याचना
मो सम दीन, न दीन हित, तुम समान रघुवीर।
अस विचारी रघुवंश मणि, हरहुं विषम भव भीर।।
कामी नारि प्यार जिमि, लोभी के प्रिय दाम।
तुम रघुनाथ निरंतर, प्रिय लागहि मोहि राम।।
मैं अपराधी हीन मति, पड़ौं मोह के जाल
मम कृत दोष न मानिए, तुम प्रभु दिन दयाल।।
अजगर करे ना चाकरी, पंछी करे न काम।
सात खंड नौ द्वीप में, सबके दाता राम।।
प्रेम
प्रेम न बाड़ि ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा प्रजा जेहिं रूचै, शीश देय ले जाय।।
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटै पै फिर न जुड़ै, जुड़ै गांठ पड़ि जाय।।
गुरू--
गुरू कुम्हार शिष्य कुंभ हैं, गढ़ि-गढ़ि काटत खोंट।
अंतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट।।
अखंड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरं।
तद पदं दर्शितम येन, तस्मै श्री गुरूवे नम:।।
अज्ञान तिमिरांधस्य ज्ञानानं येन शलाकया।
चक्षुन्मीलित: येन तस्मै श्री गुरूवे नम:।।
जय हिंदी जय भारत
सोमवार, 12 अक्तूबर 2009
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बढिया दोहे प्रेषित किए हैं आभार।
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