हिंदी शोध संसार

मंगलवार, 2 सितंबर 2008

सेक्यूलर एजेंडा- फूट डालो राज करो

बिपिन चंद्रा देश के जाने-माने मार्क्सवादी इतिहासकार है. उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और आजादी के बाद के भारत पर महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की, जो कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है. एक जून, 2008 के टाइम्स ऑफ इंडिया में उनका इंटरव्यू पढ़ा. उन्होंने सांप्रदायिकता पर बौद्धिकतापूर्ण बातें कही. उनके बौद्धिकतापूर्ण बातों को पढ़कर जो मेरे में सामान्य बातें उपजी आपके सामने रख रहा हूं-
1.बौद्धिक दृष्टिकोण- भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में यदि सांप्रदायिकता को नहीं रोका गया तो यह देश को टुकड़ों में तोड़ सकता है. यदि इसे नियंत्रित नहीं किया गया तो यहां लेबनान और श्रीलंका जैसी स्थिति उत्पन्न हो सकती है. सांप्रदायिकता यहां जड़ें जमा चुकी है. देश की कुल आबादी के कम से कम बीस प्रतिशत लोग भाजपा को वोट देते हैं. सांप्रदायिकता, पहले मध्यमवर्गीय समाज में पाई जाती थी, लेकिन अब इसने आमलोगों को अपनी चपेट में ले लिया है. अब वनवासियों, आदिवासियों और गांवों में सांप्रदायिकता फैलने लगी है. पहले कहा जाता था कि दक्षिण भारतीय सांप्रदायिक नहीं हो सकते हैं, लेकिन आप देखेंगे कि सांप्रदायिकता कर्नाटक, केरल और आंध्रप्रदेश में भी पैदा होने लगी है.
सामान्य दृष्टिकोण- स्वाभाविक है शहरों में पढ़े लिखे लोग ज्यादा होते है. वे तथा-कथिक सेक्यूलरों(छद्म-धर्मनिरपेक्षों) की घिनौनी राजनीति समझ गए हैं(देश के विद्वान प्रधानमंत्री कहते हैं कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है, मुस्लिम बहुल जिलों की पहचान की जाती है, वहां जनता के टैक्स से 5500करोड़ रुपये दिए जाते हैं) जब सरकार मुसलमान परस्त राजनीति करेगी तो जनता हिंदु-परस्त होती है तो क्या बुराई है, इसके लिए छद्म-धर्म-निरपेक्ष लोग ही जिम्मेदार हैं. सरकार अलगाव परस्त कश्मीरियों के आगे घुटने टेक देती है तो स्वाभाविक है कि जम्मू की राष्ट्रभक्त जनता अपने जायज मांगों के लिए आवाज उठाए. शहर के बाद गांव और जंगल के लोग भी सरकार सरकार की घिनौनी राजनीति को समझ रहे हैं. जहां तक दक्षिण भारत की बात है. यहां कि जनता को उत्तरभारतीयों की अपेक्षा रूढिवादी रही है. लेकिन यहां के राजनेता उत्तरभारतीय राजनेताओं के मुकाबले कम घिनौनी किए हैं. अब आंध्रप्रदेश की कांग्रेस सरकार ने यहां व्यापक रूप से इसकी शुरूआत की है. अब यहां सांप्रदायिक जहर घुलेंगे, इससे लिए कथित छद्म-धर्मनिपरपेक्ष गुट जिम्मेदार है.
