हिंदी शोध संसार

गुरुवार, 11 अगस्त 2011

धत तेरे की। आप तो समझने के लिए तैयार ही नहीं हैं


सच में, आज मुझे बेहद अफसोस हो रहा है। मैं अपने छोटे की बात नहीं समझ पा रहा हूं। छोटा है। बहुत लिहाज करता है। मुझसे बोलता भी कम है। यूं कहें कि मुंह नहीं लगाता है। टभर-टभर नहीं करता है। एक लाइन में ही सही, मगर, आज वह अपने मन की बात निकाल ही गया।
क्या चाहते हैं आप, वो नैतिकता के नाम पर इस्तीफा दे दें।
बहुत ही खीझ थी उसके मन में। वह मेरी बात भी नहीं सुना। आगे बढ़ गया। उसकी बातों पर मन ही मन जिरह करता रहा।
आखिर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह क्यों इस्तीफा दें। आखिर उनकी गलती क्या है। भ्रष्टाचार किया तो उनके मंत्रियों ने। उसके लिए वो क्यों जिम्मेदार हों। आखिर उनकी ईमानदार छवि को इससे क्या नुकसान पहुंचता है।
छोटे की बातों में दम था। लेकिन मैं अपने मन को नहीं समझा पा रहा था कि आखिर इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी मनमोहन सिंह ईमानदार कैसे बने हुए हैं और कैसे उनकी छवि अब भी साफ सुथरी बची हुई है।
अगर किसी व्यक्ति के सामने कोई अपराध होता है या कोई आपराधिक घटना होती है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वो पुलिस में उसकी रिपोर्ट दर्ज कराएगा। वो कोर्ट में इसकी गवाही देगा। मगर, अगर वो व्यक्ति उस अपराधी को बचाने की कोशिश करता है तो उसे क्या कहा जायेगा। उसे अपराधी कहा जाए या नहीं, मगर कम से कम उसे ईमानदार तो नहीं कहा जाएगा। कम से कम इस घटना के बाद उसकी छवि साफ सुथरी तो नहीं कही जाएगी।
जहां तक मुझे याद है टू-जी घोटाले पर कैग की रिपोर्ट आने के बाद प्रधानमंत्री कैग को उसका काम समझा रहे थे। मौका था कैग की १५० वर्षगांठ का। मनमोहन सिंह उस कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कह रहे थे कि कैग को गलती और जानबूझकर की गई गलती, वास्तविक गलती और परिकल्पना में अंतर को समझना चाहिए। कैग अपना काम ईमानदारी से कर रहा था मगर प्रधानमंत्री उसे वास्तविक गलती और परिकल्पना में अंतर समझाने में व्यस्त थे। अगर वो इस व्यस्तता को छोड़कर दोषियों के खिलाफ कार्रवाई करते तो उनकी छवि ईमानदार समझी जाती और यही काम करने के लिए सुप्रीमकोर्ट को मोर्चा नहीं संभालना पड़ा।
सरकारें अक्सर कोर्ट की अतिसक्रियता पर सवाल उठाती रही हैं मगर, कोर्ट को ऐसा होने के लिए मजबूत कौन करता है।
अगर कमजोर व्यक्ति अपराध को देखकर, उससे डरकर भाग जाता है, पुलिस में रिपोर्ट दर्ज नहीं कराता है, कोर्ट में गवाही नहीं देना चाहता है तो उसकी मजबूरी समझ में आती है मगर, देश का सबसे ताकतवर व्यक्ति अगर ऐसा करता है तो क्या वो ईमानदार या साफ सुथरी छवि का कहलाने लायक है?
अगर ये ताकतवर व्यक्ति उस अपराधी को बचाने की कोशिश में जुट जाए तो उसे क्या कहा जाएगा। क्या छोटे बाबू आप तब भी उसे ईमानदार ही कहेंगे।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने तो ऐसा ही किया।
