कम उस आम आदमी का हाथ भी बचा लेती तो भला होता.

गुजरात और कर्नाटक दोनों ही जगहों पर पार्टी ने मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार पेश नहीं किया. उनकी कहना है कि उनकी पार्टी में इतने उम्मीदवार इस योग्य हैं कि किसी एक को चुनना मुश्किल है, इसलिए चुनाव के बाद आलाकमान इसका चयन करेगा.

पार्टी के प्रति वफादारी की अपेक्षा की जाती है, लेकिन अर्जुन सिंह जैसे कद्दावर नेता को पार्टी में रहने के लिए किसी एक परिवार के प्रति वफादारी कबूल करना पड़ता है.

चुनावों के पहले बड़े-बड़े दावे, लंबे-चौड़े भाषण, खूब लफ्फाजी. चुनाव में करारी हार के बाद आत्ममंथन नहीं करना और धर्म-निरपेक्ष मतों के विभाजन जैसे रटे-रटाये जुमले को दुहराना कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय चरित्र बन गया है.

एक और भाजपा है, जहां आरएसएस की शैली में कार्य करने वाले समर्पित कार्यकर्ता हैं. आनेवाले समय में यदि देश की जनता देश के शासन की बागडोर इसके हाथ में सौंप दें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

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