यह
लेख सुप्रीमकोर्ट के पूर्व
न्यायमूर्ति और भारतीय प्रेस
परिषद के अध्यक्ष जस्टिस
मार्कंडेय काट्जू के उस अभिभाषण
का अनुवाद है,
जो
उन्होंने 27
नवंबर
2011को
काशी हिंदी विश्वविद्यालय,
वाराणसी
में दिया था।
हालांकि
दूसरे प्रमाण भी हैं जैसे
अनुमान(हस्तक्षेप),
शब्द(विशेषज्ञ
या अधिकृत व्यक्ति की उक्ति)
आदि।
इसलिए अधिकतर वैज्ञानिक ज्ञान
अनुमान प्रमाण से संबंध रखता
है। उदाहरण के लिए,
रदरफोर्ड
ने अपनी आंखों से परमाणु को
नहीं देखा, लेकिन
अल्फा किरणों( धनात्मक
हिलियम आयन है) विचलन
का अध्ययन कर अनुमान प्रमाण
के आधार निर्णय किया कि परमाणु
के नाभिक में धनात्मक कण हैं,
जिसके
चारों ओर ऋणात्मक इलेक्ट्रॉन
चक्कर लगाता है। ठीक इसी तरह
प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर
ब्लैक होल यानी कृष्ण विवर
को भी जाना नहीं जा सकता
है(क्योंकि
इससे प्रकाश नहीं निकलता),
लेकिन
आकाशीय पिंडों पर अदृष्य
पिंडों के गुरुत्वाकर्षण बल
की मौजूदगी के आधार पर हम ब्लैक
होल या कृष्ण विवर की मौजूदगी
का अनुमान लगाते हैं।
न्याय-मीमांसा के ज्ञान-मीमांसा में तीसरा प्रमाण है शब्द प्रमाण। यह किसी भी खास क्षेत्र में विशेषज्ञ या प्रतिष्ठित या अधिकृत व्यक्ति का वाक्य है। हम इनके प्रमाण को नहीं समझ पाने के बावजूद ऐसे वाक्यों को सत्य मानते हैं, क्योंकि जिसने ऐसा कहा है उसकी उस क्षेत्र में प्रतिष्ठा है।
न्याय-मीमांसा का अगला प्रमाण उपमा है, लेकिन यहां इसके वर्णन की जरूरत नहीं है।
जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि न्याय-दर्शन वैज्ञानिक दृष्टिकोण को प्रस्तुत करता है और यह प्रत्यक्ष प्रमाण पर ज्यादा जोर देता है(हालांकि कभी-कभी ये भी भ्रमपूर्ण या मृग-मारीचिका जैसा हो सकता है) यही आधार विज्ञान का भी है क्योंकि विज्ञान में हम निरीक्षण, परीक्षण और तार्किक व्याख्या पर जोर देते हैं।
ये
भी कहा जा सकता है कि यह जरूरी
नहीं है कि प्रत्यक्ष प्रमाण
हर मामले में सत्य का ज्ञान
दे। उदाहरण के लिए हम देखते
हैं कि सुबह में सूर्य पूर्व
से उदित होता है, दोपहर
में यह हमारे सिर के ऊपर आ जाता
है और शाम में यह पश्चिम में
अस्त हो जाता है। अगर हम सिर्फ
प्रत्यक्ष प्रमाण पर निर्भर
करें तो हमारा निष्कर्ष होगा
कि सूर्य पृथ्वी के चारों ओर
चक्कर लगाता है, हालांकि
महान वैज्ञानिक और खगोलशास्त्री
आर्यभट्ट ने अपनी पुस्तक
आर्यभट्टियम में लिखा है कि
अगर हम माने कि पृथ्वी अपने
अक्ष पर धूम रही है तो ऐसा ही
दृश्यगत प्रभाव उत्पन्न होगा।
दूसरे शब्दों में अगर पृथ्वी
अपने अक्ष पर घूर्णन कर रही
है तो प्रतीत होगा कि सूर्य
