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सोमवार, 22 सितंबर 2008

मन कर्म वचन चरण अनुरागी

लंका दहन के पश्चात पवनपुत्र हनुमान भगवान राम के पास लौटते है, भगवान राम, हनुमान से, सीता का हाल पूछते हैं-
कहहु तात केहि भांति जानकी.
रहति करती रक्षा स्वप्रान की.
हे प्रिय हनुमान- जानकी किस प्रकार से रहती है और अपने प्राणों की रक्षा करती है.
हनुमान जी कहते हैं-
नाम पाहरू दिवस निशि, ध्यान तुम्हार कपाट.
लोचन निज पद जंत्रित, जाहि प्राण केहिं बाट..
आपका नाम दिन-रात का पहरेदार है, आपका ध्यान किवाड़ है, मां जानकी अपने नेत्रों को अपने ही चरणों में लगाए रहती है, यही ताला है, फिर हे प्रभु, प्राण किस मार्ग से जाए.
चलत मोहित चुड़ा मणि दीन्ही.
रघुपति हृदय लाय सो लीन्हीं.
नाथ जुगल लोचन भरे बारि.
बचन कहे कछु जनक कुमारी.
हे नाथ, नेत्रों में जलभर जनककुमारी ने मुझसे कुछ वचन कहे.
अनुज समेत गहेहु प्रभु चरणा.
दीनबंधु प्रनतारति हरणा.
मन क्रम बचन चरण अनुरागी.
केहि अपराध नाथ हौं त्यागी.
कहना, आप दीनबंधु हैं, शरणागतों की रक्षा करनेवाले हैं. फिर तो मैं मन, कर्म और वचन से आपके चरणों की अनुरागिनी हूं. तो हे प्रभू, फिर किस अपराध में आपने मुझे त्याग दिया.
अवगुण एक मोर मैं माना.
बिछुड़त प्राण न कीन्ह पयाना.
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा.
निसरत प्राण करहिं हठबाधा.
कहना, हे नाथ, एक अवगुण तो मैं मानती हूं कि आपसे बिछड़ते ही प्राण क्यों नहीं निकल गए. परंतु हे नाथ यह तो नयनों का अपराध है जो आपको एकबार देखना चाहता है, और यही हठ कर प्राणों को निकलने से रोकता है.
विरह अग्नि तनु तूल समीरा.
श्वास जरइ छन माही शरीरा.
नयन स्रवहिं जल निज हित लागी.
जरैं न पाव देह बिरहागी.
यह विरह अग्नि है, शरीर रूई का ढेर है, श्वास पवन है(अग्नि और पवन से संयोग से रूई का ढेर-शरीर, तुरंत जल सकता है), पर हे नाथ आंखों से बहते अश्रु के धार ऐसा नहीं होने देती है.
सीता के अति विपत विशाला.
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला.
हनुमान जी बोले, हे नाथ, सीता का दुख अत्यंत बड़ा है. यह नहीं कहना ही ठीक होगा, क्योंकि इससे आपको बहुत दुख होगा.
निमिष निमिष करूणानिधि जाहिं कलप सम बीति.
बेगि चलिअ प्रभू आनिए, भुज बल खल दलहे प्रभु, उनका एक-एक पल एक-एक कल्प से समान बीतता है. इसलिए हे प्रभु शीध्र चलिए, अपने बाहु बल से दुष्टों के दल को जीतकर मां जानकी को ले आइये. जीति.

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