हिंदी शोध संसार

रविवार, 24 फ़रवरी 2013

हिंदी विश्‍वविद्यालय में साकार हुआ हिंदी का महाकुंभ

देवकुमार पुखराज

1 से 5 फरवरी के दौरान ’हिंदी का दूसरा समय’ का भव्‍य आयोजन
उद्घाटन समारोह को संबोधित करते हुए नामवर सिंह


प्रयाग से एक हजार किमी दूर महात्‍मा गांधी की कर्मस्‍थली वर्धा में भी हिंदी का एक अनोखा महाकुंभ साकार हुआ जिसमें देशभर से आए सैकड़ो साहित्‍यकारों, समाजशास्त्रियों, पत्रकारों, नाटककारों और विद्वतजनों ने ज्ञान, विज्ञान और साहित्‍य की त्रिवेणी में डुबकी लगाई। मौका था महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा में दि.1 से 5 फरवरी के दौरान आयोजित ‘हिंदी का दूसरा समय’ कार्यक्रम का। समारोह का उदघाटन 1 फरवरी को प्रात: 10 बजे विश्‍वविद्यालय के अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ के प्रांगण में बने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी सभागार में प्रो. नामवर सिंह ने किया । समारोह की अध्‍यक्षता कुलपति विभूति नारायण राय ने की । इस अवसर पर विशिष्‍ट अतिथि के रूप में प्रो. निर्मला जैन उपस्थित थीं। । उदघाटन सत्र का संचालन सहायक प्रोफेसर राकेश मिश्र ने किया । इस अवसर पर प्रख्यात आलोचक प्रो. नामवर सिंह ने कहा कि जहां तक हिंदी के दूसरे समय का सवाल है समय को मैं एक वृहतर संदर्भ में देख रहा हूं। एक समय पहले था, जब वर्ष 2009 में हिंदी समय का वृहद आयोजन किया गया था और अब 2013 में यह हिंदी का दूसरा समय है। विश्वविद्यालय के कुलाधिपति प्रो. नामवर सिंह ने यह बात आज यहां महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हजारी प्रसाद द्विवेदी सभागार में पांच दिनों तक चलने वाले हिंदी के साहित्यिक महाकुंभ ‘हिंदी का दूसरा समय’ के उद्घाटन अवसर पर कही। उन्होंने कहा कि हिंदी साहित्य की शुरुआत 1000 ईस्वी में हुई। यह समय आधुनिक भारतीय भाषाओं के निर्माण का समय रहा है। यह विश्वविद्यालय हिंदी की दूसरी परंपरा का निर्माण कर रहा है। दूसरी सहस्राब्दी की शुरुआत लोक भाषाओं के उदय और लोकसाहित्‍य के उदय के साथ हुई। उस समय के साहित्‍य के मूल में भक्ति की भावना प्रधान थी। स्‍त्री को पहली बार वाणी साहित्‍य में मिली। उन्‍होंने कहा कि मीरा ने राजघराना तक छोड़ दिया था। सिंह ने विशेष जोर देकर कहा कि दुनिया आबादी दलित और स्‍त्री ने बड़ी संख्‍या में साहित्‍य की रचना की। यह दूसरा समय था जिसकी एक सहस्राब्‍दी पार हुई। भारतीय इतिहास में यह दूसरी परंपरा कही जाएगी। आज स्थिति यह है कि स्‍त्री लेखन को लेकर धड़ाधड़ पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांक निकल रहे है। अब कई विश्‍वविद्यालयों में स्‍त्री विमर्श के पाठयक्रम बन गए है। भीमराव आंबेडकर दलित को मूक नायक कहते थे वह अब मुखर नायक हो गया है। दलितों में अभी पुरुष ही लिख रहे है। आने वाले समय में यह सवाल भी उठने वाला है कि दलित अपनी स्त्रियों को कितनी आजादी देते है। उन्‍होंने अपनी बात का समापन करते हुए कहा हिंदी के तीसरा समय का आयोजन मुझे उम्‍मीद है कि विभूति नारायण राय ही करेंगे। भविष्‍य के कार्यक्रम के लिए यहां से एक नई दिशा तय होगी। यह आयोजन वागविलास के लिए नहीं होगा।
सम्मेलन में उपस्थित हिंदी प्रेमी विद्वान
