सोमवार, 21 जनवरी 2008
देश में खाद्यान्न की कमी
अभी-अभी देश के कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा कि यदि देश के वैज्ञानिक कृषि उत्पादन बढाने के लिए जल्द ही कोई उपाय नहीं करते हैं तो देश में खाद्यान्नों की भारी कमी हो, सकती है। जिस देश की अर्थ-व्यवस्था हर साल करीब दस प्रतिशत के हिसाब से बढ़ रही हो, उस देश में खाद्यान्न की कमी हो जाय, इससे ज्यादा शर्म वाली बात और क्या होगी? दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था का ढिंढोरा पिटते थकते नहीं हैं हम, उस देश में खाद्यान्न की कमी हो जाये, और हमें होश नहीं हो कि हम क्या कर रहें हैं? कितनी ताज्जुब की बात है। वैज्ञानिकों से आह्वान करके हम अपने कर्तव्यों से छुटकारा तो पा सकते हैं। लेकिन ज्यादा अनाज नही उपजा सकते हैं। शरद पवार के गृह-राज्य की ही बात करें तो वहाँ केवल एक विदर्भ क्षेत्र में हज़ारों किसानों को आत्मा हत्या करने को मजबूर होना पड़ा। वहाँ के मुख्यमंत्री किसानों की दुर्दशा पर अट्टहास करते हैं। किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर करने पर मजबूर कर रही है तो वो है सरकार। चाहे केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार, सभी इसमे शामिल हैं। वे अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ नहीं सकते। आज़ाद भारत में कृषि के विकास के लिए गाँव-गाँव में राजकीय ट्यूब-वेल लगाए गए थे, क्या सरकार को मालूम है कि उनमें कितने ट्यूब-वेल चालू हालत में हैं? सरकार पूंजीपति-उद्योगपतियों के लिए कुछ ही दिनों में हजारों सेज मंजूरी दे सकती है, लेकिन आत्महत्या कर रहे किसानों पर तरस भी नही खा सकती है। सरकार ने राष्ट्रिय किसान आयोग का गठन किया। आयोग ने सरकार को रिपोर्ट सौंपी, लेकिन सरकार उन सिफारिशों को लागू नहीं करती। भारत में हरित क्रांति के अग्रदूत रहे एस स्वामीनाथन और शोधकर्ता पी साइनाथ जैसे लोगों को सरकार तरजीह तक नहीं देती। सरकार जब विदेश से सब कुछ माँगा ही सकती है तो किसानों की सुध लेने की क्या जरूरत है।
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