लेखक- डॉ. देवकुमार पुखराज
आंध्रप्रदेश के दस जिलों को मिलाकर तेलंगाना नामक अलग राज्य बनाने की
मांग को लेकर चल रहा आंदोलन तेज रफ्तार पकड़ चुका है। तेलंगाना इलाके में
सकल जनालु सामे यानि समग्र लोगों का आंदोलन के चलते एक माह से जनजीवन
ठप्प पड़ गया है और इसके मंद पड़ने की उम्मीद भी फिलहाल बनती नहीं दिख
रही है। पृथक प्रांत के लिए जारी आंदोलन ने राज्य की किरण रेड्डी सरकार
के सामने गंभीर राजनैतिक संकट पैदा कर दिया है। केन्द्र की यूपीए सरकार
और कांग्रेस पार्टी भी तेलंगाना के जाल में बुरी तरह उलझ सी गयी है।
दूसरे शब्दों में कहें तो कांग्रेस की हालत सांप-छुछुंदर वाली होकर रह
गयी है। यदि तेलंगाना बनाने की दिशा में आगे बढ़े तो आंध्र के बाकी दो
इलाके रायलसीमा और तटीय आंध्र में गलत संदेश जाएगा और आंदोलन का श्रेय भी
केसीआर की टीआरएस पार्टी ले उड़ेगी। उधर तेलंगाना नहीं बनने की स्थिति
में भी इस इलाके से कांग्रेस का पत्ता साफ होते साफ दिख रहा है। कांग्रेस
को दूसरी दुविधा इस बात को लेकर है कि कहीं ऐसा करने से दूसरे राज्यों के
बंटवारे की मांग न तूल पकड़ ले।उन्हें यह आशंका सता रही है तेलंगाना को
मंजूरी दी तो पृथक विदर्भ, पृथक हरित प्रदेश, पृथक बुंदेलखंड और पृथक
पूर्वांचल के लिए मांगें तूल पकड़ लेंगी। कांग्रेस पार्टी अंदर और बाहर
दोनों तरफ से दबाव में है। इलाके से आने वाले सांसद और विधायक हर हाल में
पृथक राज्य का सपना पूरा होते देखना चाहते हैं। सांसद मधु गौड़ याश्की
घोषणा कर चुके हैं कि जरूरत पड़ी तो वे पार्टी छोड़ने से भी पीछे नहीं
रहेंगे।
मतलब साफ है कि कांग्रेस नेतृत्व के सामने राजनैतिक फैसले लेने की गंभीर
चुनौती आ पड़ी है। लेकिन प्रधानमंत्री आवास पर हुई कोर कमेटी की कई
बैठकें भी बगैर किसी नतीजे पर पहुंचे खत्म हो चुकी है। कांग्रेस नेतृ्त्व
के सामने एक हीं फार्मूला है कि किसी तरह इस मामले को लटकाये रखा जाए।
राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि कांग्रेस को हर हाल में तेलंगाना हारी
हुई बाजी दिख रहा है। ये एक ऐसा मसला है जो कांग्रेस के लिए गले की हड्डी
बन चुका है।
उधर तेलंगाना राष्ट्र समिति के प्रमुख और सांसद के. चन्द्रशेखर राव
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की हड़ताल वापस लेने संबंधी अपील ठुकरा
चुके हैं। केसीआर का कहना है कि ये हड़ताल तबतक जारी रहेगी जबतक सरकार एक
निश्चित समय-सीमा में अलग तेलंगाना राज्य बनाने का प्रस्ताव सामने नहीं
रखती।
तेलंगाना के लाखों सरकारी कर्मचारी और अध्यापक एक माह से हड़ताल पर हैं।
वकील भी अदालतों का बहिष्कार कर रहे हैं। प्रशासनिक कामकाज ठप पड़ा है और
स्कूल- कॉलेज भी बंद हैं। राज्य पथ परिवहन निगम के कर्मचारियों के आंदोलन
में शामिल हो जाने के चलते हैदराबाद से लेकर जिला मुख्यालयों तक में
सार्वजनिक परिवहन सेवा ठप्प पड़ गयी है। एक आकलन के मुताबिक अकेले आरटीसी
को 2 सौ करोड़ रुपये से ज्यादा का घाटा हो चुका है। सिंगरेनी कोयलरी के
70 हज़ार कर्मचारियों के भी हड़ताल पर रहने से कोयले का खनन बंद है।
मज़दूरों की हड़ताल से हर दिन एक लाख साठ हज़ार टन कोयले का उत्पादन रुक
गया है और राज्य के सभी बिजली घरों को कोयले की कमी का सामना करना पड़
रहा है। पडोस के राज्यों कर्नाटक और महाराष्ट्र में भी बिजली का संकट बढ़
गया है। केवल रामागुंडम के एनटीपीसी प्लांट में सात सौ मेगावाट बिजली का
उत्पादन घट गया है। इस संयंत्र से दक्षिण भारत के सभी राज्यों को बिजली
मिलती है। खदानों में हड़ताल के कारण कोयले का उत्पादन बंद हो गया है और
बिजली का उत्पादन घट गया है। अकेले आंध्रप्रदेश को इस समय सात लाख यूनिट