वरिष्‍ठ आ लोचक प्रो. निर्मला जैन ने कहा कि यह आयोजन साहित्‍य और भाषा के महाकुंभ की तरह है। उन्‍होंने कहा कि हिंदी की अवधारणा सिर्फ साहित्‍य के रूप में नहीं है, हिंदी को सब की भाषा बनना है। उन्‍होंने उम्‍मीद जताई की इस आयोजन के माध्‍यम से हम अपनी परंपरा, इतिहास, ताकत, कमजोरियों और भविष्‍य की चुनौतियों पर बात करेंगे। हिंदी का दूसरा समय की अभिनव कल्पना करने वाले कथाकार और विश्‍वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने अपनी अध्यक्षीय टिप्पणी में कहा कि हिंदी का दूसरा समय का आशय दूसरी परंपरा की खोज है। हिंदी का दूसरा समय कार्यक्रम के संयोजक राकेश मिश्र ने संक्षेप में आयोजन की रूपरेखा पर प्रकाश डाला। उन्‍होंने कहा कि पहले हिंदी समय के आयोजन से लेकर पिछले साढ़े चार वर्षों के दौरान हिंदी साहित्‍य और विभिन्‍न अनुशासनों में आए बदलाव को हम यहां अलग-अलग विषयों पर आयोजित सत्रों में समझने की कोशिश करेंगे। इस अवसर पर जयप्रकाश धूमकेतु के संपादन में प्रकाशित अभिनव कदम के नए अंक लोकार्पण मंच द्वारा किया गया। इस अवसर पर बड़ी संख्या में हिंदी के कवि, कथाकार, आलोचक और विश्वविद्यालय के कर्मचारी उपस्थित थे।
साहित्य जीवन से कट चुका है- रवींद्र कालिया
महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के हिंदी का दूसरा समय कार्यक्रम के पहले दिन सआदत हसन मंटो कक्ष में हिंदी कथा साहित्‍य पर हुई बहस पर अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए प्रख्‍यात कथाशिल्पी और नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया ने कहा कि हमारा समय को समझने का दावा खोखला है। साहित्‍य जीवन से कट चुका है। स्‍त्री की स्थिति आज भी दारुण है। हमारे लेखक किसानों की स्थिति से बेखबर हैं। समाज तेजी से बदला है। देखा जा रहा है कि समाज की गति साहित्‍य से तेज है। पहले साहित्‍य समाज का दर्पण हुआ करता था, आज ऐसा नहीं है। साहित्‍य आज समाज के पीछे लंगड़ाता हुआ चल रहा है। उन्‍होंने कहा कि भाषा समय के साथ बदलती है। हमें आज प्रेमचंद, फैज, गालिब की भाषा प्रासंगिक लगती है। आज के कई रचनाकारों की भाषा खोखली हो चुकी है। उन्‍होंने कहा कि चर्चा नई पीढ़ी के द्वारा लिखी जा रही रचनाओं पर केंद्रित होनी चाहिए थी। अंत में उन्‍होंने कहा कि चीजें, वहीं चमकाई जाती हैं, जहां जंग लग जाता है।
प्रख्‍यात कथाकार और विश्‍वविद्यालय में रायटर इन रजिडेंस संजीव ने नई पीढ़ी के लेखकों द्वारा उपन्‍यास न लिखे जाने का मुद्दा उठाया। उन्‍होंने कहा कि पिछले दिनों हिंदी के एक बड़े प्रकाशक द्वारा युवा लेखकों के लिए हिंदी उपन्‍यास प्रतियोगिता का आयो‍जन किया गया था, जिसमें उनको पुरस्‍कार देने लायक उपन्‍यास नहीं मिले। उन्‍होंने कहा कि उपन्‍यास विधा नये लेखकों को आकर्षित नहीं कर पा रही है। उन्‍होंने कहा कि आज युवा लेखकों के पास सरोकार नहीं हैं और उनका पूरा ध्‍यान करिअर की ओर है।
कथाकार अखिलेश ने कहा कि यह एक साथ निर्माण और ध्‍वंस का समय है। यह ऊपर से जितना चमकदार है, अंदर से वह उतना धूसर, कालिख भरा है। आज से पहले सरल यथार्थ का समय था। उन्‍होंने कहा कि आज बहुत बड़ा मध्‍यवर्ग तैयार हुआ है। आज के कहानीकारों ने कहानी की भाषा और शिल्‍प को बदला है।
वरिष्ठ कथाकार ममता कालिया ने कहा कि कथा साहित्‍य का अगला समय वही है जो कहानियां हमें याद रह जाएं। प्रियदर्शन मालवीय ने कहा कि हिंदी के कहानीकार जोखिम उठाना नहीं चाहते और बच-बचाकर चलते हैं। सच्‍चाई यह है कि जोखिम न उठाना ही हिंदी कहानी की मुख्‍य समस्‍या है। हम जटिल प्रश्‍नों से टकराना नहीं चाहते। चंदन पांडे ने अपने वक्‍तव्‍य में कहा कि जातिवाद के जहर पर हिंदी में नगण्य लेखन मिलता है। भष्‍टाचार के नाम पर आज तक हमारे पास श्रीलाल शुक्‍ल का रागदरबारी, विभूति नारायण राय का तबादला ही है। आज हिंदी कथा साहित्‍य की पाठकों तक पहुंच बहुत चिंतनीय है जबकि हिंदी पट्टी में 10-15 करोड़ की आबादी वाला मध्‍यवर्ग है।
सत्र के दौरान साठोत्तरी कहानी के प्रतिनिधि कथाकार काशीनाथ सिंह मंच पर उपस्थित थे। कथा साहित्य पर हुई बहस में कथाकार जयनंदन, मोहम्‍मद आरिफ, कैलाश वनवासी, मनोज रूपड़ा, रमणिका गुप्‍ता, सृंजय, शिवमूर्ति ने भी अपने विचार व्‍यक्त किए। इस अवसर पर सभागार में वरिष्ठ कथाकार से.रा. यात्री, राजकिशोर, मनोज मोहन सहित सैकड़ों रचनाकार, शिक्षक, शोधार्थी और छात्र उपस्थित थे।
