हिंदी शोध संसार

बुधवार, 14 नवंबर 2007

बुद्धिजीवियों का सच्चा चेहरा

एक गुजराती कवि था। जीवनभर खूब लिखा। प्रेम की कवितायें रचा। बुद्धिजीवियों को लगा की उसे ज्ञानपीठ पुरस्कार देना चाहिऐ और दे दिया। ज्ञानपीठ का मतलब भारतीय भाषा में सर्वश्रेष्ठ रचना पर मिलने वाला पुरस्कार। पुरस्कार मिलते ही वह कवि लोगों की नज़र में आ गया। कई बुद्धिजीवियों को लगा कि ये कवि भी बुद्धिजीवी नमक प्राणी है।

उस समय गुजरात में गोधरा बाद दंगे की आग भड़की हुई थी। तथाकथित बुद्धिजीवियों ने इस नए बुद्धिजीवी से सवाल पूछ दिया-- गुजरात दंगों पर। उस कवि ने कहा कि यह दंगा गोधरा कांड की स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। इतना भर काफी था। अपने मन अनुकूल जवाब नहीं पाकर बुद्धिजीवी बिरादरी भड़क उठी। वामपंथी बुद्धिजीवियों ने बवाल मचा दिया। एक स्वर से सबने मांग कर डाली कि इसका ज्ञानपीठ छीन लिया जाये।
उस कवि को क्या जवाब देना चाहिऐ। -- शायद वो जो वामपंथी बुद्धिजीवियों को पसंद हो।
हालांकि उनके पसंद का पैमाना जगह- जगह, व्यक्ति-व्यक्ति के लिए अलग-अलग है। गुजरात दंगों के पांच बाद आज भी नरेन्द्र मोदी उनके लिए जनसंहारक है।
पर दूसरी तरफ नंदीग्राम है। वहाँ सी पी एम की अगुवाई वाली वाममोर्चे की सरकार है। पिछले कई महीनों से वहाँ जनसंहार जारी है। वहाँ विपक्षी दलों के नेताओ, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और मीडिया को जाने नहीं दिया जा रहा है। इनमें से कईयों पर जानलेवा हमला किया गया। केन्द्र की यू पी ए सरकार अपनी राजनितिक मजबूरियों के चलते धृतराष्ट्र की तरह आँखें मूंदे हुए है।
ऐसे में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री कहते हैं कि तृणमूल को हिंसा का जवाब हिंसा से मिला। कहतें हैं उन्होने हमारे आदमियों की हत्या की।
जब नरेन्द्र मोदी को नरसंहार के लिए पद पर बने रहने का हक नहीं है तो बुद्धदेव को क्यो होना चाहिऐ?

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