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गुरुवार, 19 जनवरी 2012

अंदर का आदमी, बाहर का आदमी- संदर्भ गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति

बात ज्यादा पुरानी नहीं है। बसपा से निष्कासित भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे बाबू सिंह कुशवाहा को भाजपा ने बड़ी ही बेशर्मी से पार्टी में शामिल कर लिया। वही, भाजपा-
  • जिसके एक मुख्यमंत्री ने उत्तराखंड में एक ऐसा लोकायुक्त कानून बनाया जिसकी प्रशंसा टीम अन्ना तक ने की।
  • जिसके एक मुख्यमंत्री को भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल की हवा खानी पड़ी।
  • जिसके अध्यक्ष ने टीम अन्ना को लोकपाल के मुद्दे पर समर्थन देने की चिट्ठी दे डाली। उसी भाजपा ने ऐसी बेशर्मी कर दी। बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में शामिल कर लिया। पार्टी आलाकमान के इस फैसले के विरोध में पार्टी के कई बड़े छोटे नेताओं ने विरोध का झंडा थाम लिया। गोरखपुर सांसद आदित्यनाथ और उमा भारती ने तो उत्तरप्रदेश में पार्टी के लिए चुनाव प्रचार नहीं करने का ऐलान कर दिया। तो वहीं, मेनका गांधी सहित कई नेता ने आलाकमान के फैसले की आलोचना शुरू कर दी। इस विरोध के चलते आलाकमान को अपना फैसला वापस लेना पड़ा और पार्टी में कुशवाहा की सदस्यता स्थगित करनी पड़ी। आखिर भाजपा आलाकमान ने ऐसा फैसला क्यों लिया, जिसके लिए उसे अपनी पार्टी के अंदर ही विरोध झेलना पड़ा हो। ऐसा नहीं है कि भाजपा आलाकमान ने बिना-सोचे समझे इतना बड़ा फैसला ले लिया हो।
  • युद्ध का नाम भले ही धर्मयुद्ध हो, मगर युद्ध धर्मयुद्ध नहीं होता। युद्ध में जीत ही एकमात्र लक्ष्य होता हो, चाहे उसके लिए कितना ही पाप क्यों ना करना पड़े। जहां एक ओर, अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए अल्पसंख्यक आरक्षण का ब्रह्मास्र हो तो दूसरी ओर वाला दामन में थोड़ा दाग लगाने से गूरेज कोई कैसे करेगा।
    सो भाजपा ने एक बड़ा वोट बैंक अपने हिस्से में करने के लोभ से कुशवाहा को अपनी पार्टी का हिस्सा बना लिया। मगर, सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस में कोई एक नेता सोनिया और राहुल का विरोध कर सकता है। क्या किसी में ऐसा करने की हिम्मत है। शायद नहीं। कांग्रेस के अंदर क्या, कांग्रेस के बाहर भी बहुत कम लोगों में सोनिया और राहुल का विरोध करने की हिम्मत है।
  • बीसी खंडूरी जैसे कितने लोग हैं जो रेलखंड का उद्घाटन सोनिया से कराने के विरोध में राष्ट्रपति से शिकायत कर सकते हैं।
  • किसे सीबीआई का डंडा सहने की शक्ति है- ना तो लालू में ना रामविलास में, ना मायावती में और ना ही मुलायम में।
  • अकेली ममता बनर्जी ने केंद्र सरकार के चार अहम फैसले के खिलाफ खड़ा होने की हिम्मत दिखा दी, शायद इसलिए कि ममता को सीबीआई का डर नहीं है और पश्चिम बंगाल में उनको कांग्रेस का डर भी नहीं है।
  • लेख के मुख्य विषय पर तो अभी आए भी नहीं, भूमिका बहुत बड़ी हो गयी। मगर इस बड़ी भूमिका का संबंध गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति से है।
  • एक केंद्र सरकार है जिसे लोकपाल बनाने में बाहरी(शायद विदेशी?) लोगों का हस्तक्षेप नहीं चाहिए। चार-पांच तेज, तर्रार शातिर टाइप के मंत्री मिलकर एक डिब्बा टाइप अपंग लोकपाल बनाकर उसे संवैधानिक का दर्जा दिला देगी(जनता से कह देगी कि भ्रष्टाचार से केवल वही लड़ सकती है- राहुल करेंगे- लोकपाल को संवैधानिक दर्जा दिलाना राहुल का नहीं, इस देश के हर युवा का सपना है)
  • राहुल ने ये कैसे सोच लिया, कि देश के युवा का सपना इतना अपंग, इतना निर्बल, इतना कमजोर है- जो ऊपर बैठे कुछ लोगों के हाथों की कठपुतली हो।
  • देश के युवाओं का सपना मंत्रियों नेताओं, अफसरों को भ्रष्टाचार करने की खुली छूट देता हो और कमजोर, असहाय और न्याय के लिए लड़ने वालों की नींद हराम करता हो।
  • केंद्र को अपने ऊपर नजर रखने वाले कानून बनाने के लिए बाहरी आदमी का हस्तक्षेप नहीं चाहिए-- लेकिन राज्यों एक बाहरी आदमी(राज्यपाल- यानी केंद्र का एजेंट) हरवक्त राज्य सरकारों की नींद उड़ाने के लिए चाहिए जो राज्य सरकारों के अधिकारों में हस्तक्षेप करे।
  • वैसे लंबे समय से राज्यों में राज्यपालों की भूमिका केंद्र के एजेंट की रही है, जो विरोधी पार्टी की सरकारों को अस्थिर करने में जुटी रहते हैं। मगर, गुजरात में लोकायुक्त की नियुक्ति जिस तरह से हुई है, उसने राज्यपाल की भूमिका पर कई सवाल खड़े किए हैं।
  • गुजरात हाईकोर्ट ने भले ही लोकायुक्त की नियुक्ति को वैध करार दिए हों, लेकिन कई राज्यों के राज्यपालों ने(इनमें कर्नाटक के राज्यपाल, पूर्व कानून मंत्री और सोनिया गांधी के भक्त एच आर भारद्वाज यानी हंसराज भारद्वाज भी शामिल हैं) जिन्होंने साफ साफ कहा है कि राज्यपालों की शक्ति सीमित है क्योंकि वह मुख्यमंत्रियों की तरह चुना हुआ प्रतिनिधि नहीं होता है, इसलिए लोकायुक्त की नियुक्ति जैसे अहम मुद्दे पर उसे मुख्यमंत्री से जरूर राय-मशविरा लेना चाहिए। मगर, गुजरात की राज्यपाल ने ऐसा नहीं किया।
  • सुप्रीमकोर्ट के कई वकीलों ने भी कहा है कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, राज्यपाल को ऐसे अहम मामलों में मुख्यमंत्री से रायमशविरा करना चाहिए।
  • फिलहाल मामला सुप्रीमकोर्ट पहुंच गया है। गुजरात हाईकोर्ट ने मामले को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी है।

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