आलोचना की प्रवृत्ति भी विकसित करनी होगी – नामवर सिंह
हम लोग आज कल हिसाब चुकता करने में लगे हैं। समालोचक आज अपना दायित्‍व भूल चुका है। वह किसी रचना की समालोचना ह्रदय से नहीं कर पा रहा है। समालोचक को खुद अपनी आलोचना भी करने की प्रवृत्ति विकसित करनी होगी। शुक्रवार को हिंदी के विख्‍यात आलोचक प्रो नामवर सिंह ने हिंदी का दूसरा समय के हिंदी आलोचना कार्यक्रम में संबोधन के दौरान ये बातें कहीं। हिंदी आलोचना के इस कार्यक्रम में देश भर के कई समालोचक जमा हुए थे।
समता भवन के रामचंद्र शुक्‍ल सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम में प्रख्‍यात आलोचक प्रो. निर्मला जैन ने कहा कि आलोचक आज आतंक का पर्याय हो गया है। कोई रचनाकार भी अपनी रचना की आलोचना सुनना नहीं चाहता। यह आलोचना वह है, जो मंच से कृति की प्रशंसा करता है। उन्‍होंने कहा कि आलोचकों से सैद्धांतिकी के निर्माण की अपेक्षा करना गलत है। आलोचना को यूनिवर्सिटी ग्रांट कमिशन यूजीसी के मानदंडों में भी नहीं बांधा जा सकता है। इसके नियमों का पालन करना आलोचकों का काम नहीं है। प्रो. जैन ने कहा कि देशी तत्‍व को छोड़कर आलोचना नहीं की जा सकती। पाठकों में रचना के प्रति जागृति पैदा करना भी आलोचकों का ही दायित्‍व है। रचना और आलोचना के बीच समय अंतराल जरूरी है।
आलोचक खगेंद्र ठाकुकर ने कहा कि समाज में जनतंत्र के विकास के साथ लोकतंत्र का विकास जुड़ा है। किसी भी रचना का यथार्थ बाहर होता है। उसका सत्‍यापन आलोचक के लिए जरूरी है। आज की आलोचना कमजोर पड़ रही है। क्‍योंकि आलोचक सत्‍ता उन्‍मुख हो गए है। श्री ठाकुर ने कहा कि आलोचना और सत्‍ता एक साथ नहीं चल सकती। उन्‍होंने प्रेमचंद की रचना को सामने रखते हुए कहा कि उनकी तमाम रचनाओं के सामाजिक यथार्थ हैं। समाज की विसंगतियां उनकी रचनाओं में दिखती हैं।
कवि‍ श्‍याम कश्‍यप ने अपने वक्‍तव्‍य में कहा कि आज संकट आलोचना का नहीं है, बल्कि आलोचकों का है। आलोचक अपने संकट को आलोचना का संकट बता देते हैं। जाने माने आलोचक एवं हिंदी विद्यापीठ के प्रो. सूरज पालीवाल ने इस बात को लेकर चिंता जताई कि आज हिंदी समालोचना का स्‍वरूप नहीं बन पा रहा है। कविता के नए प्रतिमान के बाद हिंदी आलोचना में घालमेल की स्थिति बन गई है। इस मौके पर राहूल सिंह, भारत भारद्वाज, अवधेश मिश्र, गौतम सान्‍याल और अखिलेश ने भी आलोचना को लेकर अपने-अपने विचार रखे। हिंदी आलोचना का संचालन प्रो शंभु गुप्‍त ने किया। विश्‍वविद्यालय के कई शो‍धार्थियों ने भी इसमें हिस्‍सा लिया।
चेतना से कलम का सिपाही बनना है- वरवर राव
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में आयोजित हिंदी के समय के दूसरे दिन अन्य जनांदोलन सत्र में विचारोत्तेजक बहस हुई। प्रख्यात चिंतक वरवर राव ने कहा कि समाज और व्यवस्था को बदलने के लिए आंदोलन होने चाहिए। उन्होंने कहा कि देश में महिला, आदिवासी और विस्थापितों के आंदोलन चल रहे हैं। देश के कई हिस्सों में व्याप्त असमानता को भी बातचीत का विषय बनाया जाना चाहिए। आंध्र और महाराष्ट्र के कई हिस्सों में काफी असमानता है। उन्होंने कहा कि आज हम नंदीग्राम, सिंगुर, या छत्तीसगढ़ में हो रहे विस्थापन पर बात नहीं करते। आज भी अस्पृश्यता और अछूत का दौर महाराष्ट्र में चल रहा है। राव ने लेखकों की भूमिका याद दिलाते हुए कहा कि हमारा ध्यान इस पर होना चाहिए कि हमें पूंजी का दास बनना है या चेतना से कलम का सिपाही बनना है। प्रगतिशील लेखक संघ की भूमिका आज समाप्त हो रही है जो कि चिंतनीय है। जनांदोलन से जुडे अरविंद अंजुम ने अपनी बात झारखंड के संदर्भ में रखी। उन्होंने कहा कि पहले हमारी धारणा थी कि विकास के लिए बलिदान जरूरी है। उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही कि जनांदोलन में विचारधारा का अभाव है और मुद्दे हावी हैं इसलिए जरूरी है कि इसका वैचारिक आधार पुख्ता किया जाए। नंदीग्राम डायरी के लेखक पुष्पराज ने कहा कि आज पूरे मीडिया में कहीं से भी एक संपादक नहीं कहता कि आप जनांदोलन पर लिखिए। उन्होंने बताया कि पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में संघर्षरत लोग कहते थे- ‘जान देबो जमीन देबो ना’ मैं ऐसे लोगों की बात लिखने वाला पत्रकार हूं। आप राजसत्ता के साथ रहना चाहते हैं या आम जनता के साथ यह खुद आपको तय करना होगा। उन्होंने कहा कि जन आंदोलन की पत्रकारिता होनी चाहिए और कलम के सिपाहियों की फौज खड़ी होनी चाहिए। युवा कथाकार सत्यानारायण पटेल ने कुछ अधिक तल्ख अंदाज में अपनी बात मध्य प्रदेश में हो रहे जन आंदोलनों के संदर्भ में रखी। उन्होंने कहा कि चकाचौंध दुनिया को एक अंधेरे भरी आबादी के गटर में धकेल रही है। इक्कीसवीं सदी का संघर्ष मनुष्यों और पशुओं के बीच है। प्रो. रमेश दीक्षित ने कहा कि अभिव्यक्ति की जो आजादी भारत में है वह किसी दूसरे देश में नहीं है। उन्होंने कहा कि परिवर्तन की संभावना संसदीय लोकतंत्र सबसे अधिक है और हमें उसका भरसक इस्तेमाल करना चाहिए। आज बाजारवादी शक्तियों का प्रतिरोध नहीं हो रहा है, जिसका प्रतिरोध किये जाने की ज्यादा जरूरत है। उन्होंने कहा कि भारत अमेरिकी पूंजीवाद का एजेंट नहीं है। कथाकार औऱ चिंतक प्रेमपाल शर्मा ने संक्षेप में कहा कि भारत में पिछले दो वर्षों में जन आंदोलनों के लिए कुछ जमीन तैयार हुई है और संभावना है कि यह सिलसिला आगे भी चलता रहेगा। आम जनता के लिए हरियाणा में साहित्य उपक्रम प्रकाशन के माध्यम से साहित्य के लिए माहौल बनाने वाले विकास नारायण राय ने कहा कि भाषा और साहित्य दो अलग-अलग चीजें हैं। उन्होंने कहा कि आज अच्छा साहित्य लिखा जा रहा लेकिन वह वह लाखों पाठकों तक नहीं पहुंच पा रहा है। उन्होंने कहा कि साहित्य में बहुत ताकत है बस जरूरत है उसको आम जनता तक पहुंचाने की। आलोचक खगेंद्र ठाकुर ने सत्र में हुई बहस पर अपनी टिप्पणी की। सभागार में कुलपति विभूति नारायण राय, कथाकार से.रा. यात्री, गंगा प्रसाद विमल, संजीव, शिवमूर्ति, जयप्रकाश धूमकेतु, अशोक मिश्र, प्रकाश त्रिपाठी, स्वाधीन, मनोज मोहन, प्रो.के के सिंह, अमरेंद्र कुमार शर्मा, सहित विश्वविद्यालय के शोधार्थी व छात्र बड़ी संख्या में उपस्थित थे। कायर्क्रम का सफल संचालन वरिष्ठ पत्रकार व चिंतक रामशरण जोशी ने किया।
दलित साहित्‍य की हो रही है क्‍लोनिंग –प्रो. तुलसीराम
महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में हिंदी समय के दूसरे दिन `दलित अभिव्‍यक्ति` सत्र में सुविख्‍यात चिंतक प्रो. तुलसीराम ने कहा कि दलित साहित्‍य में नेतृत्‍व का प्रश्‍न खड़ा हो गया है। भारतीय साहित्‍य में दलित साहित्‍य के प्रभाव को देखते हुए कुछ लोग दलित साहित्‍य की क्‍लोनिंग कर रहे हैं। प्रो. तुलसीराम ने डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर और दलित साहित्‍य को अपने भाषण के केंद्र में रखते हुए कहा कि शिक्षित समाज की ही अभिव्‍यक्ति हो सकती है। ऐसा समाज अपना दुख, दर्द विभिन्‍न मंचों से व्‍यक्‍त कर सकता है। मजदूर और गरीबों पर कोई ध्‍यान नहीं देता क्‍योंकि वह अपने आपको अभिव्‍यक्‍त नहीं कर सकता। समाज में स्‍थापित कुछ संगठन अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता को आघात पहुंचा रहे हैं। इसे कल्‍चरल पोलिस की संज्ञा देते हुए उन्‍होंने कहा कि ऐसी स्थिति में अभिव्‍यक्ति की आजादी का सवाल हमारे सामने बड़ी चुनौती के रूप में उभर रहा