यह
लेख सुप्रीमकोर्ट के पूर्व
न्यायमूर्ति और भारतीय प्रेस
परिषद के अध्यक्ष जस्टिस
मार्कंडेय काट्जू के उस अभिभाषण
का अनुवाद है,
जो
उन्होंने 27
नवंबर
2011को
काशी हिंदी विश्वविद्यालय,
वाराणसी
में दिया था।
यहां
मैं थोड़ा और विषयांतर होना
चाहूंगा और वेद का अर्थ बताऊंगा,
यहां पाणिनी को समझने
के लिए ये विषयांतर जरूरी है।
वेद या
श्रुति के चार अंग हैं-
- संहिता या मंत्र- इसके अंतर्गत चार ग्रंथ ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं। संहिता का मतलब संग्रह है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि ऋग्वेद स्तुतियों का संग्रह है। ऋग्वेद ही प्रधान वेद है। इसकी रचना पद्य श्लोकों में हुई है, जिसे ऋचाएं कहा जाता है। सामवेद के दो-तिहाई ऋचाएं ऋग्वेद से ली गई हैं और ये संगीत का समुच्चय है। कुछ लोगों का मानना है कि अथर्ववेद को संहिताओं में बाद में शामिल किया गया और पहले ऋग्वेद, युजुर्वेद और सामवेद मिलकर वेद-त्रयी कहलाते थे।
- ब्राह्मण- ये ग्रंथ गद्य हैं, जिनमें यज्ञ करने की विधियों का वर्णन है। प्रत्येक ब्राह्मण कुछ संहिताओं से जुड़ा हुआ है। ऐत्रेय ब्राह्मण और कौशितेकी ब्राह्मण ऋग्वेद से, तांड्य ब्राह्मण सामवेद से, शतपथ ब्राह्मण और गोपथ ब्राह्मण यजुर्वेद से जुड़ा हुआ है। जैसा कि पहले कहा गया है कि ब्राह्मण ग्रंथ गद्य है, जबकि संहिता पद्य हैं।
- अरण्यक- ये वन्य पुस्तके हैं, जिसमें दार्शनिक विचारों का खजाना छुपा हुआ है, हालांकि ये विचार अविकसित रूप में ही हैं।
- उपनिषद- इन्हें दार्शनिक चिंतन का विकसित स्वरूप माना जाता है।
संहिता,
ब्राह्मण, अरण्यक
और उपनिषदों के समग्र रूप से
वेद या श्रुति कहा जाता है।
ब्राह्मण
ग्रंथों की रचना संहिताओं के
बाद हुई और इसकी भाषा संहिताओं
के कुछ अलग है, क्योंकि
समयांतर में संस्कृत भाषा
में बदलाव आया। इसी तरह अरण्यक,
ब्राह्मण ग्रंथों
के बाद लिखे गए लिहाजा इसकी
भाषा ब्राह्मण ग्रंथों से
अलग है। इसी तरह उपनिषदों की
भाषा संहिताओं की भाषा से काफी
अलग है। उपनिषद की भाषा पाणिनी
की संस्कृत के काफी करीब है।
पाणिनी
ने जब अष्टाध्यायी की रचना
की, इसके बाद संपूर्ण
पुरा-वैदिक साहित्य
पाणिनी के व्याकरण के अनुसार
लिखा जाने लगा, यहां
तक की बहुत से पहले के ग्रंथों
को भी पाणिनी की संस्कृत के
अनुरूप बनाया गया।
वैदिक
साहित्य संपूर्ण संस्कृत
साहित्य का मात्र एक प्रतिशत
है और निन्यानबे प्रतिशत
संस्कृत साहित्य गैर-वैदिक
है। उदाहरण के लिए, अतिसम्मानीय
ग्रंथ रामायण, महाभारत,
पुराण और कालिदास
की रचनाएं वैदिक साहित्य के
अंग नहीं हैं। कुछ शब्दों और
संप्रेषणों को छोड़ दें तो
आज के सभी गैर-वैदिक
साहित्य पाणिनी के व्याकरण
के अनुरूप हैं। अपवाद स्वरूप
बचे अपभ्रंश साहित्य पाणिनी
के व्याकरण के अनुरूप नहीं
है, इसलिए उन्हें
छोड़ दिया गया।
उदाहरण
के लिए महाभारत का कुछ हिस्सा
पाणिनी से पहले लिखा गया क्योंकि
अष्टाध्यायी में पाणिनी ने
महाभारत का उल्लेख किया।
पाणिनी से पहले लिखे गए महाभारत
के अंशों को भी पाणिनी के
व्याकरण के अनुकूल बनाया गया।
हालांकि
ऋग्वेद की भाषा में किसी तरह
के बदलाव या पाणिनी के व्याकरण
के मुताबिक बनाने की अनुमति
नहीं थी। पाणिनी या कोई और
ऋग्वेद को नहीं छू सके,
क्योंकि वेद
को अपौरूषेय यानी अत्यंत
पवित्र माना जाता है और इसकी
भाषा में किसी तरह के बदलाव
की अनुमति नहीं थी। दरअसल,
शायद ईसापूर्व
2000 ईस्वी
में जब ऋग्वेद की रचना हुई तब
से इसे कभी नहीं लिखा गया और
इसे गुरू
से शिष्यों तक मौखिक रूप से
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
आगे बढ़ाया जाता रहा।
इसलिए
वैदिक साहित्य पाणिनी के
व्याकरण के अनुसार नहीं है।
हालांकि शेष 99 प्रतिशत
गैर-वैदिक
संस्कृत साहित्य पाणिनी के
व्याकरण के अनुरूप ही है,
जिनमें
महान वैज्ञानिक कृतियां भी
शामिल हैं। ऐसा मानक बनाने
या एकरूपता कायम करने के लिए
किया गया। इस भाषा को इस तरह
से सुसंगठित किया गया कि विद्वान
अपने विचारों को अत्यंत स्पष्टता
के साथ अभिव्यक्त और संचरित
कर सकें। यह विज्ञान के विकास
के लिए परम आवश्यक था।
इसमें
कोई संदेह नहीं है कि बोलियां
काफी महत्वपूर्ण होती हैं
लेकिन बोलियां हर पचास से सौ
किलोमीटर में बदल जाती है और
उनमें कोई एकरूपता नहीं होती
है। एक लिखित भाषा जैसे शास्त्रीय
संस्कृत में, विद्वान
अपने विचार को दूसरे विद्वानों
के साथ अत्यंत संक्षेप और
स्पष्टता से अभिव्यक्त और
संचरित कर सकते हैं,
जो
कि विज्ञान के विकास के लिए
परम आवश्यक है और यह पाणिनी
की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
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