यह
लेख सुप्रीमकोर्ट के पूर्व
न्यायमूर्ति और भारतीय प्रेस
परिषद के अध्यक्ष जस्टिस
मार्कंडेय काट्जू के उस अभिभाषण
का अनुवाद है,
जो
उन्होंने 27
नवंबर
2011को
काशी हिंदी विश्वविद्यालय,
वाराणसी
में दिया था।
खगोलशास्त्रप्राचीन भारत में, आर्यभट्ट ने अपनी पुस्तक आर्यभट्टीय में एक गणितीय प्रणाली को प्रस्तुत किया, जिसमें संकल्पना की गई कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है। उन्होंने सूर्य के परिप्रेक्ष्य में ग्रहों की गति के बारे में भी विचार किया (दूसरे शब्दों में, आर्यभट्ट की गणितीय प्रणाली में कॉर्पर्निकस के हेलियोसेंट्रिक सिद्धांत के संकेत थे, हालांकि इस पर विवाद की गुंजाइश है)। दूसरे प्रसिद्ध खगोलशास्त्री थे, ब्रह्मगुप्त, जो उज्जैन के खगोलीय वेधशाला के प्रमुख थे और खगोलशास्र पर एक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी, और भास्कराचार्य भी उज्जैन के वैधशाला के प्रमुख थे, वराहमिहिर ने गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत प्रस्तुत किया जो बताया है कि एक बल है जिसके कारण कोई वस्तु पृथ्वी की ओर आकर्षित होती है और जो आकाशीय पिंडों को अपने निश्चित स्थान पर बना रखता है।
मैं यहां इन महान खगोलशास्त्रियों के सिद्धांतों को विस्तार से प्रस्तुत नहीं करने जा रहा हूँ, लेकिन इतना निश्चयपूर्वक कहूंगा कि हजारों साल पहले भारत के महान खगोलशास्त्रियों द्वारा की गई गणना के आधार पर आज भी सूर्य और चंद्र ग्रहणों के समय और तिथि की भविष्यवाणी की जा सकती है। ये गणनाएं उस समय की गई, जब दूरदर्शी जैसे आधुनिक यंत्र नहीं थे और खुली आंखों से निरीक्षण करना होता था।
चिकित्सा
प्राचीन भारतीय चिकित्सा जगत में सुश्रुत और चरक के नाम सबसे प्रसिद्ध हैं। सुश्रुत शल्य चिकित्सा के जनक माने जाते हैं और उन्होंने मोतियाबिंद की सर्जरी और प्लास्टिक सर्जरी आदि की खोज की, ये आधुनिक सर्जरी की खोज से सदियों पहले हुई थी। सुश्रुत की पुस्तक सुश्रुत संहिता में चिकित्सा और सर्जरी के बारे में विस्तार के बताया गया है, इनमें सर्जरी में प्रयोग होने वाले दर्जनों औजार शामिल है, जिन्हें गूगल में इंटरनेटपर आसानी से ढूंढा जा सकता है। सुश्रुत अच्छे सर्जन माने जाते थे, क्योंकि इन्हें शरीर के आंतरिकी का बहुत अच्छा ज्ञान था। चरक ने आंतरिक चिकित्सा पर चरक संहिता नामक आयुर्वेदिक ग्रंथ की रचना की, जो आधुनिक आयुर्वेदिक चिकित्सा का केंद्र है। चरक संहिता और सुश्रुत संहिता दोनों ही ग्रंथ संस्कृत में लिखे गए, जिन्हें गूगल में इंटरनेट पर विस्तारपूर्वक देखा जा सकता है। यह उल्लेखनीय है कि लंदन साइंस म्यूजियम के प्रथम तल पर चिकित्सा से जुड़ी हैं, जहां चिकित्सा के क्षेत्र में सुश्रुत के यंत्रों सहित प्राचीन भारत की उपलब्धियों का भी जिक्र है।
इससे जाहिर है कि प्राचीन काल में भारत चिकित्सा के क्षेत्र में दुनिया के सभी देशों से काफी आगे था।
अभियांत्रिकी
दक्षिण भारत के तंजौर, त्रिची मंदिरों और खजुराहो और ओडीशा के मंदिर इस बात के गवाह है कि अभियांत्रिकी के क्षेत्र में भी हम काफी आगे थे। कहा जाता है कि छठी शताब्दी में कर्नाटक के ऐहोल में एक संस्थान था जहां संरचनागत मैकेनिक्स का विकास हुआ था। इस संस्थान में विकसित ढालुआं छत का उपयोग केरल, पूर्वी आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु में संरचनाओं को बनाने में हुआ।