पू्र्व उदित होता है और पश्चिम
में अस्त होता है। इसलिए
प्रत्यक्ष प्रमाण के अलावा
हम तर्कबुद्धि का भी इस्तेमाल
करते हैं क्योंकि अकेले निरीक्षण
हमें सत्य ज्ञान की ओर नहीं
ले जाएगा।
यह कहा जा सकता है कि न्याय-दर्शन ने तर्क और विज्ञान के आवश्यक तार्किक चिंतन को अरस्तु और अन्य ग्रीक विचारकों से भी विकसित रूप में प्रस्तुत किया(देखे डीपी चट्टोपाध्यय की पुस्तक)।
इसप्रकार,
प्राचीन
भारत में न्याय दर्शन ने विज्ञान
के विकास को अहम समर्थन और
प्रोत्साहन दिया। यह उल्लेख
किया जा सकता है कि न्याय दर्शन
एक सत दर्शन है यानी भारतीय
दर्शन के छह परंपरागत दर्शनों
में से एक। यह चार्वाक जैसे
गैर-परंपरागत
दर्शन का हिस्सा नहीं है। यही
कारण है कि हमारे महान वैज्ञानिक
परंपरावादियों द्वारा तंग
या परेशान नहीं किए गए क्योंकि
वो कह सकते थे कि वो जो कुछ कर
या कह रहे हैं वो परंपरागत
दर्शन यानी न्याय-दर्शन
पर आधारित है। यह यूरोप के
परंपरावादी चिंतन से बिल्कुल
अलग है, जहां
महान वैज्ञानिक गैलिलियो को
चर्चों द्वारा परेशान किया
गया क्योंकि उनका चिंतन और
काम बाइबिल से अलग था। भारत
के साथ ऐसा हादसा नहीं हुआ,
यहां
की परंपरावादी सोच ही वैज्ञानकि
विचार, तर्क
या तर्क विज्ञान का समर्थन
करती है।प्राचीन
भारत में हर कहीं वाद-विवाद
या शास्रार्थ होते थे,
जिसमें
बड़ी बड़ी सभाओं में विचारों
पर तर्क-वितर्क,
दूसरे
विचारों की आलोचना और विरोध
की अनुमति थी। विचारों और
अभिव्यक्ति की ऐसी स्वतंत्रता
ने विज्ञान के विकास में अहम
योगदान दिया क्योंकि विज्ञान
के लिए स्वतंत्रता,
चिंतन
की स्वतंत्रता,
अभिव्यक्ति
की स्वंतत्रता और असहमति की
स्वतंत्रता की आवश्यकता होती
है। महान वैज्ञानिक चरक ने
अपनी पुस्तक चरक संहिता में
लिखा है कि विज्ञान के विकास
के लिए वाद-विवाद,
खासकर
समान मानसिक स्तर वालों के
बीच वाद-विवाद
या शास्रार्थ परम आवश्यक है।प्राचीन न्याय शास्रों, जिनमें गौतम का न्याय सूत्र में वाद-विदाद के कई तरीकों का वर्णन है जैसे, वद, जल्प, वितंड आदि। गौतम के बाद के न्याय दर्शन के जानकारों ने इसे और परिमार्जित किया।
विज्ञान के प्रगति और विकास को प्रोत्साहित करने वाले दो कारकों के उल्लेख के बाद अब हम अपने महान वैज्ञानिकों द्वारा विज्ञान के विभिन्न विषयों में योगदान की चर्चा करते हैं।
गणित
गणित
के क्षेत्र में प्राचीन विश्व
की सबसे महान और क्रांतिकारी
वैज्ञानिक उपलब्धियों में
दाशमिक प्रणाली का नाम सबसे
ऊपर है। यूरोपीय लोगों द्वारा
दाशमिक अंक प्रणाली को अरबी
अंक प्रणाली नाम दिया गया,
लेकिन
अरबी विद्वान इसे हिंदू अंक