है। आशीष नंदी प्रकरण का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि नंदी का बयान एकदम गलत है परंतु मुकदमें चलाकर ऐसे सवाल हल नहीं हो सकते। अच्‍छे साहित्‍य के लिए स्‍पर्धात्‍मक अभिव्‍यक्त्‍िा की जरूरत है। आत्‍मकथा और दलित साहित्‍य के संबंध को रेखांकित करते हुए उन्‍होंने कहा कि दलित आत्मकथा केवल दलित ही लिख सकता है। उन्‍होंने अपने वक्‍तव्‍य में आर्यों का भारत आना, गांधी आंबेडकर संबंध, आंबेडकर कालमार्क्‍स विमर्श आदि पर अपनी बात रखी। उन्‍होंने आंबेडकर साहित्‍य के अनुवादक चांगदेव खैरमोडे की पुस्‍तकों का उल्‍लेख करते हुए मेनिफेस्‍टो ऑफ शेडयुल कास्‍ट, लैंड नेशनलाईजेशन, लेबर पार्टी आदि की भी चर्चा की।
कृष्‍णा किरवले ने महाराष्‍ट्र और दलित साहित्‍य का उल्‍लेख करते हुए कहा कि महाराष्‍ट्र में दलित साहित्‍य की चौथी पीढ़ी चल रही है। इन तमाम पीढ़ियों के लेखन में दलित साहित्‍य ही मुखर है। वर्तमान समय में दलित साहित्‍य को सम्‍यक साहित्‍य, आंबेडकरी सम्मेलन, विद्रोही सम्मेलन, समतावादी सम्मेलन जैसे नाम दिये जा रहे हैं। यह साहित्‍य एक जाति का नहीं अपितु सभी जातियों का एक संयुक्‍त समूह है। उन्‍होंने कहा कि दलित लेखन को नकारना पूरे आंदोलन को नकारने जैसा है। लिखने वालों की प्रेरणा आंबेडकर रहे हैं और यह साहित्‍य तलवार की बजाय लेखनी को हथियार मानता है। स्‍वामी सहजानंद सरस्‍वती संग्रहालय में दलित अभिव्‍यक्ति पर हुई बहस में जे. वी. पवार, जयप्रकाश कर्दम, कृष्‍णा किरवले, जयनंदन, प्रो. हेमलता माहेश्‍वर, डॉ. निशा शेंडे आदि वक्‍ताओं ने भी अपने विचार रखे। सत्र का संचालन सहायक प्रोफेसर संदीप सपकाले ने किया।
तमाम अंधेरे के बावजूद हिंदी पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल- एन. के. सिंह
मीडिया सत्र को संबोधित करते हुए डॉ देवकुमार पुखराज
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हबीव तनवीर सभागार में हिंदी समय के तीसरे दिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हिंदी की स्थिति पर विमर्श हुआ। विमर्श में अजीत अंजुम (संपादक न्यूज 24 एन.के. सिंह) (महासचिव] नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन)] रूबी अरूण (इन्वेस्टीगेटिव एडिटर चौथी दुनिया) समेत मुकेश कुमार, ईटीवी के डॉ देवकुमार पुखराज और श्याम कश्यप ने शिरकत की। विमर्श में सभी विशेषज्ञों ने यह राय व्यक्त किया कि तमाम अंधेरा होने के बाद हिंदी पत्रकारिता का भविष्य उज्जवल है।
बीज वक्तव्य देते हुए नेशनल ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन के महासचिव एन.के. सिंह ने कहा कि हिंदी विज्ञापनों के माध्यम से बाल मनोदशा को बदलने का कार्य किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि टेलीविजन विज्ञापनों में जिस प्रकार की हिंदी का प्रयोग किया जा रहा है उसे भारतीय समाज कभी स्वीकार नहीं करता। भारत में हिंदी के मजबूत होने का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि भारत में 8 करोड़ लोग इंटरनेट सेवायुक्त मोबाईल फोन का इस्तेमाल करते हैं। जिस दिन पूरी तरह से मोबाईल में हिंदी युक्त सुविधा उपलब्ध हो जाएगी, हिंदी काफी मजबूत हो जाएगी।
विमर्श में समन्वयक की भूमिका निभा रहे मानविकी एवं सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ के अधिष्ठाता प्रो. अनिल कुमार राय अंकित ने कहा कि भारतीय परिवेश में सूचना संचार की विराटता में हिंदी की भूमिका दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, लेकिन बढ़ने के साथ-साथ हिंदी का बाजारीकरण भी होता जा रहा है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि हम कौन-सी हिंदी को प्रयोग में लायें बाजार की हिंदी या सामान्य बोलचाल की हिंदी?
