हिंदी शोध संसार

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

वक़्त की नब्ज़ : इस विरोध का गणित


प्रधानमंत्री को खुल कर हमारे बुद्धिजीवी फासीवादी कहते हैं रोज टीवी पर, मोहम्मद अखलाक की हत्या का दोष तक उनके सिर लगाते हैं, और बिहार में जितने भी इल्जाम...

शुरू में ही कह देना चाहती हूं मैं कि बोलने-लिखने की जितनी आजादी नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद देखने को मिली है, मैंने पहले कभी नहीं देखी। प्रधानमंत्री को खुल कर हमारे बुद्धिजीवी फासीवादी कहते हैं रोज टीवी पर, मोहम्मद अखलाक की हत्या का दोष तक उनके सिर लगाते हैं, और बिहार में जितने भी इल्जाम उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी चुनाव अभियान के दौरान लगाते हैं, चाहे झूठे हों या सच्चे, उनको पूरी कवरेज मीडिया में मिल रही है। लेकिन फिर भी देश के इन महान बुद्धिजीवियों को लग रहा है कि भारत में अब बोलने-लिखने की आजादी नहीं रही। बुद्धिजीवियों की रोज कोई नई टोली निकल पड़ती है विरोध जताने, सो पिछले हफ्ते फिल्म निर्माता सम्मान वापस करने निकल कर आए, एक-दो वैज्ञानिक आए साथ में और अगले दिन इतिहासकार भी शामिल हो गए मुखालफत की इस लहर में।
पत्रकारिता की दुनिया में पहला कदम मैंने रखा 1975 में, सो कई प्रधानमंत्री के शासनकाल देखे हैं मैंने। तो सुनिए क्या होता अगर इस तरह का विरोध उनके दौर में होता। इंदिरा गांधी के जमाने में पहले तो प्रेस पर पूरा प्रतिबंध यानी सेंसरशिप देखी मैंने इमरजेंसी के वक्त और जब इमरजेंसी नहीं रही तो यह भी देखा कि उनके प्रेस सचिव शारदा प्रसाद के पास एक फेहरिस्त हुआ करती थी, जिसमें उन पत्रकारों के नाम दर्ज थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री के खिलाफ लिखने की हिम्मत की थी। इमरजेंसी के दौरान तो कई पत्रकार तिहाड़ जेल पहुंचा दिए गए थे।
फिर जब आया उनके बेटे का दौर और इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने विरोध करने की कोशिश की उनका बोफर्स वाले मामले को लेकर तो सौ से ज्यादा टैक्स के मुकदमे लगाए गए इस अखबार पर। सोनिया के दौर में तो निजी तौर पर मेरे ऊपर हमले हुए। सोनियाजी के अघोषित प्रधानमंत्री होने पर जब मैंने एतराज जताया तो मेरे कॉलम को इंडियन एक्सप्रेस से हटाने की कोशिश हुई। इसमें जब सोनियाजी नाकाम रहीं तो मेरे दोस्तों को तकलीफ दी गई। ये दौर याद होंगे हमारे बुजुर्ग बुद्धिजीवियों को, सो यह भी याद होगा कि उन्होंने अपनी आवाज नहीं उठाई कभी। उठाते अगर तो कहां से मिलने वाले थे वे सम्मान, वे विदेशों के दौरे, वे लटयंस दिल्ली की गलियों में आलीशान कोठियां?
कहने का मतलब यह है कि हमारे बुद्धिजीवी बहुत सोच-समझ कर विरोध करते हैं। इनमें से एक ने भी यह नहीं कहा कि उनकी किसी किताब या फिल्म पर मोदी सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है, लेकिन फिर भी कहते फिर रहे हैं कि उनकी आजादी खतरे में है, क्योंकि कर्नाटक में कलबुर्गी को मार दिया गया था। इसमें दो राय नहीं कि कलबुर्गी की हत्या शर्मनाक थी, लेकिन जब केरल में जिहादियों ने प्रोफेसर जोसेफ के हाथ काट डाले थे, क्या हमने इन साहित्यकारों का कोई विरोध देखा? प्रोफेसर जोसेफ के हाथ सिर्फ इसलिए काट डाले पापुलर फ्रंट आॅफ इंडिया के जिहादियों ने, क्योंकि किसी एक पाठ में इस्लाम के रसूल का जिक्र था। बस तय कर लिया कि प्रोफेसर साहब को सजा देने का हक है, सो दे दी। प्रोफेसर साहब की कहानी अगर छपी देश के बड़े अखबारों में, तो इतनी छोटी कि न छपने के बराबर।
उदाहरण एक और है मेरे पास, जो साबित करता है कि अपने बुद्धिजीवी धोखेबाज हैं और उनका गुस्सा सिर्फ तमाशा है। इस देश में सिर्फ एक बार किसी कौम को उसके धर्म की वजह से किसी राज्य से भगा दिया गया- जब पंडितों को कश्मीर घाटी से बेदखल कर दिया गया। बीस वर्ष गुजर गए हैं तब से लेकर आज तक, लेकिन हमारे बुद्धिजीवियों को इस घटना से अगर तकलीफ हुई, तो उन्होंने उसे बहुत छिपा के रखा।
समस्या उनकी एक ही है मोदी के दौर में और उस समस्या का नाम है नरेंद्र मोदी। जब तक वे प्रधानमंत्री बने रहते हैं तब तक ऐसे विरोध-प्रदर्शन होते रहेंगे भारत में, क्योंकि हमारे देश के बुद्धिजीवियों को बड़े प्यार से पाला है दशकों से कांग्रेस पार्टी ने। उनको न सिर्फ इज्जत और सम्मान मिला है, उनको नौकरियां, कोठियां, सरकारी ओहदे भी मिले हैं, सो मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद उनकी पूरी दुनिया लुट गई है। पूर्व प्रधानमंत्रियों का समर्थन इन लोगों ने यह कह कर किया था कि उनकी विचारधारा से उनकी अपनी विचारधारा मेल खाती थी।
सेक्युलरिज्म के कवच के पीछे खूब आर्थिक लाभ भी मिलता था। जब इन लोगों की किताबें नहीं बिकती थीं या उनके बिकने से इतने थोड़े पैसे मिलते थे कि गुजारा करना मुश्किल था, तो साथ दिया करते थे दिल (और तिजोरियां) खोल कर मानव संसाधन विकास मंत्री महोदय।
राजीव गांधी ने अर्जुन सिंह को इस मंत्रालय में बिठाया तभी से परंपरा चली आ रही है बुद्धिजीवियों को पालने-पोसने की। कभी दिल्ली में कोठी देने का काम होता था, तो कभी किसी सरकारी संस्था की अध्यक्षता मिल जाया करती थी। ऊपर से प्रधानमंत्री निवास या दस जनपथ से हर दूसरे-तीसरे दिन न्योते आते थे किसी विदेशी मेहमान से मुलाकात करने के। इसका फायदा यह होता था कि विदेशी मेहमान इन लेखकों को अपने वतन आने का दावत दे दिया करते थे और दौरे का तमाम खर्चा उठाया करती थी कोई न कोई विदेशी सरकार।
इस तरह के विदेशी दौरों पर गए हैं साहित्यकार, कलाकार, इतिहासकार और अन्य किस्म के बुद्धिजीवी कई-कई बार। मोदी के आने के बाद ये तमाम नेमतें औरों को मिल रही हैं। सो, झगड़ा सिर्फ विचारधारा का नहीं है। झगड़ा विचारों का भी नहीं है। झगड़ा सीधे तौर पर रोजी-रोटी का है। सम्मान वापसी की इस लहर के पीछे यह है असली राज।

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