हिंदी शोध संसार

सोमवार, 11 फ़रवरी 2008

बहस में

बहस में

KAKESH.COM पर एक आलेख पढ़ा-- बिन अंग्रेजी सब सून. काकेश भाई ने अपने अंग्रेजी अपनाने के कई वजह बताए. मसलन, इस भाषा में किताब नहीं है. वर्तमान परिस्थिति में अंग्रेजी के बिना काम नहीं चल सकता है. हिंदी पढ़ने वाला हीन समझा जाता है और हमेशा गरीब बना रहता है. कुल मिलाकर वे अंग्रेजी को अनिवार्य कर देने के पक्ष में हैं.
बात सोचने की है और सोचने से ज्यादा समझने की है. अंग्रेजी मूल रूप से ब्रिटेन, अमेरिका और आस्ट्रेलिया की भाषा है. दुनिया में बाकी कितने देश हैं, जहां की भाषा अंग्रेजी है? फ्रांस एक ऐसा देश है, जहां के शासनाध्यक्ष अंग्रेजी बोली जाने वाली सभा से उठकर बाहर हो जाते हैं. एक ऐसा देश है, जहां के सेनाकार्यों में तीन शब्द अंग्रेजी का लेने का सवाल आता है, तो नीचे से ऊपर तक बवाल मच जाता है. फांस को अपनी फ्रेंच भाषा पर गर्व है.
बात चीन की करें तो यह दुनिया का सबसे तेजी से विकास करने वाला देश है. यहां एक ही भाषा है मंदारिन. यहां अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या नगण्य है. वहां के अधिकारी अपने साथ दुभाषिये को लेकर चलते हैं. उन्हें शर्म नहीं आती है. पता नहीं, हमें क्यों आती है.
जापान हमसे ज्यादा विकसित है. अपनी भाषा और संस्कृति के बदौलत. उसे अपनी भाषा बोलने में शर्म नहीं आती है.
क्या फ्रांस, चीन और जापान का काम अंग्रेजी के बगैर नहीं चलता है क्या? क्या वे अंग्रेजी के बगैर अपना काम नहीं चलाते. तो फिर हम क्यों नहीं चलाते.
हिब्रू कब की मृतप्राय भाषा बन चुकी थी, लेकिन इसके चाहने वालों ने इसे जिंदा किया. एक हम हैं जो कि संस्कृत का संहार पहले ही कर चुके हैं और कब हिंदी का उपसंहार लिख रहे हैं.
देश की आजादी के समय ही एक बड़ी साजिश के तहत हिंदी को दोयम दर्जा दिया गया. सिर्फ पंद्रह साल की शर्त पर. आजादी के साठ साल बाद भी हम उस दर्जे को ढो रहे हैं.
अपने देश में शासनाध्यक्षों को अपनी भाषा में बोलने में झिझक महसूस होती है. शायद उन्हें लगता है कि हमारा महत्व न घट जाए. या हम अपने को पढ़े-लिखे साबित कैसे करें.
बड़ी दुविधा की स्थिति है, देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, विदेशमंत्री, स्वास्थ्यमंत्री की जुबान से लोग अपने देश की भाषा सुनने के लिए तरस जाय, ऐसे हम हिंदी की चिंता कर रहे हैं.
भला हो, कम्यनिष्टवादियों का जो हिंदी प्रदेश में अपना झंडा बुलंद करने के मकसद से ही सही, हिंदी बोलने तो लगे हैं.
एकबार गृहमंत्रालय की ओर से, कहा गया कि जो कंपनियां अपने उत्पादों को हिंदी में बेचती है, उन्हें हिंदी में अपना कामकाज करना होगा, लेकिन ये शोर शोर में ही दब गया.
लोगों की कमी नहीं है, जो अंग्रेजी को अनिवार्य करना चाहते है, लेकिन एक भी ऐसा सबल व्यक्ति नहीं जो हिंदी को अनिवार्य बनाने के बारे में सोचता हो.

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