हिंदी शोध संसार

बुधवार, 28 नवंबर 2007

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कुछ रोज मैंने इसी ब्लोग पर एक लेख लिखी थी- श्रद्धा का श्राद्ध। उस लेख मैंने खबरिया न्यूज़ चैनलों पर जम कर भड़ास निकाली थी। एक बार फिर भड़ास निकालने का मौका है।
इस बार कई बहाने हैं।
पहला मसला असाम का है।
वहाँ, चौबीस तारीख शनिवार को आदिवासियों ने खुद को अनुसूचित जनजाति में शामिल किये जाने की मांग को लेकर गुवाहाटी में प्रदर्शन किया। प्रदर्शनकारियों की रैली राजधानी दिसपुर जा रही थी. प्रदर्शन में आम तौर पर जो होता है-- मसलन, तोड़-फोड़ वही उसमें भी हुआ। फिर क्या, स्थानीय निवासियों ने कानून अपने हाथ में ले लिया। जो प्रदर्शन में शामिल नहीं भी थे, उनपर भी इतना बड़ा अत्याचार किया कि जिसपर मानवाधिकार का शोर मचाने वालों को भी शर्म आ जाये।
जहाँ सड़कों पर लाशों की कतार लगी है। वहीं सरकार एक मौत की पुष्टि कर रही है।
आठ-दस साल के छोटे-छोटे बच्चों पर इस कदर जुर्म ढाये गए कि नजारा देखकर रोंगटे खडे हो जाये।
भागलपुर की घटना में पुलिसिया जुर्म पर, पूरे पुलिस बिरादरी और राज्य सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाले न्यूज़ चैनलों के पास अभिव्यक्ति के प्रतीक तसलीमा पर हो रहे अत्याचार को दिखाने से फुरसत कहाँ थी जो असाम के जनसंहार को दिखाते। आदिवासियों में सेलेब्रिटी और हाई प्रोफाइल जैसा कुछ होता कहाँ जो उसको मुद्दा बनाते। असाम वैसे भी भौगोलिक रूप से भारत से दूर दिखता है। इसलिए उसकी समस्याओं से मुम्बई और दिल्ली वालों को क्या लेना देना है। घटना दिल्ली और मुम्बई की होती तो तिल का ताड़ बनते देर नही लगती। मगर बात असाम की और वहाँ कांग्रेस की सरकार सो उसे दिखाने की जरूरत क्या है। बात बीजेपी शासित प्रदेशों की होती तो उसकी तीस को तीन सौ बनाया जाता। बात असाम की है इसलिए तीस भी एक बनकर रह गया।

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