चौथी दुनिया की इनवेस्टीगेटिव एडीटर रूबी अरूण ने कहा कि हिंदी के साथ सबसे बड़ी समस्या है कि हिंदी भाषियों ने इसे अपनी अस्मिता से नहीं जोड़ा । जिस कारण हिंदी रोजगार की भाषा नहीं बन सकी। उन्होंने कहा कि आजादी के 6 दशक बाद भी हिंदी राष्ट्रभाषा के बजाए राजभाषा हीं बनी है। भाषा को सरल और सहज करने की वकालत करते हुए रूबी ने कहा कि जिस दिन हिंदी सामान्य लोगों के द्वारा अपना ली जाएगी, उस दिन हिंदी के लिए किसी प्रकार के गोष्ठियों के आयोजन की आवश्यकता नहीं होगी।
कई इलेक्ट्रॉनिक चैनलों के संपादक की भूमिका निभा चुके मुकेश कुमार ने हिंदी के हो रहे बाजारीकरण पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि हिंदी को नवउपनिवेशवादी ताकतें अपना हथियार बना रही हैं। उन्होंने कहा कि बाजार का हिंदी से प्रेम हिंदी के पक्ष में नहीं है। हिंदी बोलने वाले लोगों का बड़ा बाजार होने के कारण मसालेदार और चटपटी हिंदी का प्रचलन देखने को मिल रहा है। कुमार ने हिंदी को मुक्ति की भाषा बनाने की आवश्यकता जताई।
मीडियाविद् प्रो. श्याम कश्यप ने कहा कि मीडिया पर बाजार पूरी तरह से हावी हो गया है। बाजार के दबाव में मीडिया व्यक्ति के सोच, विचार हर चीज कर रहा है, उन्होंने इसे रोकने की आवश्यकता जताई। उन्होंने बाजार के बढ़ते प्रभाव को मीडिया के अस्तित्व के लिए खतरा बताया।
मीडिया सत्र को संबोधित करते हुए देवकुमार पुखराज
ईटीवी के डॉ देवकुमार पुखराज ने कहा कि मीडिया से आम आदमी गायब होता जा रहा है। आम आदमी के दर्द को कोई भी मीडिया संस्थान नहीं दिखाता। उन्होंने पत्रकारिता के छात्रों से अपील करते हुए कहा कि पत्रकारिता रोब जमाने वाला पेशा नहीं है। इसमें काम के लिए संवेदनशील होने के साथ-साथ जनसरोकारों का भी ध्यान रखना चाहिए।
समापन वक्तव्य में न्यूज 24 चैनल के संपादक अजीत अंजुम ने कहा कि हमें हिंदी इलेक्‍ट्रानिक पत्रकारिता की ओर से नाउम्मीद होने की आवश्यकता नहीं है। देश में अंग्रेजी के सिर्फ तीन चैनल हैं जबकि हिंदी चैनलों की संख्या सैकड़ों की तादाद में है। उन्होंने विद्वानों द्वारा मीडिया पर बाजार के दबाव की चिंता को खारिज करते हुए कहा कि मीडिया पर दबाव शुरूआत से हीं रहा है। इसके बाबवजूद सजग पत्रकारों ने जनसरोकार को ध्यान में रखा। तमाम मीडिया घराने पूंजीपतियों के हैं लेकिन बाजार कभी प्रभावी नहीं रहा है।
सेमिनार के दौरान विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय, विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों के प्राध्यापक, विद्यार्थी, शोधार्थी समेत सेमिनार में भाग लेने आए देश भर के बुद्धिजीवी उपस्थित रहे।

मंचमुखी नहीं, जनोन्‍मुखी बने प्रिंट पत्रकारिता – अरविंद चतुर्वेद
हिंदी के वरिष्‍ठ पत्रकार और डीएनए के संपादक अरविंद चतुर्वेद ने कहा है कि हिंदी पत्रकारिता आज मंचमुखी है जबकि उसे जनोन्‍मुखी होना चाहिए। श्री चतुर्वेद आज रविवार को सआदत हसन मंटो कक्ष में हिंदी प्रिंट पत्रकारिता पर आयोजित संगोष्‍ठी को संबोधित कर रहे थे। महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय के ‘हिंदी का दूसरा समय’ के तीसरे दिन आयोजित इस संगोष्‍ठी में श्री चतुर्वेद का यह भी कहना था कि हिंदी पत्रकारिता को सहस्‍त्र बाजू की भूमिका में न आते हुए अपने भाषिक समाज के सरोकारों से जुड़ना चाहिए। वरिष्‍ठ पत्रकार और कल्‍पतरू एक्‍सप्रेस के संपादक अरूण कुमार त्रिपाठी ने बीज वक्‍तव्‍य देते हुए कहा कि पत्रकारिता को हाशिए के लोगों की जुबान बननी चाहिए। किसान, आदिवासी और ग्रामीण समाज के बुनियादी सवाल उठ़ाकर पत्रकारिता अपनी बेहतर भूमिका सुनिश्चित कर सकती है।


