हिंदी शोध संसार

शनिवार, 3 नवंबर 2007

श्रद्धा का श्राद्ध


ज्यादा दिन नहीं गुजरे हैं जब लोग कहा करते थे कि अब अखबारों के महान युग का अंत हो जाएगा। यह वह समय था जब टेलीविजन पर समाचारों का आना शुरू हुआ था और चौबीस घंटे समाचार के चैनलों ने दस्तक दिए थे। समय लम्बा नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतनी अपेक्षा तो जरूर की जा सकती है कि इसमें परिपक्वता आ जानी चाहिऐ। साब, अगर बेटा, अठारह साल में भी बालिग नहीं हुआ तो समझिए उसका भविष्य अंधकारमय है। हमारे टेलीविजन चैनलों का यही हाल है। और नहीं तो इतना जरूर कह सकते हैं कि इसका भविष्य अंधकारमय है। अपने देश में एक भी ऐसा हिन्दी टेलीविजन चैनल नहीं है जिस पर आप भरोसा कर सकते हैं। सर्वश्रेष्ठ चैनल का लोगो लगाकर समाचार के नाम पर चौबीसों घंटे सनसनी, रहस्य रोमांच, सिनेमा, क्रिकेट और क्राइम का ऐसा घालमेल कर रखा है कि दर्शकों को सारा चित्र विचित्र लगने लगा है। इतना बड़ा घालमेल। सच बोलने का दावा कर किसी पार्टी का मुखपत्र की तरह काम करते हैं। जनता की नब्ज पकड़ने का दावा करते हैं। चुनाव पूर्व जनमत सर्वेक्षण करते हैं, लेकिन यह सर्वेक्षण कितना सही होता है, कम से कम सब लोग इसे जानते हैं।

कहते हैं कि लोग यही देखना चाहते हैं-- यहीं भूत, प्रेत, अन्धविश्वास। यार, क्यों सौ दो सौ पत्रकार नामक जीव का पेट भरने के लिए, और उनकी ऐय्याशी के लिए हिंदुस्तान के भविष्य के साथ खिलवाड़ करते हो?

बिना बुलाये अमिताभ के बेटे की शादी में चले जाते हो, फिर वहाँ से मार खाकर बाहर होते हो। और उसी की शादी, करवाचौथ, और फिर जन्मदिन की खबर दिखाने के लिए परेशान रहते हो।

आज भी अखबार--अख़बार है। आज भी एक हिंदुस्तान की जनता अख़बारों पर विश्वास करती है। कई अखवार पहले की तुलना में आज अच्छे हैं-- पर एक भी टेलीविजन चैनल को इसका दावा करने का हक शायद नहीं है।

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