हिंदी शोध संसार

शनिवार, 6 अगस्त 2011

कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना

श्रद्धा-अश्रद्धा मन का रक्तबीज है।
बुद्धि मन की ही चंडी है।
बुद्धि अश्रद्धा का भी संहार करती है।
श्रद्धा का भी संहार कर सकती है।
अबुद्धि शरणागत का स्रोत है।
अबुद्धि खड़ा नहीं कर सकती है प्रश्नचिह्न।
मीमांसा की ओर जाने की बात ही छोड़िए।
ये कविता नहीं।
कविता तो अक्षुण्ण होती है
ये तो भीड़ है।
अव्यक्त भीड़।
उन कवियों की भीड़
जिनके मन में विचार ही विचार हैं।
नहीं हैं तो शब्द।
नहीं है तो अलंकार
नहीं है तो पिंगल।
आखिर कैसे बनेगी कविता
कविता खेतों की ककड़ी नहीं
शरणागत ने अबुद्धि पैदा कर दी है।
हर ओर, चारों ओर।
जो अबुद्धि का दास नहीं।
उसकी कोई दशा नहीं।
निजता का सम्मान
हम करते हैं।
मगर, मेरी निजता का
सम्मान कौन करेगा।
क्योंकि मैंने अबुद्धि की दासता स्वीकार नहीं की।
नहीं हुआ शरणागत।
तो देख रहे हो मेरी दशा।
व्यवस्था और तंत्र का नाम खड़ी इमारत
मेरे ऊपर गिर गई
नष्ट कर देना चाहती है मुझे।

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मां कश्चित दुख भाग भवेत।
सभी सुखी हों, सभी निरोग हो। सभी अच्छे दिखें। किसी को कोई दुख न हो। परवरदिगार। परमपिता परमेश्वर ये यही कामना रहती है। लेकिन इस कामना के बावजूद लोग दुखी हैं। निराश हैंपीड़ित हैं। कई दुखी और निराश लोग आत्महत्या कर लेते हैं। मगर, कई पीड़ित लोग चुपके से ईलाज के लिए विदेश चले जाते हैं। अक्सर ये लोग बड़े होते हैं। मगर, सवाल तब उठता है। जब कोई सबसे बड़ा व्यक्ति(?) अपने ईलाज के लिए विदेश चला जाता है. वो चुपके-चुपके। किसी को पता भी नहीं चलता है कि वो किस हाल में है। उसे क्या हुआ है। वो ईलाज के लिए कहां जा रहा है। क्या देश में उसका इलाज नहीं हो सकता है। नहीं तो क्यों नहीं हो सकता है। क्या दे
श में कुशल डॉक्टरों की कमी है। क्या देश में अच्छे अस्पताल नहीं हैं(ये तो सब जानते हैं, मगर सवाल उन लोगों से है जो भारत को महाशक्ति या विश्वशक्ति समझते हैं। गर्व तीस इंच का सीना छत्तीस का हो जाता है) नहीं है तो क्यों नहीं है। है तो एक दो ही क्यों है।

बगल का चित्र- देश के प्रसिद्ध स्वास्थ्य संस्थान एम्स का है।

साठ साल पहले भी हम ऐसे थे। आज भी हम ऐसे हीं है। आखिर देश में सुविधाएं क्यों उपलब्ध होंगी। क्योंकि देश के चुनिंदा लोगों, मंत्रियों, संतरियों, नेताओं के लिए स्वास्थ्य की तमाम सुविधाएं विदेशों में हैं। उनकी शिक्षा-दीक्षा की तमाम व्यवस्था विदेशों में हैं। वो अंग्रेजी में गिटिर-पिटिर करते हैं और देश का शासक बन जाते हैं. ऐसे शासक हमारे लिए सुविधाएं क्यों मुहैया कराएंगे। क्यों अच्छे स्कूल बनने देंगे। उनके बच्चे भी पढ़ सकेंगे। क्यों ऐसे अस्पताल बनने देंगे। जहां उनका इलाज भी हो सकेगा। जब इनका कपड़ा भी विदेशों से धुलकर आता है तो बाकी चीजों पर माथापच्ची करना बेकार है।


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