2. बौद्धिक दृष्टिकोण- सांप्रदायिकता एक विचारधारा है. इस विचारधारा के मुताबिक, हिंदुओं का सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक हित मुसलमानों के हित से अलग हैं. क्योंकि हिंदू-मुसलमान अलग-अलग हैं. सांप्रदायिक दंगे बीमारी के लक्षण मात्र हैं. यह सांप्रदायिक दंगों के बगैर भी फल-फूल सकती हैं. उदाहरण के तौर पर, तीस और चालीस के दशक में सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए, लेकिन 1937 से 1945 के बीच सांप्रदायिकता का खूब विकास हुआ. सांप्रदायिका को बढ़ावा देने के लिए सांप्रदायिक दंगे कराए जाते हैं. 2002 के गुजरात दंगों को ही लीजिए. इस दंगे का मकसद मुसलमानों को मारना या उनकी संपत्ति को बर्बाद करना नहीं था, इसका मकसद सांप्रदायिकता को बढ़ावा देना था. एकबार यह मकसद हासिल कर लिया गया फिर देखिए हर जगह शांति है.
सामान्य दृष्टिकोण- जहां तक विचारधारा की बात है, विचारधारा तो कम्युनिष्टों की परि-संपत्ति है. जन-सामान्य के पास विचारधारा कहां होती है कि वो उसपर काम करते और उसकी लड़ाई लड़े. उसकी विचारधारा तो (कार्यकाले समुत्पन्ने) परिस्थितियों के अनुसार पैदा होती है. अगर ऐसा नहीं होता तो शैव्य-शाक्त, वैष्णव, द्वैत, अद्वैत, सगुण, निर्गुण, साकार, निरंकार जैसी विचारधाराएं पैदा नहीं होती. हजारों धर्मग्रंथ नहीं लिखे जाते. मुस्लिम धर्मावलंबियों की तरह हर किसी को कुरआन और हदीस के डंडे से ही हांकते. लेकिन देखिए कम्युनिष्टों के पास मार्क्स और लेनिन के बाद कोई विचारधारा ही पैदा नहीं हुई. शांति का अर्थ ये नहीं है कि प्रभाव कायम करके ही शांति स्थापित होती है. अगर है तो अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय देशों में शांति क्यों है.
3. आतंकवाद को सांप्रदायिक विचारधारा से जोड़ा जा सकता है. उदाहरण के लिए, आज हिंदू आतंकवाद नहीं के बरावर है लेकिन हिंदू सांप्रदायिकता काफी मजबूत है. भारत के ज्यादातर मुस्लिम आतंकवाद का समर्थन नहीं करते हैं फिर भी आतंकवाद ने इस्लामिक रूप ले लिया है. यह जरूरी नहीं है कि धार्मिक रूढिवादिता का स्वरूप सांप्रदायिक हो, लेकिन यह रूढिवादिता सांप्रदायिक रूप ले सकता है, कई हिंदू और मुस्लिम रूढिवादी तो हैं, लेकिन सांप्रदायिक नहीं.
सामान्य दृष्टिकोण- हिंदू स्वभाव से सांप्रदायिक नहीं होते हैं और सह-अस्तित्व पर विश्वास करते हैं पर छद्म-निरपेक्षता ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से इसमें सांप्रदायिकता का जहर घोला.
4. सांप्रदायिक का निदान- हमें सांप्रदायिकता को अच्छी तरह समझना होगा. मेरे छात्रों में से ही कई शुरू शुरू में सांप्रदायिक थे, लेकिन एकबार जब उन्हें पूरी बात समझाई गी तो वे बदल गए. इसलिए सांप्रदायिकता को रोकने के लिए शैक्षणिक अभियान चलाने की जरूरत है, उदाहरण के लिए, हमारी शिक्षा-व्यवस्था सांप्रदायिकता को कम करने के बजाय उसे बढावा देने का काम करती है. पाठ्यक्रम प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सांप्रदायिक विचारों का पोषण करती हैं. कभी-कभी तो लेखक भी इस बात से अनजान रहता है.
सामान्य दृष्टिकोण- मेरे विचार से सांप्रदायिकता को समाप्त करने के लिए तुष्टिकरण की राजनीति को तिलांजलि देकर समग्र समाज के विकास की बात की जाए. फूट डालो और राज करो की नीति से किसी समाज का भला होने वाला नहीं है. इससे सामाजिक विद्वेष ही पैदा होगा और समाज में जहर घुलेगा.

कोई टिप्पणी नहीं :

एक टिप्पणी भेजें