हिंदी शोध संसार

सोमवार, 23 जनवरी 2012

परंपरागत ज्ञान का भंडार- अब पहुंच रहा है सबके द्वार


प्रकाश के महत्व का अहसास तब होता है तब हम अंधेरे में होते हैं। हमारे लिए हल्दी, नीम, धनिया, पुदीना, अश्वगंधा, कालमेघ, ब्राह्मी, वासा, अशोक, भृंगराज, जायफल, दालचीनी, अश्वगंधा, मेथी, प्याज, कमल, तरबूजे, घृतकुंवारी, जीरा, अदरक, लहसून, बबूल, कढी पत्ता, दूधिया, तुलसी, तेजपत्र, तिल, दही, दूब, अरबा चावल का महत्व भले ही ना हों(क्योंकि हमें पश्चिमी ब्रांड लुभाता है, ललचाता है, हम किसी अच्छे ब्रांड की खोज कर नहीं सकते), अगर महत्व भी है तो थोड़ा बहुत। क्योंकि दादी- मां-बुआ-दीदी जाने-अनजाने सब्जी, सांभर, दाल, सलाद, ठंडई, लस्सी, लड्डू, चूरमा आदि में डालकर हम तक पहुंचा देती हैं। मगर, इतनी गुणवत्ता, अच्छाई, औषधीय गुण, इनकी निरापदता, इनकी प्राकृतिक उपलब्धता दुनियाभर के लोगों को आश्चर्य में डाल रही हैं, सिर्फ इसलिए वो इनके गुणों की खोज में दिनरात एक किए हुए हैं, इनके औषधीय गुणों की खोज के लिए अरबों खरबों डॉलर शोध कार्यों पर खर्च कर रहे हैं। स्वाभाविक है कि जब वो इतना खर्च करते हैं, इनपर इतनी मेहनत करते हैं तो इसका व्यावसायिक फायदा भी उठाना चाहेंगे।

हम जीवन में खुशहाली भरने वाले इन घरेलू उपयोग की औषधियों से अंजान हैं और इस हमारे इस अनजानेपन का फायदा विदेशी कंपनियां उठा रही हैं। वो इन औषधियों को पेटेंट कराकर अरबों-खरबों कमा रही हैं। हम पर हुकूमत कर रही हैं। करे भी तो क्यों नहीं, वो उस लायक हैं। उन्होंने खुद को इस लायक बनाया है। और एक हम हैं कि इन स्वदेशी चीजों, स्वदेशी सूत्रों, स्वदेशी मूल्यों को पहचान नहीं रहे हैं।

जब हम स्वदेशी की बात करते हैं तो कई लोगों की त्योरियां चढ़ जाती है। वो हमें कूप मंडूक समझने लगते हैं। स्वदेशी का मतलब सिर्फ इस बात से है कि जो चीज हम नहीं बना सकते हैं, अगर उनका कोई विक्लप हमारे पास मौजूद नहीं हो तो हम उनका आयात करें, काफी पैसा खर्च करके भी। मगर, जो चीजें, जो तकनीक हमारे पास है हम उसका आयात क्यों करें। क्यों नहीं हम अपनी तकनीक, अपने ज्ञान को बढ़ावा दें, नई तकनीक की खोज करें, शोध कार्यों पर खूब खर्च करें। हम अपने को आईटी हब घोषित करने पर कितना ही गर्व क्यों न करें। मगर सच्चाई है कि चीन के मुकाबले आईटी के क्षेत्र में हमारा शोध कार्य दसवां हिस्सा भी नहीं है। अगर चीन विश्वशक्ति होने की बात करता है तो ये उस अभिमान नहीं है, मगर हम विश्वशक्ति या सुपर पावर बनने की बात करें तो हमारा दंभ है।

विषयांतर होने के लिए क्षमा करेंगे। तो हम बात कर रहे थे, स्वदेशी औषधियों की, जिसे विदेशी कंपनियां पेटेंट कराने में जुटी हैं। इन औषघियों में छिपे औषधीय गुणों की खोज में वो लगातार जुटी हुई हैं और हम इसकी महत्ता स्वीकारने तक के लिए तैयार नहीं हैं। जब तक हम इसके महत्व को नहीं समझेंगे हम इसपर शोध कर ही नहीं सकते। छोड़िए शोध की बात। हम कहां फंसते जा रहे हैं। सदियों की गुलामी ने हमें मानसिक स्तर पर गुलाम बना दिया है। हम पूरी तरह नकली हो गए हैं। मगर शोध, अध्ययन, खोज, नवीनता की बात सोच भी नहीं सकते। अपने मूल्यों, अपनी परंपराओं, अपनी मान्यताओं पर स्वाभिमान के बजाय हमें इनपर शर्म आती है। शोध करने के लिए ना हमारे पर समय है और ना ही संसाधन। इसकी मानसिकता और इसके लिए धैर्य की परंपरा तो हम कब का खो चुके हैं।

