हिंदी शोध संसार

गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

ढ़ोल-पीपीहावादी स्वागत

आज सुप्रीमकोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में उच्चतर शिक्षण संस्थानों में पिछड़ी जातियों को सत्ताईस फीसदी आरक्षण देने वाले सरकारी कानून पर मोहर लगा दी है. सभी दलों ने ढ़ोल पीपीहे से साथ इस फैसले का स्वागत किया है. खुद को सबसे अलग कहने वाले पार्टी भाजपा ने भी स्वागत किया है. सच है- सांच कहा जग मारन धावे झूठा जग पतियाने. है न साधो ये देश अंजाने. देश में विरोध हो या प्रशंसा दोनों ही, पीपीहावादी ही होते हैं. कुछ समय पहले तक पीपीहावादी विरोध का दौर था. सबने पीपीहा बजाकर परमाणु करार का विरोध किया था और आज प्रशंसा और स्वागत का दौर है. यहां भी पीपीहा बजाकर लोग स्वागत कर रहे हैं. आखिर हम पुंछधारी बंदर से इंसान बन गए हैं तो एक विशेषता तो आना स्वाभाविक है.

सुप्रीमकोर्ट देश की सबसे बड़ी अदालत है. उसेका हरेक फैसला सबको शिरोधार्य होना चाहिए, इसमें किसको कहां गुरेज है. पर पीपीहावादी स्वागत ने तो सबको एक पांत में खड़ा कर दिया. अब जिसके लिए यह सब किया गया, बेचारा वह मतदाता पसोपेश में पड़ जाएगा. सब यही सोचेगा कि यार सबका मुंह तो एक जैसा ही है, किसको वोट डाले किसको नहीं. मिलाजुला कर सबने इसका जुगाड़ कर लिया. अब कांग्रेस को स्वाभाविक परेशानी होगी. सोचेगी, कैबल लगाया मैने और टीवी देखे मेरे पड़ोसी. आखिर उसको ये सब कैसे पचेगा. अब वह जगह जगह रोड शो करेगी- रैली निकालेगी. करोड़ो रुपये पानी की तरह बहाएगी, लोगों को सिर्फ ये बताने के लिए कि भाइयों और बहनों, मेरे उभय मतदाताओं ये जो सामाजिक अन्याय की गुमटी है वो मैंने लगाई है. आप इसे कैसे बर्दास्त करेंगे कि मेरी लगाई गुमटी पर कोई दूसरा आकर पान बेचने लगे.

मेरे उभयचरों, आप तो साफ साफ जानते हैं कि महंगाई के लिए जिम्मेदार केंद्र सरकार कतई नहीं है. इसके लिए राज्यसरकार जिम्मेदार है. जैसा कि नंदीग्राम हिंसा के लिए सीपीएम कतई जिम्मेदार नहीं थी, उसके लिए तो माओवादी नक्सली जिम्मेदार थे.

खैर आप जल में रहे या थल में, आपके लिए तो दोनों ही परिस्थितियां एक जैसी है. आप दोनों ही स्थितियों में खुश रह लेंगे पर मुझे जो सत्ता की परिस्थिति में रहने की आदत पड़ गई है उसके बिन पांच साल तो क्या एक दिन भी अपना गुजारा नहीं होगा.

और इस परिस्थिति के लिए जिम्मेदार कौन हैं- ये पीपीहावादी स्वागताध्यक्ष और थाप देने वाले कार्यकर्ता. अगर ये थोड़ी देर के लिए चुप रह जाते तो इनका क्या बिगड़ जाता. इन्हें कौन सत्ता की परिस्थितियों में जीने की आदत है. लेकिन एकबार चस्का लग चुका है. बेचारे बार-बार चंदन घिसना चाहते हैं.

पीपीहावादियों को डर है कि एक के बाद एक वोट बैंक पर सत्ताधारी पार्टी सेंध लगाए जा रही है. देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है, की बात कहकर प्रधानमंत्री ने अल्पसंख्यकों का अनुग्रह हासिल कर लिया. रही-सही कसर आम बजट में अल्पसंख्यकों के लिए अलग धन के आवंटन की बात कहकर पूरी कर ली. किसानों को मुंगेरीलाल के हसीन सपने दिखाकर सत्ता की किलेबंदी कर ली. सामने थे सरकारी कर्मचारी उनके लिए भी पोटली खोल ली. लो अच्छा-खासा कोरिडोर तैयार हो गया. अब आरक्षण पर मोहर लग जाने से भई अपनी तो बल्ले बल्ले हो गई.

इन सबसे के बीच अछूत बने अगड़ी जाति के लोगों की सुधि लेने वाला कोई नहीं है. यह जाति किसी के चुनावी एजेंडे में नहीं है. इसकी चर्चा कोई नहीं करता. ये किस परिस्थिति में जी रहे हैं इसके लिए कभी कोई सर्वेक्षण नहीं होता. जानने की कोशिश नहीं होती कि आखिर इन्हें भी मदद की जरूरत हो या नहीं. आखिर ऐसा क्यों. वजह साफ है कि ये इतनी नगण्य संख्या और इतना ज्यादा असंगठित है कि यह किसी भी राजनीतिक दल या पार्टी को सत्ता की कुर्सी तक नहीं पहुंचा सकता. फिर इस पर कोई ध्यान दें तो क्यों दे.

जब अल्पसंख्यक समुदाय से आरक्षण की मांग उठती है तो उस पर सरकार के मंत्रियों को कहना पड़ता है कि उनकी आवाज को ज्यादा दिनों तक नहीं दबाया जा सकता. इसमें क्या दो राय हो सकती है कि एक पुख्ता वोट बैंक की आवाज को ज्यादा दिनों तक नहीं दबाया जा सकता है.

देश का विकास और सामाजिक न्याय जातिवादी और धर्मवादी राजनीति से मिलेगा? तो फिर टुकड़ों में देश को क्यों बांटने की साजिश क्यों?

एक छोटी सी बात समझने में इतनी माथापच्ची क्यों कि दुनिया में महज दो जातियां हैं- एक गरीब की और एक अमीर की. गरीब को गरीब रखने की साजिश इसलिए भी रची गई कि इसकी आंच पर राजनीतिक रोटियां आसानी से सेंकी जा सकती है.

कोई टिप्पणी नहीं :

एक टिप्पणी भेजें