जब कैग कि रिपोर्ट आई तो विपक्ष की ओर से हमले झेल रही सरकार ने अपने महारथी, कपिल सिब्बल को मोर्चे पर उतार दिया। सिब्बल ने अपनी वकालत पेशा की बाजीगरी का इस्तेमाल करते हुए जीरो लॉस की थ्योरी गढ़ डाली। यानी टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन से सरकार को कोई नुकसान नहीं हुआ।
जब नुकसान ही नहीं हुआ तो राजा, कनिमोझी, बेहुरा सहित दर्जन भर लोग जेल में क्यों हैं। क्यों कलानिधि मारन को इस्तीफा देना पड़ा।
छोटे बाबू क्या आप बताएंगे कि जीरो लॉस की थ्योरी गढ़ने वाले कपिल सिब्बल के खिलाफ क्या कार्रवाई की गई। जहां तक हमें पता है कार्रवाई नहीं, उन्हें दो-दो मंत्रालय पर बरकरार रख कर पुरस्कृत किया गया। क्या सच पर परदा डालने वालों को पुरस्कृत करना ही मनमोहन सिंह की ईमानदारी है.
सिब्बल की बात छोड़िये। खुद प्रधानमंत्री ने कहा कि टूजी स्पेक्ट्रम आवंटन से सरकार को कोई नुकसान नहीं हुआ। उन्होंने इस घोटाले से हुए नुकसान की तुलना गरीबों को दी जाने वाली सब्सिडी से कर दी। क्या लूट सब्सिडी के बराबर है। क्या सब्सिडी देने के लिए किसी सरकार को जेल जाते सुना है। क्या कोर्ट ने सब्सिडी देने के लिए सरकार के किसी मंत्री को जेल भेजा है। क्या ईमानदारी की यही परिभाषा है।
हाल ही में प्रिंट मीडिया के पत्रकारों से बातचीत में प्रधानमंत्री ने कहा कि राष्ट्रमंडल खेल घोटाले पर तत्कालीन खेल मंत्री मणिशंकर अय्यर का विरोध आडियॉलॉजिकल यानी सैद्धांतिक था। लेकिन प्रधानमंत्री को मणिशंकर अय्यर का लिखा हुआ पत्र जो मीडिया में आया है, उससे अनुसार मणिशंकर अय्यर का विरोध सैद्धांतिक नहीं बल्कि तथ्यात्मक था। बताया गया था कि राष्ट्रमंडल खेल आयोजन समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाडी ने किस प्रकार खुली लूट मचा रखी थी। इससे बावजूद प्रधानमंत्री ने कोई कार्रवाई करने के बजाय उससे छुपाने का काम किया।
कैग की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, तत्कालीन खेल मंत्री सुनील दत्त के विरोध के बावजूद प्रधानमंत्री कार्यालय की सिफारिश के आधार पर सुरेश कलमाडी की नियुक्ति हुई। इतना ही नहीं, खेल सचिव अरोड़ा ने भी प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखा था लेकिन कार्रवाई तो दूर कलमाडी की नियुक्ति कर दी गई।
छोटे, भले ही तुझे मेरी बातों पर गुस्सा आता हो, लेकिन, लेकिन मैंने तुम्हारे सामने जो तथ्य रखे हैं क्या इससे तुम्हारी सोच पर कोई असर पड़ा है। क्या अब भी तुम मुझे समझने की कोशिश करोगे या नहीं। मेरे भाई प्रधानमंत्री पद की अपनी गरिमा होती है। क्या इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी मनमोहन सिंह के लिए इस पद पर बने रहना उचित है। क्या अब भी उनकी ईमानदारी और साफ सुथरी छवि अक्षुण्ण बनी हुई है।
झुंझलाना मत। ठंडे दिमाग से सोचना।

जाते-जाते- अण्णा हजारे को सोलह अगस्त से अनशन करना पड़ रहा है। आखिर सरकार ईमानदार बनना क्यों नहीं चाहती है। आखिर उसे एक मजबूत और कारगर लोकपाल लाने में आपत्ति क्यों है। आखिर वो भ्रष्टाचार की संस्कृति को क्यों बनाए रखना चाहती है। आखिर वो कालाधन वापस देश क्यों नहीं लाना चाहती है। एक ईमानदार व्यक्ति इस पर चुप क्यों है।


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