हिंदी शोध संसार

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

अनार्थिक क्रियाओं का अर्थशास्त्र

वैश्विक आर्थिक संकट पर काफी दिनों से कुछ लिखने का मन कर रहा था. आज मौका मिला और लिख मारा. भगवान बुद्ध ने कहा था, दुनिया दुखों से भरा, इस दुख के कारण है और इसका निवारण भी है.

ये वैश्विक आर्थिक संकट की घड़ी है. अकेले इस साल अमेरिका की बारह बड़ी वित्तीय संस्थाएं दिवालिया होने की घोषणा कर चुकी है. इसके अलावा, कम से कम छह कंपनियों ने खुद को दिवालियेपन से बचाने के लिए खुद को बेच दिया है. बुश प्रशासन ने भी माना कि अमेरिका 1930 के बाद से अब तक के सबसे बड़े वित्तीय संकट से गुजर रहा है. इस वित्तीय संकट से उबारने के लिए बुश प्रशासन ने अमेरिकी कांग्रेस से 700000000000 (सात खरब डॉलर) की आर्थिक सहायत मांगी, जिसे कांग्रेस ने काफी नानुकर के बाद स्वीकार कर लिया. इस पैकेज को बेल-आउट पैकेज(मुक्ति-राशि) कहा गया. न्यूयार्क टाइम्स में छपी खबरों के मुताबिक, इस आर्थिक संकट से उबारने के लिए,

  1. वित्तीय संस्थानों की स्वायत्तता और आत्मप्रबंधन के अधिकारों को कम करना.

  2. बैंको को सरकारी एजेंट के रूप में काम करना.

  3. बैंकों के करीब आधे शेयरों को सरकार द्वारा खरीदा जाना.

  4. लघुकालिक बिकवाली पर रोक.

  5. बैंकों का राष्ट्रीयकरण जैसे प्रावधान शामिल हैं.

सात खरब डॉलर के भारी भरकम पैकेज(यह राशि वियतनाम जैसे जैसे देशों के सकल घरेलू उत्पाद की दस गुनी है.) के बावजूद बाजार की हालत पतली है. बाजार अपनी पटरी पर नहीं लौट पाया है.

विश्व बैंक का कहना है कि वर्ष 2009 में आर्थिक संकट और भी गहरा सकता है.

उधर, यूरोपीय देशों में आर्थिक गहराया हुआ है. जर्मनी ने अपने बैंको को आर्थिक दिवालियेपन से बचाने के लिए बड़ी मुक्ति-राशि की घोषणा की. यूरोपीय संघ इस त्रासदी का हल ढूढने में नाकाम साबित हो रहा है. एशियाई बाजारों में भी मंदी के काले बादल छाए हुए हैं. तमाम एशियाई शेयर बाजारों का हाल खस्ता है. वे खुद को इस संकट से निकालने के लिए कोई रास्ता नहीं ढूढ़ पा रहे हैं.

भारतीय प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और रिजर्व बैंक के गर्वनर बार बार लोगों को भरोसा दिला रहे हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूत है. इसके बावजूद आमलोगों को बाजार पर भरोसा नहीं हो पा रहा है. लोग इतने परेशान हो गए हैं कि जिस शेयर बाजार में दुगुना-चौगुना मुनाफा कमाने के लिए धन लगाए थे, उस शेयर बाजार से एक चौथाई मूलधन निकाल रहे हैं. जनवरी महीने में बीएसई का संवेदी सूचकांक 21000 के करीब था वह इस सप्ताह दस हजार के मनोवैज्ञानिक स्तर से भी नीचे गिर गया है. यह और कितना नीचे जाएगा, कहा नहीं जा सकता है.

प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री और योजना आयोग के उपाध्यक्ष(तीनों अर्थशास्त्री) समस्या को जितना कम करके आंक रहे हैं समस्या उससे कई गुना ज्यादा है. या तो वे लोगों को सही बताना नहीं चाहते या सही बात जानते नहीं. पिछले कई महीनों से महंगाई दर बारह प्रतिशत के इर्द-गिर्द घूम रही है. अर्थशास्त्र के तीनों दिग्गज इस समस्या को हल करना तो दूर इसे समझ तक नहीं पा रहे हैं.

कारण- आर्थिक संकट का कारण है- लालच. यावत जीवेत, सुखम जीवेत ऋणम कृत्वा घृतम पीबेत- चार्वाक का यह दर्शन अगर हर समय सही होता तो कोई वजह नहीं थी कि ऋषियों को संतोषं परमं सुखम का मंत्र सूझता.

अमेरिका में साल 2001 में रियल स्टेट (अचल संपत्ति) का बूम आया. साथ में लाया बैंकिंग सुधार. बैंकों को अधिक से अधिक स्वायत्तता दी गई. वित्तीय संस्थानों को आत्मप्रबंधन का निर्णय दिया गया. फिर क्या, बैंक बिना छान के घोड़े की तरह कूदने लगे. बैंक मनमाने तरीके से पैसे बांटने और वसूली करने लगे. बिना किसी औपचारिकता या वित्तीय स्थिति का आकलन किए बगैर लोगों को कर्ज दिया गया. कुछ समय तक यह दौर चला, लेकिन बूम जल्द बुलबुले की तरह फटने लगा. लोगों के पास इतना पैसा नहीं बचा कि वे बैंकों का कर्ज चुका पाते. बैंकों की हालत पतली होने लगे और दिवालिया घोषित करने के सिवा उनके पास कोई दूसरा चारा नहीं था.

सरकारी कामकाज और उसके प्रबंधन पर अट्टहास करने वालों की सारी हेकरी निकल गई और अब वे भी सरकारी नियंत्रण की दुहाई देने लगे. बड़ी-बड़ी कंपनियों के प्रबंधन का दिवाला निकल गया. प्रबंधन के बदौलत कुछ सालों में कई गुणा होने का दावा, महज मेहनत का नतीजा नहीं था, बल्कि इसके पीछे आम जनता को येन-केन-प्रकारेन लूटने और बेईमानी शामिल था.

भारत के संदर्भ में बात करें तो भारत सरकार भी अमेरिका की देखा-देखी आर्थिक सुधार- बैंकिंग सुधार की नीतियों को साफ साफ अपना लिया. बैंकों, बीमा कंपनियों और वित्तीय संस्थाओं को ज्यादा से ज्यादा स्वायत्तता और आत्मप्रबंधन की छूट दिए जाने की बात चलने लगी ताकि अर्थव्यवस्था दस क्या तीस प्रतिशत की दर से विकास करने लगे. आज सरकार का बाजार पर कहीं कोई नियंत्रण नहीं रह गया है. कौन कंपनी किस दर पर अपना उत्पाद बेच रही है, उसका नियंता सिर्फ वह कंपनी है, सरकार नहीं. उपभोक्ता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि वस्तु के उत्पादन का खर्च क्या है. शायद यह उत्पादन खर्च सरकार भी नहीं जानती...

शेष द्वितीय भाग में....

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