प्रणाली मानते हैं। क्या ये
अरबी अंक प्रणाली है या हिंदू।
इस संदर्भ में यह उल्लेख करना
आवश्यक है कि ऊर्दू,
फारसी
और अरबी भाषाएं दायीं से बायीं
ओर लिखी जाती है,
लेकिन
अगर आप इन भाषायों को बोलने
वाले लोगों से कोई संख्या,
मान
लीजिए 257 लिखने
के लिए कहिए तो इस संख्या को
बायीं से दायीं ओर ही लिखेंगे।
यह दिखाता है कि ये संख्याएं
उस भाषा से ली गई है जो बायीं
से दायीं ओर लिखी जाती है। अब
यह मान्य हो चुका है कि ये
संख्याएं भारत से आई हैं और
अरबों ने हमसे इसका नकल किया
है।
अब
मैं
दाशमिक प्रणाली के क्रांतिकारी
महत्व का जिक्र करूंगा। जैसा
कि हम सभी जानते हैं कि प्राचीन
रोम, जार
और अगस्तस की सभ्यता निस्संदेह
एक महान सभ्यता थी,
मगर
आप अगर किसी प्राचीन रोमन से
एक मिलियन लिखने के लिए कहेंगे
तो वो पागल हो जाएगा,
क्योंकि
एक मिलियन लिखने के लिए उसे
एक मिलेनियम या एक हजार(इसका
प्रतीक M) उसे
एक हजार बार लिखना पड़ेगा।
रोमन अंक प्रणाली में एक हजार
यानी M से
बड़ा अंक नहीं होता है। उसे
दो हजार लिखने के लिए दो बार
MM लिखना
पड़ेगा। तीन हजार लिखने के
लिए तीन बार MMM
लिखना
पड़ेगा। इसी तरह एक मिलियन
यानी दस लाख लिखने के लिए एक
हजार बार M
लिखना
पड़ेगा।
दाशमिक प्रणाली के क्रांतिकारी
महत्व का जिक्र करूंगा। जैसा
कि हम सभी जानते हैं कि प्राचीन
रोम, जार
और अगस्तस की सभ्यता निस्संदेह
एक महान सभ्यता थी,
मगर
आप अगर किसी प्राचीन रोमन से
एक मिलियन लिखने के लिए कहेंगे
तो वो पागल हो जाएगा,
क्योंकि
एक मिलियन लिखने के लिए उसे
एक मिलेनियम या एक हजार(इसका
प्रतीक M) उसे
एक हजार बार लिखना पड़ेगा।
रोमन अंक प्रणाली में एक हजार
यानी M से
बड़ा अंक नहीं होता है। उसे
दो हजार लिखने के लिए दो बार
MM लिखना
पड़ेगा। तीन हजार लिखने के
लिए तीन बार MMM
लिखना
पड़ेगा। इसी तरह एक मिलियन
यानी दस लाख लिखने के लिए एक
हजार बार M
लिखना
पड़ेगा।
दूस
री
ओर, हमारी
दाशमिक प्रणाली में एक एक
मिलियन यानी दस लाख लिखने के
लिए एक के बाद छह शून्य 1000000
ळिखना
पड़ेगा। रोमन अंक प्रणाली
में शून्य नहीं है। शून्य भारत
की खोज है और इसकी खोज के बगैर
प्रगति संभव नहीं है।
री
ओर, हमारी
दाशमिक प्रणाली में एक एक
मिलियन यानी दस लाख लिखने के
लिए एक के बाद छह शून्य 1000000
ळिखना
पड़ेगा। रोमन अंक प्रणाली
में शून्य नहीं है। शून्य भारत
की खोज है और इसकी खोज के बगैर
प्रगति संभव नहीं है।
हम
यहां अपने महान गणितज्ञों
जैसे आर्यभट्ट,
ब्रह्मगुप्त,
भास्कर,
बराहमिहिर
जैसे अनगिनत वैज्ञानिकों के
महान योगदानों की विस्तृत
चर्चा नहीं करने जा रहे हैं,
