हिंदी शोध संसार

सोमवार, 25 जुलाई 2011

कुलदीप नैयर ने क्यों पकड़ा कान?


देश में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में संलिप्त लोगों को कोई कमी नहीं है। इनमें कई अपने आपको नामी-गिरामी पत्रकार और बुद्धिजीवी होने का दावा करते हैं। ऐसे लोगों पत्रकारों और बुद्धिजीवियों की दुकान चल भी रही है क्योंकि ये लोग आईएसआई जैसी भारत विरोधी गतिविधियों में संलिप्त एजेंसियों के पैसे से विदेशों की यात्रा करते हैं, उनके सेमिनार में शामिल होते हैं, जाने-अनजाने भारत विरोधी बयान देते हैं, कश्मीर की आजादी की बात करते हैं, आतंकवादियों के मानवाधिकारों की पैरवी करते हैं, राष्ट्रविरोधी ताकतों को संरक्षण देने की वकालत करते हैं, आतंकवादियों के पुनर्वास के लिए लॉबिंग करते हैं। इसके लिए ये लोग आईएसआई जैसी एजेंसियों से संरक्षण पाने वाले संगठनों से कुछ पुरस्कार, अवार्ड आदि जैसी चीजें पा जाते हैं। पुरस्कार पा जाने के बाद स्वघोषित सेक्यूलर भारतीय मीडिया संस्थानों में इन लेख संपादकीय पृष्ठों में छप जाता है, बदले में मोटी रकम की कमाई भी हो जाती है अंग्रेजी बोलने वाले इनमें कई कथित पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को टेलीविजन का ग्लैमर पाने का वांछित मौका भी मिल जाता है। इस मौका को हासिल करते-करते इन लोगों को कुछ अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड और कुछ राष्ट्रीय अवार्ड भी मिल जाता है और ये लोग देशी संस्कृति को मुंह चिढ़ाने लगते हैं। देश के लिए त्याग और तपस्या करने वालों को मुंह चिढ़ाते हैं। सरकार में अपनी पैठ बनाते हैं फिर योजना परियोजना पारित करते हैं। देश में मन-मुताबिक कानून बनाने के लिए लॉबिंग करते हैं।