लोकमत समाचार के संपादक विकास मिश्र ने कहा कि आज प्रिंट पत्रकारिता के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि पत्रकारों की जो नई पीढ़ी आ रही है, वह योग्‍य नहीं है। पुरानी पीढ़ी के संपादकों ने अपने योग्‍य उत्‍तराधिकारी भी नहीं बनाए। आज नए पत्रकारों के पास भाषा का भी पर्याप्‍त ज्ञान नहीं है। वरिष्‍ठ पत्रकार सी. के. नायडू ने कहा कि आज हिंदी पत्रकारिता हिंग्‍लिश पत्रकारिता बन गई है। उन्‍होंने एक खबर पढ़कर इसका उदाहरण भी दिया। वरिष्‍ठ पत्रकार विजय किशोर मानव ने कहा कि चालीस साल पत्रकारिता करने के बाद उन्‍हें आज लगता है कि नई वेब पत्रकारिता की संभावना उनके सामने बनी हुई है। वरिष्‍ठ पत्रकार और आउटलुक के संपादक नीला‍भ मिश्र ने कहा कि आज पूंजी का दबाव हिंदी पत्रकारिता पर बहुत ज्‍यादा बढ़ गया है। उन्‍होंने कहा कि आज पत्रकारिता में भाषा के अलावा पेड न्‍यूज समेत कई विकृतियां आ गई हैं। सन्‍मार्ग के सहायक संपादक अभिज्ञात ने कहा कि अंग्रेजी अखबारों की पृष्‍ठ संख्‍या बहुत ज्‍यादा होती है और हिंदी अखबारों की कम पृष्‍ठ संख्‍या होती है। इसके बावजूद विज्ञापन का प्रवाह इसके उलट होता है। पत्रकारिता के अध्‍येता डॉ. श्‍याम कश्‍यप ने कहा कि विश्‍व कई संकटों से जूझ रहा है। पत्रकारिता का संकट उससे अलग नहीं है। वरिष्‍ठ पत्रकार प्रकाश चंद्रायण ने अपने आलेख में पत्रकारिता के इतिहास में झांकते हुए उसके स्‍वरूप में आए बदलावों की विस्‍तृत चर्चा की। कार्यक्रम का संचालन करते हुए विश्‍वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर तथा कोलकाता केंद्र के प्रभारी डॉ. कृपाशंकर चौबे ने कहा कि आज प्रिंट पत्रकारिता के सामने जो संकट हैं, उनकी पहचान यदि हम कर रहे हैं तो यही आश्‍वासन है कि हम उसका समाधान भी ढूंढ़ लेंगे। इस कार्यक्रम में विश्‍वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. जी गोपीनाथन, डॉ. के. एम. मालती, वरिष्‍ठ कथाकार से.रा. यात्री, प्रो. रामशरण जोशी, स्‍त्री अध्‍ययन विभाग के अध्‍यक्ष प्रो. शंभू गुप्‍त, सुशिला टाकभोरे, मधु कांकरिया, गौतम सान्‍याल, आशु सक्‍सेना, विश्‍वविद्यालय के विशेष कर्तव्‍य अधिकारी नरेंद्र सिंह, हिंदी अधिकारी राजेश यादव, जनसंपर्क अधिकारी बी. एस. मिरगे, वचन के संपादक तथा इलाहाबाद केंद्र के सहायक निदेशक प्रकाश त्रिपाठी समेत भारी संख्‍या में शोधार्थी और शिक्षक उपस्थित थे।
आज पैसे के लिए बनती हैं फिल्में – मोहन आगाशे
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में आयोजित हिंदी का दूसरा समय कार्यक्रम के चौथे दिन (सोमवार) मुख्यधारा का सिनेमा सत्र में अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए मोहन आगाशे ने कहा कि पहले लोग फिल्में समाज के लिए बनाते थे आज पैसा के लिए बनाते हैं। मुख्यधारा के सिनेमा ने भाषा की संप्रेषणीयता, संवेदनशीलता, बिंबों, एवं प्रतीकों का बड़ी खूबी से व्याख्यायित किया है। पहले जब फिल्म ट्रेनिंग स्कूल नहीं थे तब भी अच्छी फिल्में बनती थीं और आज भी बन रही हैं। उन्होंने कहा कि भारत में जहां अशिक्षा है वहां फिल्म मनोरंजन तो करती है लेकिन उसकी बड़ी सामाजिक जिम्मेदारी भी है।
हबीब तनवीर सभागार में आयोजित कार्यक्रम का संचालन सूत्र संभालते हुए प्रो. सुरेश शर्मा ने विस्तार से विषय पर प्रकाश डाला प्रख्यात कथाकार धीरेंद्र अस्थाना ने कहा कि सिनेमा कहानी के घर में लौट रहा है। उन्होंने कहा कि जो रचेगा वही बचेगा यह कहानी पर ही नहीं बल्कि सिनेमा पर भी लागू होता है। सांस्कृतिक पत्रकार अजित राय ने कहा कि सब फिल्में महान हैं, विलक्षण हैं और इतिहास में दर्ज हो रही हैं। उन्होंने कहा कि मुंबईया सिनेमा जिस तरह देश को बरबाद कर रहा है वह देखते ही बनता है। यहां नकलची फिल्मकार अधिक हैं। राय ने जोर देकर कहा कि १९८० के बाद हिंदी सिनेमा में एक भी ढंग की फिल्म नहीं बनी है विशेषकर हिंदी सिनेमा में जिसकी चर्चा की जा सके। सिनेमा चिंतक प्रहलाद अग्रवाल ने कहा कि मैं १९५५ से लगातार हिंदी सिनेमा देख रहा हूं लेकिन कभी भी निराश नहीं हुआ। उन्होंने कहा कि सिनेमा उस आदमी का माध्यम है जो थका हुआ है और उसका मनोरंजन करना आसान काम नहीं है। कमलेश