हिंदी शोध संसार

शनिवार, 30 अगस्त 2008

जिन्हें नाज है हिंद पर वो कहां हैं?






इस वक्त जहां नदी बह रही है, वहां कुछ रोज पहले तक सड़क हुआ करती थी. सड़क जो जोड़ती थी दोनों ओर के लोगों को. आज भी दोनों के बीच दूरी बहुत ज्यादा नहीं है, मगर ये फासला कयामत जैसा है. भूख से इधर वाले भी तड़प रहे हैं और उधर वाले भी. दोनों पास होते तो अपनी बदनसीबी पर लगे मिलकर रोते या फिर एक दूसरे का मुंह देखकर जिंदा रहते.

एक सप्ताह हो गए, कुछ बाबू लोग आए थे, बोले, चूड़ा-शक्कर ला रहे हैं, लेकिन वो एकबार गए, फिर लौटकर नहीं आए. सप्ताह भर बीत गया. पेट में न अन्न का न एक दाना उतरा है और न ही हलक नीचे पानी का एक बूंद. ये कहानी अफ्रीका के सूदूर जंगली इलाके में रहने वाली आदिम जनजाति की नहीं है, बल्कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत के एक राज्य की है. हम बात कर रहे हैं बिहार की और वहां रहनेवाली बदनसीब जनता की. वही बिहारी जनता जिसे कभी असम से खदेड़ा जाता है तो कभी महाराष्ट्र से. लेकिन आज इन्हें न तो असमियों से शिकायत है और न मराठियों से. क्योंकि आज ये अपने घर हैं, अपनी जन्मभूमि बिहार में. आज ये अपने ही भाग्य पर रोने को मजबूर हैं. मगर बिडंबना यह है कि इनकी सुननेवाला कोई नहीं है.


ये कहानी है उस भारत की, जहां कारगिल में युद्ध का नाम सुनते ही पूरा देश एक हो जाता है. युवाओं की भुजाएं फड़कने लगती है. भूकंप पाकिस्तान में आता है तो दर्द भारत को होता है, धरती चीन में हिलती है तो सीना भारत का फटने लगता है, सुनामी इंडोनेशिया में आता है तो मदद के हाथ भारत के उठते हैं. यह कहानी उसी भारत है यहां भुज के भूकंप और गुजरात दंगों की खबर सुनते ही रातों-रात सैकड़ों स्वयंसेवी संगठन खड़े हो जाते है, तमिलनाडु में सुनामी का नाम सुनते ही अभिनेता और अभिनेत्रियां रिलीफ शो करने आते हैं.

हम बात उसी भारत का कर रहे हैं जिसे बड़े गर्व से दुनिया की चौथी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति कहा जाता है, जिसे अंतिरक्ष की छठी सबसे बड़ी शक्ति कहने में हमें गर्व महसूस होता है.

कहां हैं वो लोग जिन्हें हिंदुस्तान पर नाज है. मानव के अधिकार के नाम सारी दुनिया सर पर उठाने वाली मानवाधिकार संस्थाएं कहां है. कहां है रोटरी क्लब. क्या जलसमाधि ले रहे इन लोगों को जीने का अधिकार नहीं है.

आज बिहार कोऐसे ही लोगों और संस्थाओं की जरूरत है, जिन्हें हिंदुस्तान पर गर्व है. बिहार और बिहार के लोग मदद की गुहार लगा रहे हैं. उनका सब कुछ लुट गया है. घर-बार, खेती-पथारी, माल-मवेशी. बाढ़ में फंसे लाखों लोगों को सुरक्षित जगहों पर ले जाने की जरूरत है. अन्न के एक-एक दाने और पानी के एक-एक बूंद के लिए तरस रहे लोगों को मदद की जरूरत है. जरूरत सिर्फ जा की नहीं, बल्कि आने वाले कई महीनों तक की है. भारत सरकार इस विभीषिका को राष्ट्रीय आपदा घोषित कर चुकी है. इस राष्ट्रीय आपदा से उबरने के लिए भारी मात्रा में धन की जरूरत होगी. फिलहाल जरूरत है, फंसे लोगों को बचाने और जो बच गए हैं उन्हें जिंदा रखने की.

कहते हैं कि दुनियां छोटी हो गई है. लेकिन दुनिया आज भी उतनी ही बड़ी है जितनी बड़ी पहले हुआ करती थी. पहले संसाधन नहीं थे, जानकारी थी. आज हमारे पास अखबार, टीवी, रेडियो है.. मोबाइल, कंप्यूटर और इंटरनेट है. फिर भी इंसान के बीच दूरी है. ये दूरी बिडंबना है हिंदुस्तान के लिए और जलसमाधि लेने को मजबूर इन लाखों लोगों के लिए.

कोई टिप्पणी नहीं :

एक टिप्पणी भेजें