डॉ देवकुमार पुखराज
भारत में संगठित किसान आंदोलन खड़ा करने का श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को जाता है. उन्होंने अंग्रेजी दासता के खिलाफ लड़ाई लड़ी और किसानों को जमींदारों के शोषण से मुक्त कराने के लिए निर्णायक संघर्ष किया. दण्डी संन्यासी होने के बावजूद सहजानंद ने रोटी को हीं भगवान कहा और किसानों को भगवान से बढ़कर बताया. स्वामीजी ने नारा दिया था-
जो अन्न-वस्त्र उपजाएगा ,अब सो कानून बनायेगा,
ये भारतवर्ष उसी का है, अब शासन वहीं चलायेगा।
ऐसे महान नेता,युगद्रष्टा और किसानों के मसीहा का जन्म उत्तरप्रदेश के गाजीपुर जिले के देवा गांव में सन् 1889 में महाशिवरात्रि के दिन हुआ था. स्वामीजी के बचपन का नाम नौरंग राय था. उनके पिता बेनी राय मामूली किसान थे. नौरंग जब छह साल के थे तभी उनकी माताजी का स्वर्गवास हो गया. चाची ने उनका लालन-पालन किया. कहते हैं पूत के पांव पलने में हीं दिखने लगते हैं. बालक नौरंग में भी महानता के गुण बचपन से हीं दिखने लगे. प्राथमिक शिक्षा के दौरान हीं उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाना शुरू कर दिया .पढ़ाई के दौरान हीं उनका मन आध्यात्म में रमने लगा. बालक नौरंग ये देखकर हैरान थे कि कैसे भोले-भाले लोग नकली धर्माचार्यों से गुरु मंत्र ले रहे हैं. उनके बालमन में धर्म की इस विकृति के खिलाफ पहली बार विद्रोह का भाव उठा. उन्होंने इस परंपरा के खिलाफ आवाज उठाने का संकल्प लिया. धर्म के अंधानुकरण के खिलाफ उनके मन में जो भावना पली थी कालांतर में उसने सनातनी मूल्यों के प्रति उनकी आस्था को और गहरा किया. उनके मन में वैराग्य पैदा होने लगा. घर वालों ने बच्चे की ये हाल देखी तो समय से पहले हीं उनकी शादी करा दी. लेकिन जिसके सर पर समाज और देश की दशा सुधारने का भूत सवार हो वो भला पारिवारिक जीवन में कहां बंधने वाला था. संयोग ऐसा रहा कि गृहस्थ जीवन शुरू होने के पहले हीं उनकी पत्नी भगवान को प्यारी हो गयीं. ये सन् 1905 के आखिरी दिनों की बात है. हालांकि दो साल बाद हीं उन्होंने विधिवत संन्यास लेने का फैसला किया और दशनामी दीक्षा लेकर स्वामी सहजानंद सरस्वती हो गये. बाद के सात साल उन्होंने धार्मिक ग्रंथों को पढ़ने और सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों का अध्ययन करने में बिताया. इसी दौरान उन्हें काशी में समाज की एक और कड़वी सच्चाई से रू-ब-रू होना पड़ा. दरअसल काशी के कुछ पंड़ितों ने उनके संन्यास का ये कहकर विरोध किया कि ब्राह्मणेतर जातियों को दण्ड धारण करने का अधिकार नहीं है. स्वामी सहजानंद ने इसे चुनौती के तौर पर लिया और विभिन्न मंचों पर शास्त्रार्थ कर ये साबित किया कि भूमिहार भी ब्राह्मण हीं हैं और हर योग्य व्यक्ति संन्यास ग्रहण करने की पात्रता रखता है.बाद के दिनों में ब्रह्मर्षि वंश विस्तर और भूमिहार-ब्राह्मण परिचय जैसे ग्रंथ लिखकर उन्होंने अपनी धारण को सैद्धांतिक जामा पहनाया. वैसे स्वामीजी ने जब बिहार में किसान आंदोलन शुरू किया तो उनके निशाने पर अधिकांश भूमिहार जमींदार हीं थे जो अपने इलाके में किसानों के शोषण का पर्याय बने हुए थे.
महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुआ असहयोग आंदोलन बिहार में गति पकड़ा तो सहजानंद उसके केन्द्र में थे. घूम-घूमकर उन्होंने अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को खड़ा किया. इस अभियान ने युवा संन्यासी को गांव-देहात की स्थिति को नजदीक से देखने का पर्याप्त अवसर दिया. लोग ये देखकर अचरज में पड़ जाते कि गेरूआ वस्त्रधारी ये कैसा संन्यासी है जो मठ-मंदिरों में तप साधना करने की बजाय दलितों-वंचितों की स्थिति को जानने-समझने में अपनी ऊर्जा खपा रहा है. ये वो समय था जब स्वामी जी भारत को समझ रहे थे. इस क्रम में उन्हें एक अजूबा अनुभव हुआ. स्वामीजी ने देखा कि अंग्रेजी शासन की आड़ में जमींदार गरीब किसानों पर जुल्म ढा रहे हैं. बिहार के गांवों में गरीब लोग अंग्रेजो से नहीं वरन् गोरी सत्ता के इन भूरे दलालों से आतंकित हैं. किसानों की हालत गुलामों से भी बदतर है. युवा संन्यासी का मन एक बार फिर नये संघर्ष की ओर उन्मुख होता है. वे किसानों को लामबंद करने की मुहिम में जुटतें हैं. सन् 1929 में उन्होंने बिहार प्रांतीय किसान सभा की नींव रखी. इस मंच से उन्होंने किसानों की कारुणिक स्थिति को उठाया. जमींदारों के शोषण से मुक्ति दिलाने और जमीन पर रैयतों का मालिकाना हक दिलाने की मुहिम शुरू की. इस रूप में देखें तो भारत के इतिहास में संगठित किसान आंदोलन खड़ा करने और उसका सफल नेतृत्व करने का एक मात्र श्रेय स्वामी सहजानंद सरस्वती को जाता है. कांग्रेस में रहते हुए स्वामीजी ने किसानों को जमींदारों के शोषण और आतंक से मुक्त कराने का अभियान जारी रखा. उनकी बढ़ती सक्रियता से घबड़ाकर अंग्रेजों ने उन्हें जेल में डाल दिया. कारावास के दौरान गांधीजी के कांग्रेसी चेलों की सुविधाभोगी प्रवृति को देखकर स्वामीजी हैरान रह गये. उन्होंने देखा कि जेल में बंद कांग्रेस के कार्यकर्ता और नेता सुविधापूर्वक जीने के लिए कैसे-कैसे हथकंड़े अपना रहे हैं. स्वभाव से हीं विद्रोही स्वामीजी का कांग्रेस से मोहभंग होना शुरू हो गया. जब1934 में बिहार प्रलयंकारी भूकंप से तबाह हुआ तब स्वामीजी ने बढ़-चढ़कर राहत और पुनर्वास के काम में भाग लिया. इस दौरान स्वामीजी ने देखा कि प्राकृतिक आपदा में अपना सबकुछ गंवा चुके किसानों को जमींदारों के लठैत टैक्स देने के लिए प्रताड़ित कर रहे है. उन्होंने तब पटना में कैंप कर रहे महात्मा गांधी से मिलकर किसानों की दशा बतायी और दोहरी मार से मुक्ति दिलाने के लिए प्रयास करने की मांग की. जवाब में गांधीजी ने कहा कि जमींदारों के अधिकांश मैनेजर कांग्रेस के कार्यकर्ता है .वे निश्चित तौर पर गरीबों की मदद करेंगे. गांधीजी ने दरभंगा महाराज से मिलकर भी किसानों के लिए जरूरी अन्न का बंदोबस्त करने के लिए स्वामीजी से कहा. कहते है कि गांधीजी की ऐसी बातें सुनकर स्वामी सहजानंद आग बबूला हो गये और तत्काल वहां से ये कहकर चल दिए कि किसानों का सबसे पड़ा शोषक तो दरभंगा राज हीं है. मैं उससे भीख मांगने कभी नहीं जाऊंगा.इस घटना ने कांग्रेस नेताओं की कार्यशैली से नाराज चल रहे स्वामीजी का गांधीजी से भी पूरी तरह मोहभंग कर दिया.विद्रोही सहजानंद ने एक झटके में हीं चौदह साल पुराना संबंध तोड़ दिया और किसानों को हक दिलाने के लिए संघर्ष को हीं जीवन का लक्ष्य घोषित कर दिया. उन्होंने नारा दिया -कैसे लोगे मालगुजारी,लट्ठ हमारा जिन्दाबाद. बाद में यहीं नारा किसान आंदोलन का सबसे प्रिय नारा बन गया.वे कहते थे ,अधिकार हम लड़ कर लेंगे और जमींदारी का खात्मा करके रहेंगे. उनका ओजस्वी भाषण किसानों पर गहरा असर डालता था. काफी कम समय में किसान आंदोलन पूरे बिहार में फैल गया. स्वामीजी का प्रांतीय किसान सभा संगठन के तौर पर खड़ा होने के बजाए आंदोलन बन गया. इस दौरान किसानों की सैकड़ों रैलियां और सभाएँ हुई. बड़ी संख्या में किसान स्वामीजी को सुनने आते थे. बाद के दिनों में उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी नेताओं से हाथ मिलाया. अप्रैल,1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना हुई और स्वामी सहजानंद सरस्वती को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया. एम जी रंगा, ई एम एस नंबूदरीपाद, पंड़ित कार्यानंद शर्मा, पंडित यमुना कार्यजी,आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, पंडित यदुनंदन शर्मा, पी. सुन्दरैया और बंकिम मुखर्जी जैसे तब के कई नामी चेहरे किसान सभा से जुड़े थे. सभा ने उसी साल किसान घोषणा पत्र जारी कर जमींदारी प्रथा के समग्र उन्मूलन और किसानों के सभी तरह के कर्ज माफ करने की मांग उठाई. अक्टूबर 1937 में सभा ने लाल झंड़ा को संगठन का निशान घोषित किया.किसानों के हक की लड़ाई बड़े पैमाने पर लड़ी जाने लगी थी. दस्तावेज बताते हैं कि स्वामी सहजानंद के नेतृत्व में किसान रैलियों में जुटने वाली भीड़ कांग्रेस की सभाओं में आने वाली भीड़ से कई गुना ज्यादा होती थी.संगठन की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1935 में इसकी सदस्यों की संख्या अस्सी हजार थी जो 1938 में बढ़कर दो लाख पचास हजार हो गयी. शायद यहीं वजह हुआ कि इसके नेताओं की कांग्रेस से दूरियां बढ़ गयी. वैसे बिहार और संयुक्त प्रांत में कांग्रेस सरकार के साथ कई बार इनकी तीखी झड़पें भी हुई. किसान आंदोलन के संचालन के लिए पटना के समीप बिहटा में उन्होंने आश्रम स्थापित किया. वो सीताराम आश्रम आज भी है .
