हिंदी शोध संसार

शनिवार, 27 सितंबर 2008

स्वयं युग-धर्म की हुंकार हूं मैं



भारत एक राष्ट्र है, भले ही राष्ट्रगान पर राजनीति हो रही हो. भारत राष्ट्र है, भले ही राष्ट्रकवि कहीं नहीं हो. जब राष्ट्र के राष्ट्रभाषा ही नही है तो बेचारे राष्ट्रकवि किस खेत की मूली है. नेहरूवादी विरूद्ध हिंदी सोच के बावजूद हिंदी राजभाषा बन गई, लेकिन इसके साथ ही पूरा-पूरा इंतजाम किया गया कि हिंदी कभी अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो सके, उसे हरवक्त अंग्रेजी की बैशाखी की जरूरत पड़े.

नेहरू को यहां इसलिए घसीट रहा हूं क्योंकि दिनकर को राष्ट्रकवि बनाने में नेहरू की भी भूमिका थी. यदि नेहरू ने संस्कृति के चार अध्याय की भूमिका नहीं लिखी होती तो दुनिया इस ग्रंथ और दिनकर जी के प्रति इतना चौकन्ना नहीं होती.

इस के कुछ ज्यादा पढ़े लिखे लोगों में, एक प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह जी भी है, जो इंग्लैंड में जाकर स्वीकारते हैं कि एक तरह से अंग्रेजी ही भारत की राजभाषा है. इसमें मनमोहन सिंह जी का दोष नहीं है, ये दोष तमाम ज्यादा पढ़े लिखे लोगों में पाया जाता है.

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में हुआ था. परमाणु करार के लिए बेकरार प्रधानमंत्री, कपड़े बदलने में मशगूल गृहमंत्री और मुसलमानों की कृपापात्रता हासिल करने में लगे मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह को शायद इस बात का पता भी न हो लेकिन राष्ट्रकवि की उपेक्षा पूरे राष्ट्र के लिए शर्म की बात है. उन सेक्यूलरों के लिए जिन्हें छोटी-छोटी बात राष्ट्रीय शर्म लगती है. उन भाजपाईयों के लिए भी, वंदे मातरम के लिए देशभर में आंदोलन खड़ा करते है, उन्हें राष्ट्रकवि याद न होना राष्ट्रीय शर्म की बात है.

काश! घर ईंट, बालू, सीमेंट से बने ढॉचे का नाम और भारत जमीन के तिकोने टुकड़े का नाम, तब शायद ये बात नहीं कहनी पड़ती, लेकिन राष्ट्रकवि लिख गए-



तुझको या तेरे नदीश, गिरि, वन को नमन करूँ, मैं ?
मेरे प्यारे देश ! देह या मन को नमन करूँ मैं ?
किसको नमन करूँ मैं भारत ! किसको नमन करूँ मैं ?

भू के मानचित्र पर अंकित त्रिभुज, यही क्या तू है ?
नर के नभश्चरण की दृढ़ कल्पना नहीं क्या तू है ?
भेदों का ज्ञाता, निगूढ़ताओं का चिर ज्ञानी है,
मेरे प्यारे देश ! नहीं तू पत्थर है, पानी है।
जड़ताओं में छिपे किसी चेतन को नमन करूँ मैं ?

भारत नहीं स्थान का वाचक, गुण विशेष नर का है,
एक देश का नहीं, शील यह भूमंडल भर का है ।
जहाँ कहीं एकता अखंडित, जहाँ प्रेम का स्वर है,
देश-देश में वहाँ खड़ा भारत जीवित भास्कर है ।
निखिल विश्व को जन्मभूमि-वंदन को नमन करूँ मैं ?

खंडित है यह मही शैल से, सरिता से सागर से,
पर, जब भी दो हाथ निकल मिलते आ द्वीपांतर से,
तब खाई को पाट शून्य में महामोद मचता है,
दो द्वीपों के बीच सेतु यह भारत ही रचता है।
मंगलमय यह महासेतु-बंधन को नमन करूँ मैं ?

दो हृदय के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं,
मित्र-भाव की ओर विश्व की गति को मोड़ रहे हैं,
घोल रहे हैं जो जीवन-सरिता में प्रेम-रसायन,
खोर रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन।
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को नमन करूँ मैं ?

उठे जहाँ भी घोष शांति का, भारत, स्वर तेरा है,
धर्म-दीप हो जिसके भी कर में वह नर तेरा है,
तेरा है वह वीर, सत्य पर जो अड़ने आता है,
किसी न्याय के लिए प्राण अर्पित करने जाता है।
मानवता के इस ललाट-वंदन को नमन करूँ मैं ?


लेकिन, दुनिया के सबसे बड़े संसाधन- मानव संसाधन की बात सुनने वाला कौन है. दिनकर जी ने प्रजा पर भोगियों के शासन को करीब से देखा था और कहा भी था कि इससे प्रजा का कल्याण होने वाला नहीं है.



जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,

ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे।

अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले।

सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले,


'
कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी,

कनक नहीं , कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,

इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,

राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा,


'
तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,

चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।


आजादी की लड़ाई में दिनकर जी शुरू-शुरू में क्रांतिकारी आंदोलन के समर्थक थे, लेकिन बाद में वे गांधीवादी हो गए. हालांकि वे खुद को बिगड़ैल गांधी वादी कहते थे. दिनकर जी शांति के समर्थक तो थे, लेकिन आजादी की रक्षा के लिए युद्ध जायज समझते थे. वे अरविंद की विचारधारा से प्रभावित थे और लोगों, खासकर युवाओं में प्रबल प्रतिरोध की भावना देखना चाहते हैं-


छीनता हो स्वत्व कोई, और तू

त्याग, तप से काम ले, यह पाप है

पुण्य है विछिन्न कर देना उसे

बढ़ रहा तेरी तरफ जो हाथ है.


और इसके लिए भुजाओं में शक्ति चाहिए


पत्थर की हो मांसपेशियां

लौह-दंड भुज बल अभय

नस-नस में लहर आग की

तभी जवानी पाती जय.


उनका मानना था चाहे व्यक्ति हो या राष्ट्र, एक कमजोर की बात कोई नहीं मानता


क्षमा शोभती उस भुजंग को

जिसके पास गरल हो

उसको क्या जो दंतहीन

विषहीन विनीत सरल हो.


सच पूछो तो शर में ही

बसती दीप्ति विनय की

संधि वचन संपूज्य उसी का

जिसमें शक्ति विजय की


सहनशीलता क्षमा दया को

तभी पूजता जग है

बल का दर्प चमकता जिसके

पीछे जब जगमग है.


आखिर उस राष्ट्रकवि को भोगी शासक क्यों याद करे जो उन्हें सत्ता छोड़ने के लिए कहता हो-


सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।


ये डर उन लोगों को होना और भी लाजिमी है जो बगैर जनता का सामना किए सत्ता के शीर्ष पर बैठ जाते हैं.

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