हिंदी शोध संसार

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

अंधे के हाथ में बटेर लग जाए तो वो खुद को शिकारी समझने लगता है

ऐसे ही शिकारी संसद, लोकतंत्र, संविधान की आड़ जनमत को ठेंगा दिखाने से बाज नहीं आते हैं। बीस से पच्चीस प्रतिशत लोगों का वोट हासिल कर खुद का जनता का प्रतिनिधि समझने लगते हैं और जनता के सच्चे प्रतिनिधियों की खिल्ली उड़ाते हैं। उनको तदवीर से तकदीर बनाने की सीख देते हैं। उनको चुनाव लड़ने के लिए कहते हैं। घोटाले पर घोटाले करते हैं और बेशर्मों की तरह संविधान, लोकतंत्र, प्रजातंत्र के पहरेदार होने का दंभ भरते हैं। ऐसे दंभी पाखंडियों से कौन पूछे कि जब इनका पेशा वकालतगिरी है तो ये राजनीति को क्यों गंदा करने चले आते हैं। क्यों राजनीति को वकालत की तराजू पर तौलते हैं। सच को झूठ, झूठ को सच बनाते हैं। कभी जीरो लॉस का सिद्धांत लाते हैं तो कभी खुद और अपने जैसे लोगों को बेदाग साबित कर जाते हैं। जो लोग बीस से पच्चीस प्रतिशत लोगों को वोट हासिल कर चुनाव जीतते हैं वैसे ही लोग दूसरों को सौ प्रतिशत वोट हासिल करने के लिए कहते हैं।

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