मगर, देश में अब भी कुछ लोग हैं जिन्हें अपने परंपरागत ग्यान पर गर्व है। वो न सिर्फ इसे बचाना चाहते हैं, बल्कि इसे बचाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लंबी लड़ाई लड़ने से भी बाज नहीं आते। ऐसे ही कुछ लोगों के प्रयास से हमारा परंपरागत ग्यान विदेशी कंपनियों के व्यावसायिक चंगुल से बच सका।

डॉ रघुनाथ अनंत माशेलकर जिन्होंने, हल्दी (अमेरिकी पेटेंट संख्या-USP 5,401,5041)और बासमती चावल (USP 5,663,484) को अमेरिकी पेटेंट के चंगुल से मुक्त कराने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी और इसे मुक्त भी कराया, ने परंपरागत ग्यान को औद्योगिक ग्यान के समतुल्य माना।

डॉ माशेलकर ने जब हल्दी को अमेरिकी पटेंट मिलने की बात सुनी तो उनकी प्रतिक्रिया आम भारतीयों जैसी नहीं थी। उन्होंने अपने बचपन के दिनों को याद किया। जब उनकी मां ने एक घायल पक्षी को हल्दी का लेप लगाकर उड़ा दिया। डॉ माशेलकर ने सोचा अगर हल्दी में घाव को ठीक करने का औषधीय गुण नहीं होता तो घायल पक्षी ठीक होकर कैसे उड़ जाती। इसी बात ने उस अमेरिकी पटेंट के प्रति उनकी सोच को एक लंबी लड़ाई में बदल दी।

ये लड़ाई इतनी आसान नहीं थी। आप किसी बड़ी अमेरिकी कंपनी से खिलाफ अमेरिका के ही पेटेंट कार्यालय में लडेंगे, इसकी हिम्मत भी जुटा पाना अपने आप में एक बड़ी बात है। फिर इस बात को साबित करना कि हल्दी में औषधीय गुण है और इसे आप सदियों से जानते हैं और इसका प्रमाण प्रस्तुत कर उस अमेरिकी कंपनी को मात देना सूई से छेद से हाथी गुजरने जैसा है। मगर, हिम्मत--मर्द, मदद--खुदा। यानी ईश्वर उसी की मदद करता है जो अपनी मदद खुद करता है। डॉ माशेलकर की टीम ने ये लड़ाई सालों तक लड़ी और हल्दी और बासमती को अमेरिकी पेटेंट से मुक्त कराया।

उस समय एक-एक पेटेंट को मुक्त कराने के लिए औसतन सात से आठ सालों तक लड़ाई लड़नी पड़ती थी। ऐसे में में जरूरत थी- उपलब्ध प्रामाणिक सामग्रियों के एक समग्र दस्तावेजीकरण की। इस दिशा में प्रयास शुरू हुई और विकसित हुई-टीकेडीएल यानी ट्रैडिशनल नॉलेज डिजीटल लाइब्रेरी यानी परंपरागत ग्यान डिजीटल पुस्तकालय।

जैसा कि नाम से ही अस्पष्ट है। यह पुस्तकालय हमारे परंपरागत ग्यान का पुस्तकालय है। हमारे ग्यान की परंपरा हजारों साल पुरानी है। जब दुनिया के ज्यादातर देश में सभ्यता की नींव भी नहीं पड़ी थी, वहां के लोग अग्यान के अंधकार में भटक रहे थे। उस समय भारत में ग्यान की परंपरा अपने स्वर्ण काल में थी। ग्यान की वो परंपरा चर्मोत्कर्ष पर थी। हमारे यहां भगवान धन्वंतरी, आचार्य चरक, सुश्रुत, वरामिहिर, आचार्य जीवक, चाणक्य, बह्मगुप्त, नागार्जुन, आर्यभट्ट जैसे आचार्यों की एक महान परंपरा रही है। दुर्भाग्यवश, कुछ सौ सालों के विदेशी शासन ने हमें एकबार के लिए अंधकारयुग में धकेल दिया और इस समय पश्चिमी दुनिया के देशों ने औद्योगिक क्रांति देखी और हम पर उन्होंने बढ़त बना ली।

