हिंदी शोध संसार

बुधवार, 9 अप्रैल 2008

चर्चा के केंद्र में हिंदी



चर्चा के केंद्र में हिंदी
इसे साहस कह लीजिए या दुस्साहस. हो दोनों में से कोई, मैं करने जा रहा हूं. मैं एक ऐसा प्राणी हूं, जो किसी एक चीज पर कुछ सप्ताहों तक ध्यान केंद्रित नहीं रख सकता है. बात जुलाई-अगस्त महीने की है. मुझे इंटरनेट का चस्का लगा. देर से ही सही, लग गया. पांच छह घंटे रोजाना तो आम बात है. छुट्टी के दिनों में दस बारह घंटे भी खप जाता है.
सोच रहे होंगे, भूमिका ही बनाओगे या कुछ कहोगे भी. अधीर न बनिेए, साहब कहने के लिए ही भूमिका बना रहा हूं. इतना समय जो मैंने इंटरनेटर पर खपाया, उसमें एक ही चीज ढूंढ पाया. वो है हिंदी के लिए चर्चा, हिंदी के लिए लोगों में जबरदस्त बेचैनी.
कल तक सोचा करता था हिंदी के बारे में सिर्फ मैं सोचता हूं. आज लग रहा है, नहीं, हिंदी के बारे में सोचने वालों की कोई कमी नहीं है. यहां सिर्फ सोचने वालों ही नहीं, करने वालों की भी कमी नहीं है. ये सोचने और करने वाले महज कामगार नहीं हैं, बल्कि तकनीक की शक्ति से लैस हैं और अपनी मातृभाषा को सर्वव्यापी और सर्वनिष्ठ बनाने के लिए काम कर रहे हैं.
सरकारी प्रयासों ने हिंदी को जितना जटिल और दुरग्राह्य बनाया है, ये वरदपुत्र इसे उतनी से सरल बनाने के कार्य में जुटे हैं.
इन बरदपुत्रों में सिर्फ हिंदी भाषी लोग ही नहीं, बल्कि गैर-हिंदी-भाषी लोग भी हैं. वैसे दर्जनों उदारहरण हैं कि गैर-हिंदीभाषियों ने हिंदी के पुनर्रुत्थान में महती भूमिका निभायी है.
आंध्रप्रदेश के शिवशंकर नामक व्यक्ति के पास लगातार बहत्तर घंटे तक हिंदी व्यापक पढ़ाने का विश्वरिकॉर्ड है. हिंदी के पहले प्रोफेसर भी आंघ्ररप्रदेश के ही रहनेवाले थे.
विषय से भटकाव के लिए क्षमा चाहूंगा.
नेटपर इन दिनों चर्चा गरम है- हिंदी अनुवाद के संबंध में. रेल-टिकटों पर एक ही जगह का नाम अलग-अलग तरीके से लिखा मिलता है. कई सज्जनों ने इस संबंध में राय रखी थी कि अंग्रेजी से हिंदी में लिप्यांतरण से ये समस्या आती है. उनका सुझाव था कि हिंदी से अंग्रेजी में लिप्यांतरण किया जाए तो इस तरह की समस्या नहीं आएगी. चूंकि हिंदी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता पर सवाल खड़ा नहीं किया जा सका है. इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि यह जैसी लिखी जाती है वैसी ही बोली भी जाती है.
हिंदी में मानकीकरण पर जोर दिया जाना चाहिए. इसके लिए सरकारी एजेंसियां ही बेहतर है, बशर्ते वह इसका व्यापक प्रचार-प्रसार करे. जहां तक शब्द निर्माण की बात है, केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने बेहतर कार्य किया किया, लेकिन सरकारी स्तर पर जो अनुवाद किए और कराए जा रहे हैं, उससे हिंदी का तो भला कतई नहीं हुआ. अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद दोनों की प्रकृति समझ कर किया जाना चाहिए. हिंदी में सरल और छोटे वाक्य उत्तम माने जाते हैं तो अंग्रजी में जटिल और लंबे वाक्य लिखने की परंपरा है. बेहतर होता कि हिंदी में मौलिक कार्य किए जाएं.
ये निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि सूचना तकनीक और जनसंहार के इस्तेमाल से ही हिंदी का कल्याण हो सकता है. हिंदी खुद को प्रस्तुत करने में कितना सक्षम है, खुद के दम पर रचे चिट्ठा संसार की ऊंचाईयों को देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. आज सिर्फ साहित्य ही नहीं, विज्ञान, तकनीक, व्यवसाय, कानून आदि को विषय बनाकर स्बतंत्र ब्लॉग लिखे जा रहे हैं.
हिँदी के पास आज अपना सर्च-इंजन है, बेहतर टूलबार है, एक से बढ़कर एक पोर्टल आ रहे है, अच्छे-अच्छे समाचार पन्ने हैं.
और तो और हिंदी के पास आज चिट्ठाजगत, हिंदीब्लॉग, अक्षरग्राम है.
समस्याओं के समाधान के लिए एक से बढ़कर एक दिमाग काम कर रहे हैं.
आने वाले समय ये छटपटाहट और बढ़ेगी, समस्याओं के समाधान के लिए और भी कुशल दिमाग काम करेंगे. फिर, दुष्यंत कुमार की तरह कोई क्रांति का राग छेड़ेगा-
मेरे सीने में न सही, तेरे सीने में सही
आग हो लेकिन कही भी आग जलनी चाहिए.
पीड़ा के पर्वत को पिघलाकर गंगा तो पहले ही फूट चुकी है. इस प्रबल प्रवाह को रोकना किसके बस की बात है?

2 टिप्‍पणियां :

  1. bahut badhiya . desh me kai hindi chiththakar hindi bhasha ke prachaar prasaar hetu ulleakhaniy yogadaan de rahe hai or inki sankhya net par badh rahi hai .

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  2. मनोज जी दो महीना तक आपकी गतिविधि ब्लॉग पर से गायब देख कर मैंने सोचा की कहीं ब्लॉग को भूल तो नहीं गए खैर ऐसा नहीं हुआ हिन्दी पर आपकी चिंतन सार्थक है किंतु एक बात कहना चाहूँगा की जैसे जैसे हिन्दी बाज़ार की भासा बनती जायेगी हिन्दी का जल्बा बढ़ता जाएगा . घर कब आ रहें हैं खगरिया में रहने के कारन और वहाँ इंटरनेट की कुपहुंच मुझे ब्लॉग से दूर रखता है फिर भी साप्ताहिक पर्यास जरुर रहता है

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