इनके
बारे में आप गूगल में सर्च कर
सकते हैं। हालांकि इस सिलसिले
में हम यहां सिर्फ दो उदाहरण
देंगे।
भारतीय
दाशमिक प्रणाली में संख्या
1,00,000
एक
लाख कहते हैं। 100
लाख
एक करोड़ कहता है। 100
करोड़
एक अरब,
100 अरब
एक खरब,
100 खरब
एक नील,
100 नील
एक पद्म,
100 पद्म
एक शंख और 100
शंख
एक महाशंख कहलाता है। इस प्रकार
एक महाशंख लिखने के लिए एक पर
उन्नीस शून्य लिखा जाता
है(ज्यादा
जानकारी के लिए गूगल पर मौजूद
वीएस आप्टे की संस्कृत-इंगलिश
डिक्शनरी देख सकते हैं)
दूसरी
ओर,
प्राचीन
रोम के लोग एक हजार से ज्यादा
की संख्या एम को बार-बार
और बहुत बार दुहराए बगैर नहीं
लिख सकते हैं।
एक
दूसरा उदारहण लीजिए,
अग्नि
पुराण के मुताबिक,
कलियुग,
जिसमें
हम रहते हैं,
चार
लाख बत्तीस हजार वर्षों का
का है। इससे पहले का युग द्वापर
कलियुग से दुगुने काल का था,
द्वापर
से पहले का त्रेता युग कलियुग
से तीन गुना और इससे पहले का
सतयुग कलियुग से चार गुना काल
का था। चार युग मिलाकर कुल
तैंतालिस लाख बीस हजार वर्षों
का है। छप्पन चतुर्युग मिलकर
एक मन्वंतर कहलाता है। चौदह
मन्वंतर एक कल्प,
बारह
कल्प एक बह्म कहलाता है। इस
तरह ब्रह्म अरबों और खरबों
वर्ष का होगा।
भारत के परंपरावादी लोग जब प्रतिदिन संकल्प करते हैं तो उन्हें अपने का युग, कलियुग, द्वापर, त्रेता, सतयुग के साथ चतुर्युगी, मन्वंतर, कल्प, बह्म के ठीक वही दिन, महीना, और साल, जिसमें वो रहते हैं का जिक्र करना होता है। ऐसा कहा जाता है कि हम वर्तमान मन्वंतर के 28वें चतुर्युगी में जी रहे हैं। ये भी कहा जाता है कि कल्प का आधा मन्वंतर समाप्त हो चुका है, जबकि आधा मन्वंतर बाकी है। इस समय हम वैवश्वत मन्वंतर में जी रहे हैं।
भले ही कोई हमारी व्यवस्था में विश्वास नहीं करे, लेकिन हमारे पूर्वजों की संकल्पना की उड़ानों से आश्चर्यचकित हुए बगैर नहीं रह सकता है, जिन्होंने इतिहास के अरबों और खरबों वर्षों की कल्पना की।
आ
र्यभट्ट
ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक
आर्यभट्टियम में बीजगणित,
अंकगणित,
त्रिकोणमिति,
द्विघात
समीकरण और साइन तालिका के बारे
में लिखा। उन्होंने पाई का
मान 3.1416 ज्ञात
किया जो पाई के वास्तविक मान
के अत्यंत निकट है। आर्यभट्ट
के कार्यों को पहले ग्रीक और
बाद में अरबों ने ग्रहण किया।
हम यहां ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, वराहमिहिर के योगदानों की चर्चा नहीं करेंगे, क्योंकि इसमें काफी समय लग जाएगा।
आगे हम खगोलशास्त्र के बारे में चर्चा करेंगे...
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