आजादी के बाद एक मौका था, उस अंधकारयुग से निकलने का। लेकिन दुर्भाग्यवश हम नवोदित पश्चिमी विकास परंपरा को विकास और ग्यान का अंतिम आधार मान लिया। हमने परंपरागत ग्यान को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया। हमने ग्यान की उस महान परंपरागत को न समझने की कोशिश की और ना उसे आगे बढ़ाने। नतीजा विकास और ग्यान का नये मानदंड गढ़ने वालों ने हमारी उस महान परंपरा को एक एक कर अपने नाम पटेंट कराना शुरू कर दिया। नीम, बासमती, गोमूत्र, हल्दी, लहसून, गुलाब, दालचीनी.. एक के बाद एक पटेंटे कराए जाने लगे। जो चीज हमारी थी, पर उस दूसरे लोगों ने कब्जा करना शुरू कर दिया।

ऐसे संक्रमणकाल में डॉ माशेलकर जैसे विभूतियों ने ग्यान के उस अद्भुत भंडार को बचाने का बीड़ा उठाया। डॉ माशेलकर ने परंपरागत ग्यान को औद्योगिक ग्यान का समानांतर और उसी के बराबर बताया।

टीकेडीएल- यानी परंपरागत ग्यान डिजीटल लाइब्रेरी के जरिए उस महान ग्यान परंपरा के एक अंश को सुरक्षित करने की कोशिश हुई। यह लाइब्रेरी- पांच भाषाओं(दुर्भाग्यवश- इनमें हिंदी शामिल नहीं है) यथा- अंग्रेजी, डच, जापानी, फ्रेंच भाषा में उपलब्ध है। यह लाइब्रेरी करीब साढ़े तीन करोड़ पृष्ठों का है। इसमें भारतीय औधषीय प्रणाली आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध चिकित्सा प्रणाली में प्रयुक्त औषधीय पौधों और योगों का कोष तैयार किया। डीकेडील की शुरुआत २००१ में वैग्यानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद यानी सीएसआईआर और आयुष(आयुर्वेद, योग, प्राकृत, युनानी, सिद्ध और होम्योपैथी विभाग) और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार के तत्वाधान में हुई। इस कोष का उद्देश्य परंपराग ग्यान को बायो-पाइरेसी और अनैतिक पेटेंट से बचाना है। साथ ही, ग्यान को इलेक्ट्रॉनिक रूप से दस्तावेजीकरण और वर्गीकरण है। ये लाइब्रेरी आधुनिक शोध के लिए भी उपयोगी है।

वर्ष २०१० तक इसमें १४८ किताबों को इलेक्टॉनिक रूप से अंग्रेजी, स्पेनिश, जापानी, फ्रेंच, जर्मन में दस्तावेजीकृत किया जा चुका है। इसमें अस्सी हजार आयुर्वेदिक, दस लाख यूनानी, बारह हजार सिद्ध योगों को शामिल किया जा चुका है। साथ ही, इसने यूरोपीय पेटेंट ऑफिस, ब्रिटानी ट्रेडमार्क एवं पेटेंट ऑफिस, अमेरिकी पेटेंट ऑफिस से समझौता कर रखा है कि वो बायो-पाइरेसी से बचाने के लिए पेटेंट देने से पहले डाटा बेस की जांच कर लें। २००६ में पेटेंट इन ऑफिसों को इस शर्त पर टीकेडीएल की पहुंच दी गई, कि वो इस जानकारी को किसी के सामने उद्घाटित नहीं करेंगे और परंपरागत ग्यान को अवैध तरीके से पटेंट कराए जाने से रोका जा सकेगा।

एक अन्य प्रयास के तहत योग के १५०० आसनों का इलेक्ट्रॉनिक डाटाबेस बनाने की परियोजना २००८ में शुरू हुई। वो इन आसनों के अवैध पटेंट कराए जाने के लिए प्रत्युत्तर में। २००७ करीब १३१ आसनों के पेटेंट अकेले अमेरिका में कराए जा चुके थे। इस पर संसद में हंगामे के बाद भारत ने ये मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाया। योग शिक्षकों, अधिकारियों और वैग्यानिकों की मदद से सीएसआईआर ने करीब पैंतीस ग्रंथों के आधार पर २००९ में १५०० आसनों का डाटाबेस तैयार किया।

इतने वृहत कार्य को करने में मात्र सात करोड़ रुपये खर्च हुए। ये महज एक शुरुआत थी। आगे क्या करना है, इसपर भी नीति-निर्माताओं को सोचने की जरूरत है।



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