यहां
आगे का विषय समझने के लिए थोड़ा
और विषयांतर होना पड़ेगा।
भारतीय
संस्कृति के प्रति अंग्रेज
शासकों का रवैया
भारतीय
संस्कृति के प्रति अंग्रेजी
शासकों के व्यवहार तीन ऐतिहासिक
चरणों से होकर गुजरा। पहला
चरण 1600
ईस्वी
है,
जब
अंग्रेज भारत आए थे और व्यापारी
के रूप में बांबे,
मद्रास
और कलकत्ता में अपनी बस्तियां
बसाई थी। यह चरण 1757
तक
चला जब उन्होंने पलासी की
लड़ाई लड़ी। इस काल में भारतीय
संस्कृति के प्रति अंग्रेजों
का व्यवहार बिल्कुल अगर था
क्योंकि वो व्यापारी के रूप
में भारत पैसा कमाने के लिए
आए थे,
इसलिए
उन्हें भारतीय संस्कृति में
रूचि नहीं थी।
दूसरा
चरण 1757
से
1857
ईस्वी
यानी भारत के प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम,
जिसे
सिपाही विद्रोह भी कहा जाता
है,
तक
चला। पलासी की लड़ाई 1757
में
लड़ी गई और इसके बाद बंगाल की
दीवानी मुगल शासकों ने अंग्रेजों
को दे दी। उस वक्त बंगाल में
बिहार और उड़ीसा भी शामिल था।
पूरा बंगाल अंग्रेजों की
हुकूमत के अंदर आ गया। 1757
से
1857
तक
अंग्रेजों ने भारतीय संस्कृति
को गंभीरता से अध्ययन किया
और कुछ अहम योगदान भी दिया,
खासकर
भारतीय सांस्कृतिक ज्ञान को
पश्चिमी देशों में फैलाने
में।
तीसरा
चरण 1857
के
सिपाही विद्रोह और इसे ब्रिटिश
शासकों द्वारा क्रूरता पूर्वक
कुचलने के बाद से शुरू हुआ।
1857
के
बाद तो अंग्रजों ने निश्चिय
कर लिया कि वो शासन के प्रति
ऐसा विद्रोह दोबारा नहीं होने
देंगे। इसके लिए उन्होंने दो
काम किए-(1)
भारत
में उन्होंने भारतीय सेना
में सैनिकों,
खासकर
अंग्रेजी सैनिकों की संख्या
बढ़ाई,
शस्त्र
भंडारों को यूरोपीय सैनिकों
के हाथों में सौंप दिया। (2)
अंग्रेजों
ने जानबूझकर भारतीय लोगों को
हतोत्साहित और अपमानित करना
शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने
इस तरह का दुष्प्रचार फैलाना
शुरू कर दिया कि अंग्रेजों
के आने से पहले भारतीय लोग
सिर्फ मुर्खों और गुलामों की
प्रजाति के थे। उनकी संस्कृति
मुर्खों और गुलामों की रही
है और भारतीय संस्कृति में
कुछ भी अच्छा नहीं है। ये सब
जानबूझकर किया गया ताकि भारतीय
लोगों को लगने लगे कि वो हीनतर
प्रजाति से हैं और अंग्रेज
उनके स्वामी है। अंग्रेजों
के शासन के तीसरे चरण का नतीजा
है कि हम अपने महान पूर्वजों
के योगदान,
खासकर
विज्ञान के क्षेत्र में योगदान
को भूल गए। दूसरे चरण में तो
अंग्रेजों को भारती संस्कृति
में थोड़ी रुचि थी और उन्होंने
इसका अध्ययन किया।
ऐसे
ही अंग्रेजों में सबसे पहले
नाम आता है सर विलियम जोन्स
का,
जो
1783
में
कलकत्ता सुप्रीमकोर्ट के जज
के रूप में भारत आए। वह बचपन
से ही अत्यंत विलक्षण प्रतिभा
के धनी थे,
जिन्होंने
छोटी उम्र में ही,
ग्रीक,
लैटिन,
पर्सियन,
अरबी,
हिब्रू
जैसी भाषाओं पर एकाधिकार हासिल
कर लिया। उन्होंने ऑक्सफोर्ड
विश्वविद्यालय में पढ़ाई की
और एक वकील बनने के लिहाज से
बार परीक्षा पास की। जब वो
भारत आए तो उन्होंने सुना कि
भारत में भी एक प्राचीन भाषा
संस्कृत है,
इसमें
उनकी रुचि जगी और उन्होंने
इसके अध्ययन का फैसला किया।
नतीजा हुआ कि वो एक शिक्षक की
तलाश में जुट गए। आखिरकार