पांडेय ने कहा कि फिल्म की असली ताकत है वह सब कुछ दिखा सकती है चाहे वह साहित्य हो या अन्य कोई विषय। पांडेय ने कहा कि हमारा सिनेमा न यूरोप से आया है न अमेरिका से आया है हमारी अपनी मौलिक व अलग परिकल्पना और विचार है। उन्होंने हिंदी साहित्यकारों पर आरोप लगाया कि उन्होंने फिल्मों के साथ नाइंसाफी की। इस सत्र में रविकांत और आजाद भारती ने अपने विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर सभागार में कुलपति विभूति नारायण राय, दिनेश कुमार शुक्ल, अजेय कुमार, पराग मांदले, प्रकाश त्रिपाठी, सुधीर सक्‍सेना, सूरज प्रकाश सहित की विशेष उपस्थिति रही।
भाषा की जाति से हो रही है परेशानी- रघु ठाकुर
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में विगत पांच दिनों से चल रहे ‘हिंदी का दूसरा समय’ कार्यक्रम का आज मंगलवार को समापन हुआ। इस अवसर पर मुख्यल अतिथि के रूप में अपनी बात रखते हुए सुपरिचित समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर ने कहा कि आज मूल्यों का संकट है। शिक्षा का बाजारीकरण हो गया है, पैसे का बोलबाला है। समाज में यह स्थिति पैदा हो गयी है कि आज कोई भी मां अपने बेटे को भगतसिंह और बेटी को लक्ष्मीबाई नहीं बनाना चाहती। उन्होंने कहा कि हमें जाति शब्द से परेशानी होती है चाहे वह भाषा की जाति हो या अन्य‍ प्रकार की। इसे मिटाने ने के लिए हमें आज के समय में कबीर से सीख लेनी चाहिए। कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के प्रतिकुलप।ति प्रो. . अरविंदाक्षन ने की। इस अवसर पर मंच पर कार्यक्रम के संयोजक राकेश मिश्र, प्रेम कुमार मणि, राजेन्द्रर राजन, प्रो. रामशरण जोशी उपस्थित थे। रघु ठाकुर ने कहा कि जिस समय लोहिया ने देश में आंदोलन को सम्भाला था उस समय जाति और लिंग के बंटवारे से मुक्ति पाने की बात की थी, क्या इससे बड़ी प्रगतिशीलता की कोई और बात हो सकती है। हिंदी भाषी राजनीति का उल्लेख करते हुए रघु ठाकुर ने कहा कि नवसामंतवाद, नव-ब्राम्हाणवाद जैसी कई बीमारियां हिंदी राजनीति में पैदा हो गयी हैं, जिससे हमें बचाने का प्रयास करना होगा। प्रेम कुमार मणि ने कहा कि हिंदी पट्टी में गतिशीलता और राजनीति पर आकलन करनी ही रही होगी। हिंदी नवजागरण के बारे में उन्होंने कहा कि इसकी चर्चा सबसे पहले डॉ. राम विलास शर्मा के यहां मिलती है। उनका कहना था कि गांधी जी ने हिंदी पट्टी वालों से पूछा था कि आपके यहां कोई टैगोर क्यों नहीं हुआ। गांधी जी के इसी सवाल में हिंदी की गतिशीलता का सवाल भी छिपा हुआ है। हिंदी का दूसरा समय को लोकप्रियता और प्रगतिशीलता से जोड़ते हुए राजेन्द्र राजन ने भी अपनी बात डॉ. रामविलास शर्मा के हवाले से कही। डॉ. प्रेम सिंह ने जायसी की पक्तियों का उल्लेख करते हुए कहा कि प्रगतिशीलता ने दो तरह की राजनीति पैदा की है, यह कुछ को बाहर कर देती है और कुछ को अपने साथ शामिल कर लेती है। समापन समारोह की अध्यक्षता करते हुए प्रो. अरविंदाक्षन ने कहा कि इन पांच दिनों में आए विद्वानों के बीच से बहुत सार्थक विचार आए, यही नहीं हिंदी का दूसरा समय इस मामले में भी सार्थक कहा जाएगा कि इसमें देशभर के साहित्यकारों ने शिरकत कर इसे सफल बनाया। कार्यक्रम के संयोजक राकेश मिश्र ने इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए देश भर से पहुंचे साहित्य कारों, पत्रकारों, आंदोलनकारियों और राजनीतिक चिंतकों के प्रति आभार व्यतक्तो किया। कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए विश्व विद्यालय के परिसर विकास विभाग, वित्त विभाग एवं अन्‍य समितियों ने पूरी जिम्मे दारी के साथ अपने कर्तव्यक का निर्वहन किया। कार्यक्रम का संचालन संचार एवं मीडिया अध्य यन केंद्र के प्रो. रामशरण जोशी ने किया। समापन पर देश भर से आए बुद्धिजीवी, विश्वरविद्यालय के छात्र, अध्यांपक, कर्मचारी आदि उपस्थित थे।



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