हिंदी शोध संसार

बुधवार, 31 अक्तूबर 2007

मो सम दीन न दीन हित, तुम समान रघुवीर।
अस विचार रघुवंश मणि हरहूँ विषम भाव भीर॥
कामी नारी प्यार जिमी लोभी के प्रिये दाम।
तुम रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहिं मोही राम॥

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