हिंदी शोध संसार

गुरुवार, 15 नवंबर 2007

वे कविताएँ

मैंने अपने बचपन के दिनों में कुछ कविताएँ पढी थी। वो कविताएँ मुझे आज भी याद हैं। कविताओं को याद करने और रखने में मेरी यादाश्त से ज्यादा उन कविताओं का योगदान हैं। शायद उन कवियों में जो दम-ख़म था आज के कवियों में नहीं है। आज के कवियों के पास वो शब्द नहीं है और कविता रचने की वैसी कला नहीं है। आज की कविताएँ ऐसी होती हैं कि बच्चे पढ़्ना नहीं चाहते और जो पढ़ते है उन्हें कविताएँ याद नहीं हो पाती। छंद मुक्त कविता के नाम पर क्या लिखने लगें हैं, शायद उन्हें ये खुद पता नहीं है। कविता की छवि को बिगाड़ कर ऐसी KAVIYON को कवि होने का आत्म गौरव जरूर होता है।

महाकवि निराला जी ने छंद मुक्त कविता की शुरुआत की थी। लेकिन निराला जी की कविताओं में इस तरह की भाग-दौड़ नहीं थी। मुक्त छंद होते हुए भी उनके कविता सुग्राह्य थी। तो मैं बात कर रहा था। उन कविताओं के बारे में॥ उस ज़माने में कविता लिखने के लिए विषय थे। ऐसा नहीं कि आज समस्याए नहीं हैं और आज मुद्दा आधारित कविताएँ नहीं लिखी जा सकती है। पर लिखेगा कौन?एक कविता होली पर मैंने पढी थी। शायद दूसरी कक्षा में-- देखिए कविता कितनी जानदार है--
होली आई होली आई
अलमस्तों की टोली आई
ले लो ढोल मंजीरा झाल
गायें होली दे के ताल
होली में हम भरे गुलाल
हो गुलाल से धरती लाल
आज न कोई रजा रानी
आज ना कोई पंडित ज्ञानी
सब मिल के हैं रंग उडाते
गले लगते प्यार जताते
हम भी आपने घर पिचकारी लायें
घर-घर जाएँ रंग लगाएं
पूरी और मिठाई खाएं
हिल-मिल खाएं और खिलायें

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