किसान हितों के लिए आजीवन सक्रिय रहे स्वामी सहजानंद ने नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ कई रैलियां की. वे उनके फारवॉड ब्लॉक से भी निकट रहे. सीपीआई भी स्वामीजी को अपना आदर्श मानती रही. आजादी की लड़ाई के दौरान जब उनकी गिरफ्तारी हुई तो नेताजी ने 28 अप्रैलप्रैल को ऑल इंडिया स्वामी सहजानंद डे घोषित कर दिया. बिहार के प्रमुख क्रांतिकारी लोक कवि बाबा नागार्जुन भी स्वामीजी से अति प्रभावित थे. उन्होंने वैचारिक झंझावातों के दौरान बिहटा आश्रम में जाकर स्वामीजी से मार्गदर्शन प्राप्त किया था.
स्वामी सहजानंद संघर्ष के साथ हीं सृजन के भी प्रतीक पुरूष हैं. अपनी अति व्यस्त दिनचर्या के बावजूद उन्होंने कोई दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकों की रचना की. सामाजिक व्यवस्था पर जहां उन्होंने भूमिहार ब्राह्मण परिचय, झूठा भय मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण कौन,ब्राह्मण समाज की स्थिति जैसी पुस्तकें हिन्दी में लिखी वहीं ब्रह्मर्षि वंश विस्तर और कर्मकलाप नामक दो ग्रंथों का प्रणयन संस्कृत और हिन्दी में किया.उनकी आत्मकथा मेरा जीवन संघर्ष के नाम से प्रकाशित है. आजादी की लड़ाई और किसान आंदोलन के संघर्षों की दास्तान उनकी -किसान सभा के संस्मरण,महारुद्र का महातांडव,जंग और राष्ट्रीय आजादी, अब क्या हो,गया जिले में सवा मास आदि पुस्तकों में दर्ज हैं. उन्होंने गीता ह्रदय नामक भाष्य भी लिखा .
किसानों को शोषण मुक्त करने और जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ाई लड़ते हुए स्वामी जी 26 जून ,1950 को महाप्रयाण कर गये. उनके जीते जी जमींदारी प्रथा का अंत नहीं हो सका. लेकिन उनके द्वारा प्रज्जवलित ज्योति की लौ आज भी बुझी नहीं है. आजादी मिलने के साथ हीं जमींदारी प्रथा को कानून बनाकर खत्म कर दिया गया. लेकिन प्रकारांतर से देश में किसान आज भी शोषण -दोहन के शिकार बने हुए हैं. कर्ज और भूख से परेशान किसान आत्महत्या कर रहे हैं. आज यदि स्वामीजी होते तो फिर लट्ठ उठाकर देसी हुक्मरानों के खिलाफ संघर्ष का ऐलान कर देते. लेकिन दुर्भाग्य से किसान सभा भी है. उनके नाम पर अनेक संघ और संगठन सक्रिय हैं. लेकिन स्वामीजी जैसा निर्भीक नेता दूर -दूर तक नहीं दिखता. उनके निधन के साथ हीं भारतीय किसान आंदोलन का सूर्य अस्त हो गया. राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में दलितों का संन्यासी चला गया.
-पुखराज
जय हिंदी जय भारत
इस समय ऐसे महान लोगों की सबसे अधिक आवश्यकता है.
जवाब देंहटाएंnice
जवाब देंहटाएंजानकारी के लिये आभार!
जवाब देंहटाएं। किसानों की हालत गुलामों से भी बदतर है।
जवाब देंहटाएंch.sanjeev tyagi
33,gazawali Roorkee road muzaffar nagar
09457392445,09760637861
। किसानों की हालत गुलामों से भी बदतर है।
जवाब देंहटाएंch.sanjeev tyagi
33,gazawali Roorkee road muzaffar nagar
09457392445,09760637861
ati sundar lekh hai badhai.....
जवाब देंहटाएंBHART KE KISANO K[ MJBURI KO SMJHE GA KON JIT KAR GYE SDAN OR HO GYE BHISM SA MON
जवाब देंहटाएंBHART KE KISANO K[ MJBURI KO SMJHE GA KON JIT KAR GYE SDAN OR HO GYE BHISM SA MON
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