कलकत्ता के भीड़भाड़ वाले
इलाके में एक धुप्प अंधेरे
कमरे में रहने वाले बंगाली
ब्राह्मण रामलोचन कवि भूषण
उन्हें शिक्षक के रूप में मिल
गए। सर विलियम जोन्स अपने
शिक्षक के पास संस्कृत सीखने
के लिए व्यक्तिगत रूप से जाने
लगे। सर जोन्स ने अपने संस्मरण
में लिखा कि जब उनकी पढ़ाई
पूरी होती तो वो देखते थे कि
उनके शिक्षक रामलोचन उस जगह
की सफाई करते,
जहां
जोन्स बैठते थे,
ऐसा
इसलिए कि रामलोचन उन्हें
मलेच्छ मानते थे। हालाकि सर
जोन्स ने इसे अपना अपमान नहीं
माना और विचार किया कि उन्हें
अपने शिक्षक के रीति-रिवाजों
को मानना चाहिए।
संस्कृत भाषा में दक्षता हासिल करने के बाद सर विलियम जो्स ने कलकता में एशियाटिक सोसायटी की स्थापना की और कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम सहित दूसरे कई संस्कृत ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। उनका ये अनुवाद जर्मनी के महान विद्वान गोथे को बेहद अच्छी लगी और उन्होंने इसकी बेहद प्रशंसा की। सर जोन्स ने साबित किया कि संस्कृत भाषा ग्रीक और लैटिन के बेदह करीब है। वास्तव में संस्कृत लैटिन से ज्यादा ग्रीक के करीब है क्योंकि संस्कृत में तीन वचन होते हैं, एकवचन, द्विवचन और बहुवचन। ग्रीक में भी जैसा ही होता है, जबकि लैटिन में दो वचन ही होते हैं जैसा कि अंग्रेजी, हिंदी और दूसरी कई भाषाओं में।
इस प्रकार सर विलियम जोन्स ने बताया कि संस्कृत, ग्रीक और लैटिन समान भाषा से पैदा हुए हैं और वो भाषा के तुलनात्मक अध्ययन के जनक माने जाने लगे।
दूसरे ब्रिटिश विद्वानों ने भी भारतीय संस्कृति पर शोध किया, यहां सबके बारे में विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इसमें काफी समय लगेगा।
यहां यह उल्लेखनीय है कि भारतीय विद्वानों की महान उपलब्धियों, जिनका जिक्र संस्कृत भाषा में है, से ये पश्चिमी विद्वान हतप्रभ थे।
आधुनिक भारत में विज्ञान की स्थिति-
जैसा कि ऊपर कहा गया है कि एक समय था जब भारत विज्ञान के क्षेत्र में विश्व में अग्रणी था। अरब और चीन के विद्वान छात्र बनकर नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, उज्जैन विश्वविद्यालयों में हमसे सीखने के लिए भारत आते थे, लेकिन बड़ा ही दुखद है कि आज हम आधुनिक विज्ञान में पश्चिमी दुनिया से बहुत ही पीछे हैं। इसमें संदेह नहीं है कि हमारी मातृभूमि ने सीवी रमन, चंद्रशेखर, रामानुजन, सतेंद्रनाथ बोस, जगदीशचंद्र बोस, मेघनाद साहा जैसे महान वैज्ञानिकों और गणितज्ञों को पैदा किया, लेकिन ये बीते जमाने की बात है।
हालांकि ऐसा नहीं है कि हममें वंशानुगत दोष पैदा हो गया है, बल्कि कुछ ऐतिहासिक कारणों के चलते ऐसा हुआ है। वास्तव में कैलिफोर्निया के सिलिकन वैली में भारतीय वैज्ञानिकों का दबदबा है। अमेरिका के ज्यादा विश्वविद्यालयों में विज्ञान और गणित के शिक्षक भारतीय हैं। इसलिए आधुनिक विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में भारत के पिछड़ेपन का कारण वंशानुगत दोष नहीं है, बल्कि कुछ अन्य वजह है। हमारे पास वैज्ञानिक विरासत और ज्ञान की बहुत बड़ी पूंजी है जो आधुनिक युग में विज्ञान के क्षेत्र में झंडा गाड़ने के लिए हमें नैतिक साहस और ताकत दे सकती है।
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