से भी ज़्यादा बिजली की कमी का सामना करना पड़ रहा है। राजधानी हैदराबाद
में बिजली की कटौती को दो घंटे से बढाकर चार घंटे करना पड़ा है। अन्य
जिलों और ग्रामीण इलाकों में तो 12 घंटे तक लोड शेडिंग हो रही है।
किसानों को कम बिजली मिलने से उनकी फसलें सूख जाने का ख़तरा पैदा हो गया
है।
आंदोलन की गहराई इस बात से मापी जा सकती है कि दशहरे के दिन जब सारे देश
में लोग रावण-मेधनाथ के पुतले फूंक रहे थे तो तेलंगना के समर्थक रावण की
जगह कांग्रेस पार्टी के नेताओं के पुतले जला रहे थे। अदिलाबाद और
निज़ामाबाद से लेकर नलगोण्डा और खम्मम ज़िलों तक हर जगह तेलंगाना
समर्थकों ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह,
मुख्यामंत्री किरण कुमार रेड्डी सहित बड़े नेताओं के पुतले और कट-आउट
जलाये।
तेलंगाना संयुक्त कार्रवाई समिति के संयोजक प्रो. कोदंडराम रेड्डी इस
हड़ताल को आखिरी युद्ध की संज्ञा दे रहे हैं। आगे उनका कार्यक्रम हड़ताल
को और तेज करने का है। वे कहते हैं- "बहरी सरकार को सुनाने और नींद से
जगाने के लिए हम रेल सेवा भी ठप्प करने वाले हैं।" वैसे हड़ताल के कारण
हर वर्ग प्रभवित हो रहा है। सर्वाधिक नुकसान किसानों,छात्रों और लघु
कारोबारियों को हुआ है। उद्योग-व्यापार से लेकर हैदराबाद की इमेज तक को
गहरा धक्का लगा है। इस पूरे घटनाक्रम से राज्य में होने वाले निवेश पर
खासा असर पड़ा है। कई निवेशकों ने अपना पैसा निकाल लिया है और वो
विशाखापट्टनम जैसी जगहों पर निवेश करने लगे हैं। जानकार मानते हैं कि
1999 से 2009 का समय आंध्रप्रदेश के लिए स्वर्णिम था, लेकिन मौजूदा
परिस्थितियां ख़राब हैं और अगले दो से तीन साल इसी तरह चलता रहा तो
हैदराबाद से निवेशक पूरी तरह दूर हो जाएंगे। लेकिन तेलंगाना समर्थक ऐसा
नहीं मानते। खेल पत्रकार चंद्रमौली मुत्तिरेड्डी कहते हैं- तेलंगाना बनने
के बाद भारी संख्या में एनआरआई इलाके में निवेश करेंगे, स्थानीय लोगों को
रोजगार के अवसर प्राप्त होंगे और कुछ खास किस्म के पूंजीपतियों का
वर्चस्व खत्म होगा। ये इलाका राजनीतिक,सामाजिक और सांस्कृतिक तौर से अपनी
विशिष्ठ पहचान को प्राप्त करेगा।
वैसे तेलंगाना मामले पर 2009 से अबतक लोगों की सोच में भी काफ़ी बदलाव
आया है। आंध्रप्रदेश में बहुत से लोग अब चाहते हैं कि अलग तेलंगाना राज्य
बन जाए और यह मामला ख़त्म हो। रेलवे में कार्यरत एनजीओ कॉलोनी निवासी सी.
एम. रेड्डी कहते हैं कि रोज-रोज की हड़ताल और उपद्रव से बेहतर है कि
सरकार एक बार में फैसला कर ले।
गत 29 सितम्बर को मुख्य विपक्षी तेलुगु देशम पार्टी के तेलंगाना क्षेत्र
से आने वाले 32 विधायकों ने छह महीने में दूसरी बार विधानसभा से त्याग
पत्र दे दिया। उनकी सरकार से मांग है कि तेलंगाना राज्य की स्थापना के
लिए जल्द से जल्द एक विधेयक संसद में पेश किया जाये। इससे पहले फ़रवरी
में सभी दलों के 100 तेलंगाना विधायकों ने इस्तीफ़ा दिया था,जिसे स्पीकर
एन. मनोहर ने यह कह कर रद्द कर दिया था कि वो भावावेश में उठाया गया क़दम
था। अब तेलंगाना राष्ट्र समिति के 11 और टीडीपी के चार बाग़ी विधायक
दूसरी बार त्याग पत्र स्पीकर को सौंप चुके हैं। इस बीच टीडीपी प्रमुख
एन.चन्द्रबाबू नाय़डू ने भी साफ कर दिया है कि यदि सरकार तेलंगाना बनाने
के लिए पहल करती है तो वे इसका विरोध नहीं करेंगे। कुल मिलाकर गेंद
केन्द्र सरकार के पाले में हीं पड़ी है। फैसला उसे हीं लेना है।
शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011
तेलंगाना के भंवरजाल में फंसी कांग्रेस सरकार
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