राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर हमारे युग के महानतम क्रांतिधर्मी कवियों में से एक है। उनहोंने जन मानस में राष्ट्र चेतना निर्झरनी प्रवाहित करने की कोशिश की। वे उस प्रवृति के प्रबल विरोधी थे, जो उस समय भी शांति और शांति का मंत्र जपने में तल्लीन रहते हैं, जब राष्ट्र का सर्वस्व दाव पर लगा हो। वे कहते हैं...
स्वत्व छीनता हो कोई और तू त्याग तप से कम ले यह पाप है
पुण्य है विछिन्न कर देना उसे बढ रहा तेरी तरफ जो हाथ है ॥
दिनकर जी का मानना था कि किसी व्यक्ति या राष्ट्र का सबल होना बहुत जरुरी है। अगर व्यक्ति या राष्ट्र सबल है तभी उस नेक नीयती का लबादा अच्छा लगता है...
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो.
उसको क्या जो दंत हीन विष हीन विनीत सरल हो..
दिनकर जी का ये साफ साफ मानना था कि जिस व्यक्ति के पास जीतने शक्ति हो, लोग उसी कि बात मानते हैं..
सच पूछो तो शर में ही बस्ती दीप्ति विनय की.
संधि वचन संपूज्य उसी की जिसमें शक्ति विजय की।
गुरुवार, 1 नवंबर 2007
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