ऐसे पत्रकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों पर इस तरह के आरोप काफी अर्से से लगते रहे हैं। मगर, इनकी पुष्टि जब तक अमेरिका जैसे पश्चिमी देश नहीं कर देते हैं तब तक हमारे देश में इन्हें मानने की प्रथा और परंपरा नहीं रही है। स्वामी विवेकानंद भारत भ्रमण करते रहे लेकिन उन्होंने किसी ने विद्वान या ऋषि नहीं माना। किसी ने उन्हें पूज्य नहीं समझा। अपने को साबित करने के लिए उन्हें अमेरिका जाना पड़ा, वहां जब अमेरिकी विद्वानों ने उनकी विद्वता
को
लोहा माना तो विवेकानंद रातों रात मशहूर हो गए। भारत ने उन्हें तत्काल पूज्य मान लिया। हमारे तथाकथित बुद्धिजीवियों और मानवाधिकारवादियों पर लगे आरोपो के बारे में जब अमेरिका ने आरोप लगाया तो पूरी दुनिया में, खासकर भारत के बुद्धिजीवियों में हलचल मच गई।
कुलदीप नैयर ने तो ऐसे सेमिनारों में जाने से कान ही पकड़ ली।
दरअसल, पूरा मामला गुलाम नबी फाई की गिरफ्तारी से सामने आया। फाई कश्मीरी पृथक्कतावादी बुद्धिजीवी है। जिसने पाकिस्तान के किसी विश्वविद्यालय से जनसंचार में पीएचडी की डिग्री हासिल की और इस दौरान वो पाकिस्तान खुफिया एजेंसी आईएसआई के संपर्क में आया। आईएसआई ने फाई की बुद्धि और उसकी भारत विरोधी मानसिकता का इस्तेमाल करना चाहा और उसे अमेरिका भेज दिया।
गुलाम नबी फाई अमेरिका में भारत विरोधी गतिविधियों में संलिप्त हो गया। वह अमेरिका में भारत-विरोधी जनमत तैयार करने लगा। वह कश्मीर में भारतीय सेना द्वारा कथित मानवाधिकारों के उल्लंघन और कश्मीर के आजादी के लिए अमेरिकी सांसदों दबाव बनाने लगा और ऐसे सांसदों, नेताओं और बुद्धिजीवियों का गुट तैयार करने लगा। गुलाम नबी फाई की नजर भारत के ऐसे बुद्धिजीवियों और पत्रकारों पर भी थी जो कश्मीर में मानवाधिकार के कथि उल्लंघन पर आए दिन शोर-मचाते रहते हैं और किसी न किसी रूप में कश्मीर की आजादी का गीत गाते हैं। अरुंधती राय जैसे लोगों की आवाज काफी मुखर है तो बाकी लोग अपने निजी स्वार्थों के लिए किसी न किसी रूप में इस कार्य में शामिल हैं। दुर्भाग्यवश जैसे लोग मानवाधिकार के पैरोकार समझे जाते हैं और सम्मानित भी किए जाते हैं।
जहां तक बात फाई की है तो वो कई सालों से अमेरिका में भारत विरोधी गतिविधि चला रहा था। अमेरिका में उसकी गिरफ्तारी के बाद ही इन सब बातों का खुलासा हुआ है कि अमेरिका पाकिस्तान में आतंकवाद से लड़ाई के लिए जो पैसा देता है। उसी पैसे का इस्तेमाल पाकिस्तान की आईएसआई भारत विरोधी गतिविधियों के लिए करता है। इसी पैसे का एक बड़ा हिस्सा गुलाम नबी फाई के पास भी पहुंचता है। अमेरिका द्वारा कोर्ट में दी गई जानकारी के मुताबिक, आईएसआई ने वर्ष 2010-2011 में गुलाम नबी फाई को 4 से 5 मिलियन डॉलर धन दिया। फाई इस धन का इस्तेमाल कश्मीर की आजादी के लिए अमेरिकी सांसदों को अपने पक्ष में करने, भारतीय पत्रकारों और बुद्धिजीवियों को अमेरिका बुलाकार सेमिनार कराने आदि के लिए किया करता था।
अमेरिका में गुलामनबी फाई के सम्मेलन में जाने वाले भारतीय बुद्धिजीवियों और पत्रकारों में कुलदीप नैयर, हरिंदर बवेजा और दिलीप पडगांवकर शामिल हैं।
याद रहे ये दिलीप पडगांवकर वहीं हैं तो कश्मीर समस्या के समाधान के लिए भारत सरकार द्वारा गठित तीन सदस्यीय सलाहकार समिति में शामिल हैं। जो अलगाववादियों और आतंकवादियों से बातचीत के पक्षधर रहे हैं और जिन्होंने उनसे जेलों में जाकर मुलाकात भी है। दिलीप पडगांवकर आतंकवादियों के पुनर्वास की भी पैरवी करते रहे हैं।
ये स्वनामधन्य पत्रकार थोड़े से नाम और पैसे के लिए गुलाम नबी फाई जैसे देशद्राहियों का मोहरा बनते रहे हैं। और जाने-अनजाने आईएसआई के पैसे पर देशविरोधी गतिविधियों में शामिल एजेंसियों के लिए विदेश दौरा करते रहे हैं।
यहां ध्यान देने वाली बात है कि फाई सालों से अमेरिका में रहकर आईएसआई के पैसे से भारत विरोधी गतिविधियां चला रहा था और ऐसा नहीं है कि अमेरिका को इसकी भनक नहीं लगी होगी। मगर, अमेरिका ने इसका भंडाफोड़ तब किया है जब उसे अमेरिका पर लगाम लगानी थी। पाकिस्तान के एबटाबाद में अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद पाकिस्तान के साथ अमेरिका की ठनने लगी फिर अमेरिका ने पाकिस्तान को उसकी औकात बतानी चाही और गुलाम नबी फाई की कारिस्तानियों का भंडाफोड़ किया।
अब किसी को समझने में देरी नहीं करनी चाहिए कि अरुंधती राय जैसे लोगों को बुकर पुरस्कार क्यों मिल जाता है। क्यों जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी से लाल पैगाम देने वाले अमेरिका विरोधी राग अलापते रहते हैं और ज्योंही कोई मौका मिलता है अमेरिका के लिबर्टी ऑफ स्टेच्यू से जा लिपटते हैं।

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