हिंदी शोध संसार

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

हिन्दी का ताबूत



हिन्दी के ताबूत में हिन्दी के ही लोगों ने हिन्दी के ही नाम पर अब तक की सबसे बड़ी सरकारी कील ठोंक दी है। हिन्दी पखवाड़े के अंत में, 26 सितंबर 2011 को तत्कालीन राजभाषा सचिव वीणा ने अपनी सेवानिवृत्ति से चार दिन पहले एक परिपत्र (सर्कुलर) जारी कर के हिन्दी की हत्या की मुहिम की आधिकारिक घोषणा कर दी है। यह हिन्दी को सहज और सुगम बनाने के नाम पर किया गया है। परिपत्र कहता है कि सरकारी कामकाज की हिन्दी बहुत कठिन और दुरूह हो गई है। इसलिए उसमें अंग्रेजी के प्रचलित और लोकप्रिय शब्दों को डाल कर सरल करना बहुत जरूरी है। इस महान फैसले के समर्थन में वीणा जी ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली केन्द्रीय हिन्दी समिति से लेकर गृहराज्य मंत्री की मंत्रालयी बैठकों और राजभाषा विभाग द्वारा समय समय पर जारी निर्देशों का सहारा लिया है। यह परिपत्र केन्द्र सरकार के सारे कार्यालयों, निगमों को भेजा गया है इसे अमल में लाने के लिए। यानी कुछ दिनों में हम सरकारी दफ्तरों, कामकाज, पत्राचार की भाषा में इसका प्रभाव देखना शुरु कर देंगे। शायद केन्द्रीय मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों के उनके सहायकों और राजभाषा अधिकारियों द्वारा लिखे जाने वाले सरकारी भाषणों में भी हमें यह नई सहज, सरल हिन्दी सुनाई पड़ने लगेगी। फिर यह पाठ्यपुस्तकों में, दूसरी पुस्तकों में, अखबारों, पत्रिकाओं में और कुछ साहित्यिक रचनाओं में भी दिखने लगेगी।


सारे अंग्रेजी अखबारों ने इस हिन्दी को हिन्ग्लिश कहा है। वीणा उपाध्याय के पत्र में इस शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। उसमें इसे हिन्दी को सुबोध और सुगम बनाना कहा गया है। अंग्रेजी और कई हिन्दी अखबारों ने इस ऐतिहासिक पहल का बड़ा स्वागत किया है। इसे शुद्ध, संस्कृतनिष्ठ, कठिन शब्दों की कैद से हिन्दी की मुक्ति कहा है। तो कैसी है यह नई आजाद सरकारी हिन्दी ? यह ऐसी हिन्दी है जिसमें छात्र, विद्यार्थी, प्रधानाचार्य, विद्यालय, विश्वविद्यालय, यंत्र, अनुच्छेद, मध्यान्ह भोजन, व्यंजन, भंडार, प्रकल्प, चेतना, नियमित, परिसर, छात्रवृत्ति, उच्च शिक्षा जैसे शब्द सरकारी कामकाज की हिन्दी से बाहर कर दिए गए हैं क्योंकि ये राजभाषा विभाग को कठिन और अगम लगते हैं। यह केवल उदाहरण है। परिपत्र में हिन्दी और भारतीय भाषाओं में प्रचलित हो गए अंग्रेजी, अरबी, फारसी और तुर्की शब्दों की बाकायदा सूची दी गई है जैसे टिकट, सिग्नल, स्टेशन, रेल, अदालत, कानून, फौज वगैरह।


परिपत्र ने अपनी नई समझ के आधार के रूप में किन्ही अनाम हिन्दी पत्रिकाओं में आज कल प्रचलित हिन्दी व्यवहार के कई नमूने भी उद्धृत किए हैं। उन्हें कहा है - हिंदी भाषा की आधुनिक शैली के कुछ उदाहरण। इनमें शामिल हैं प्रोजेक्ट, अवेयरनेस, कैम्पस, एरिया, कालेज, रेगुलर, स्टूडेन्ट, प्रोफेशनल सिंगिंग, इंटरनेशनल बिजनेस, स्ट्रीम, कोर्स, एप्लाई, हायर एजूकेशन, प्रतिभाशाली भारतीय स्टूडेन्ट्स वगैरह। तो ये हैं नई सरकारी हिन्दी की आदर्श आधुनिक शैली।


परिपत्र अपनी वैचारिक भूमिका भी साफ करता है। वह कहता है कि “किसी भी भाषा के दो रूप होते हैं – साहित्यिक और कामकाज की भाषा। कामकाज की भाषा में साहित्यिक शब्दों के इस्तेमाल से उस भाषा की ओर आम आदमी का रुझान कम हो जाता है और उसके प्रति मानसिक विरोध बढ़ता है। इसलिए हिन्दी की शालीनता और मर्यादा को सुरक्षित रखते हुए उसे सुबोध और सुगम बनाना आज के समय की माँग है।“


हमारे कई हिन्दी प्रेमी मित्रों को इसमें वैश्वीकरण और अंग्रेजी की पोषक शक्तियों का एक सुविचारित षडयंत्र दिखता है। कई पश्चिमी विद्वानों ने वैश्वीकरण के नाम पर अमेरिका के सांस्कृतिक नवउपनिवेशवाद को बढ़ाने वाली शक्तियों के उन षडयंत्रों के बारे में सविस्तार लिखा है जिसमें प्राचीन और समृद्ध समाजों से धीरे धीरे उनकी भाषाएँ छीन कर उसकी जगह अंग्रेजी को स्थापित किया जाता है। और यों उन समाजों को एक स्मृतिहीन, संस्कारहीन, सांस्कृतिक अनाथ और पराई संस्कृति पर आश्रित समाज बना कर अपना उपनिवेश बना लिया जाता है। अफ्रीकी देशों में यह व्यापक स्तर पर हो चुका है।


मुझे इसमें यह वैश्विक षडयंत्र नहीं सरकार और प्रशासन में बैठे लोगों का मानसिक दिवालियापन, निर्बुद्धिपन और भाषा की समझ और अपनी हिन्दी से लगाव दोनों का भयानक अभाव दिखता है। यह भी साफ दिखता है कि राजभाषा विभाग के मंत्री और शीर्षस्थ अधिकारी भी न तो देश की राजभाषा की अहमियत और व्यवहार की बारीकियाँ समझते हैं न ही भाषा जैसे बेहद गंभीर, जटिल और महत्वपूर्ण विषय की कोई गहरी और सटीक समझ उनमें है। भाषा और राजभाषा, साहित्यिक और कामकाजी भाषा के बीच एक नकली और मूर्खतापूर्ण विभाजन भी उन्होंने कर दिया है। अभी हम यह नहीं जानते कि किसके आदेश से, किन महान हिन्दी भाषाविदों और विद्वानों से चर्चा करके, किस वैचारिक प्रक्रिया के बाद यह परिपत्र जारी किया गया। अभी तो हम इतना ही जानते हैं कि इस सरकारी मूर्खता का तत्काल व्यापक विरोध करके इसे वापस कराया जाना जरूरी है। यह सारे हिन्दी जगत और देश की हर भाषा के समाज के लिए एक चुनौती है।


पुनश्च - यह एक संक्षिप्त, फौरी प्रतिक्रिया है। इसका विस्तार करूँगा जल्द।

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